संयुक्त राष्ट्रकी पीड़ा
कोरोना वैश्विक महामारीसे पूरी दुनिया आक्रान्त है। १८० से अधिक राष्ट्र इसकी चपेटमें हैं। इससे अर्थव्यवस्थाके साथ ही जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इसका सामना करनेके लिए जो दौड़ चली उनमें विकसित राष्ट्र अपनी बढ़त बनानेकी दिशामें काफी सक्रिय रहे। अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओंने भी अपनी भागीदारी की लेकिन इन संस्थाओंसे जो उम्मीदें थीं, उसके अनुरूप उनकी भूमिका नहीं रही। इसपर सवाल भी उठाये गये। संयुक्त राष्ट्रके महासचिव एंतोनियो गुतारेसकी पीड़ा कुछ अलग ही है, जो विश्वके लिए विचारणीय विषय बन सकता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषदके ४६वें सत्रको सम्बोधित करते हुए गुतारेसकी पीड़ा अभिव्यक्त हुई है। उन्होंने कहा कि टीकेके राष्ट्रवादने सबको टीका उपलब्ध करानेकी सम्भावनाएं छीन ली है। आज विश्वमें ७५ प्रतिशत टीके सिर्फ दस देशोंमें लगाये गये हैं जबकि १३० देशोंमें अभीतक एक भी टीका नहीं मिल पाया है। इसलिए कोरोना टीकाकरण अभियानमें समानताका अभाव नैतिक पतनका सबसे ताजा उदाहरण है। उन्होंने कहा कि टीकोंमें बराबरी होनी चाहिए जिसे टीका राष्ट्रवाद छीन रहा है। गुतारेसकी पीड़ा अपनी जगह अवश्य सही है लेकिन इसका उत्तर पानेके लिए हमें विकसित राष्ट्रों और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओंकी भूमिकापर भी ध्यान देना होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संघटन सहित अनेक अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओंकी कार्यशैली युगसापेक्ष नहीं है। इसमें बदलावके लिए भारत सहित अनेक देशोंने मांग की है लेकिन अभीतक कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया है। कोरोना वायरससे लडऩेमें भारतकी भूमिकाको अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओंने सराहा है। भारतने कई टीके विकसित किये और अनेक टीकोंपर कार्य भी चल रहा है। भारतने टीकाकरणका बड़ा अभियान शुरू करनेके साथ अनेक देशोंको टीकोंकी आपूर्ति की और कई देशोंको नि:शुल्क भी टीका उपहारमें दिया। यह भारतकी मानवताकी सेवा और विश्वबन्धुत्वकी भावनाका उत्कृष्ट उदाहरण है। यह विश्वके अन्य देशोंके लिए अनुकरणीय है। यह दुखद है कि १३० देशोंमें अभीतक टीका नहीं लग पाया लेकिन इस स्थितिके लिए कौन जिम्मेदार है इसकी जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्वास्थ्य संघटन इसपर गम्भीरतासे सोचें और कार्य योजना तैयार करनेमें सभी देशोंकी भागीदारी सुनिश्चित करें। साथ ही टीकाकरणके लिए आवश्यक संसाधनोंको जुटानेके लिए रणनीति बनायें तभी सभी देशोंमें टीकाकरण अभियान चलाया जा सकता है।
महिलाओंको आरक्षण
बिहार सरकारकी महिलाओंको स्वावलम्बी बनानेकी विशेष योजनाएं स्वागतयोग्य हैं। वित्तीय वर्ष २०२१-२२ के लिए पेश बजटमें महिला उद्यमिताको बढ़ावा देनेके लिए महिलाओंको रोजगारमें ३५ प्रतिशत आरक्षणका प्रावधान महिला सशक्तीकरणकी दिशामें बड़ा कदम है। अपने स्वयंके उद्योग लगानेके लिए अनुदान और ब्याजरहित ऋणकी सुविधा महिलाओंको प्रोत्साहित करनेवाली है। इसके तहत लगाये जा रहे उद्योगोंमें परियोजना लागतका ५० प्रतिशत अधिकतम पांच लाख रुपयेतकका अनुदान तथा अधिकतम पांच लाख रुपयेतक ब्याजमुक्त ऋण दिया जायगा। इसके साथ ही लड़कियोंकी शिक्षापर केन्द्रित कई सकारात्मक प्रावधान शामिल किये गये हैं। साइकिल और पोशाक देनेका निर्णय लड़कियोंको स्कूल जानेके लिए प्रोत्साहित करनेकी अच्छी पहल है। उच्च शिक्षाके लिए इण्टर उत्तीर्ण करनेपर अविवाहित महिलाओंको पचीस हजार रुपये तथा स्नातक उत्तीर्ण होनेपर पचास हजार रुपयेकी आर्थिक सहायता शिक्षित समाजकी संरचनामें सार्थक प्रयास है। लड़कियोंका शिक्षित होना बहुत जरूरी है, क्योंकि परिवारके एक लड़केके शिक्षित होनेसे सिर्फ एक व्यक्ति शिक्षित होता है, जबकि एक लड़कीके शिक्षित होनेसे एक परिवार शिक्षित होता है। शिक्षित समाज ही देशकी ताकत है। समाज जितना शिक्षित होगा देश उतना ही सशक्त होगा। महिलाओंको आत्मनिर्भर बनानेकी दिशामें बिहार सरकारका प्रयास प्रशंसनीय है। महिलाओंकी आबादीको देखते हुए ३५ प्रतिशत आरक्षण कम है। समानताके अधिकारके तहत इसे ५० प्रतिशत होना चाहिए। बिहारके विकासके लिए सरकारने बहुत कुछ किया है जिसके अच्छे परिणाम भी सामने आये हैं लेकिन अभी और भी कुछ करनेकी जरूरत है। बिहारमें प्राकृतिक संसाधनोंकी कमी नहीं है, जिसका उपयोग विकासमें किया जा सकता है। रोजगारके अवसर बढ़ाये जाने चाहिए जिससे बेरोजगारीपर अंकुश लगे। सरकारका महिलाओंको रोजगारमें आरक्षणकी पहल अन्य राज्योंके लिए प्रेरक और अनुकरणीय है।