सम्पादकीय

लम्बी मंदीकी सम्भावना


डा. भरत झुनझुनवाला
इस वित्तीय वर्षकी पहली तिमाहीमें हमारी सकल घरेलू आय यानी जीडीपीमें २४ प्रतिशतकी गिरावट आयी थी। इसके बादकी दूसरी एवं तीसरी तिमाहीमें आठसे दस प्रतिशत गिरावट रहनेका अनुमान है जो कि सुधारका संकेत देता है। इसी प्रकार जूनमें वैश्विक संस्थाओंका आकलन था कि इस पूरे वर्ष २०२०-२१ में भारतकी आर्थिक विकास दर ऋणात्मक दस प्रतिशत रहेगी। लेकिन हालमें कई संस्थाओंने इस गिरावटके अनुमानको दस प्रतिशतसे कम करके सात प्रतिशत कर दिया है। इससे परिस्थितिमें सुधारकी संभावना दिख रही है। इन आकलनोंके विपरीत विश्व बैंकने कहा है कि हम वर्तमानमें ही लम्बी मंदीमें प्रवेश कर चुके हैं। इन दोनों आकलनोंके बीच हमें अपनी राह तय करनी है। अर्थशास्त्रके अनुसार चार प्रकारकी मंदी होती है। एक सामान्य मंदी होती है जैसे यदि किसी एक माहमें पिछले वर्षके उसी माहकी तुलनामें आय कम हो तो वह सामान्य मंदी कहा जाता है। इसे आकस्मिक घटना माना जाता है और इसका दीर्घकालीन संज्ञान नहीं लिया जाता है जैसे सर दर्द हो जय तो डाक्टरके पास नहीं जाया जाता है। दूसरी मंदी एक तिमाहीतक जारी रहती है। पिछले वर्षकी तिमाही एककी तुलनामें इस वर्षकी उसी तिमाहीमें आयमें गिरावट आये तो उसे मंदी या रिसेशन कहा जाता है। तीसरी मंदी वह होती है जो कि दो तिमाहियोंतक लगातार रहे। जैसे यदि पिछले वर्षकी पहली दो तिमाहियोंकी तुलनामें इस वर्षकी पहली दो तिमाहियोंमें आयमें गिरावट आये तो इसे तकनीकी मंदी अथवा टेकनिकल रिसेशन कहते हैं। इसके बाद चौथी मंदी वह होती है जो कि कई वर्षतक चलती है। इसे डिप्रेशन कहा जाता है अथवा इसे हम लम्बी मंदी कह सकते हैं। जैसे अमेरिकामें वर्ष १९२९ से १९३८ के नौ वर्षोंमें सात वर्षोंमें आयमें गिरावट आयी थी। यह गिरावट कई वर्षोंतक चली इसलिए इसे डिप्रेशन कहते हैं।
इस परिप्रेक्ष्यमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोषने वर्तमान मंदीको केवल तकनीकी मंदी यानी कि दो तिमाहीकी मंदी बताया है। उनके अनुसार हम फिलहाल लम्बी मंदीमें प्रवेश नहीं किये हैं। इसके विपरीत विश्व बैंकने कहा है कि हम वर्तमानमें ही लम्बी मंदी अथवा डिप्रेशनमें प्रवेश कर चुके हैं। यह मंदी लम्बी चल सकती है। इसलिए इन दोनों आकलनोंके बीच हम मुद्राकोषकी बात मानकर सुकूनमें रह सकते हैं कि दो तिमाहीकी यह तकनीकी मंदी शीघ्र समाप्त हो सकती है। लेकिन हमें विपरीत परिस्तिथियोंके लिए तैयार रहना चाहिए। जैसे शहर बरसातके समय अधिक वर्षाके लिए अपने नदी-नालोंको सुव्यवस्थित करता है। भारी बरसात आये या न आये उसी प्रकार हमें वर्तमान मंदीके लम्बी मंदीमें परिवर्तित हो जानेके लिए तैयार रहना चाहिए। लम्बी मंदी आये या न आये।
वर्तमान मंदीके सम्बन्धमें दो विशेष अनिश्चितताएं हैं। पहली यह कि वैक्सीन बनकर सफल होती है या नहीं। शीघ्र ही विश्वके तमाम लोगोंको वैक्सीन उपलब्ध हो जानेकी भी संभावना है। परन्तु इसके साइड इफैक्ट भी देखे जा रहे हैं। एक संभावना यह भी है कि कोविडका वायरस अपना रूप बदल ले या म्यूटेट हो जाय और पुन: नये रूपमें इस महामारीका फैलाव हो सकता है। यूरोपीय देशोंमें महामारी दोबारा बढ़ गयी है। अमेरिकामें भी थम नहीं रही है। वैक्सीनसे कितना लाभ होगा यह समय ही बतायेगा। अभी वैक्सीनके भरोसे रहना उचित नहीं दीखता है। दूसरी अनिश्चितता है कि कभी कभी मंदीका प्रभाव तत्काल कम और कुछ समय बाद ज्यादा गहरा हो जाता है। जैसे वर्ष २००८ की मंदीमें उस वर्ष विशेष यानी २००८ में विश्वकी आयमें मात्र ०.१ प्रतिशतकी गिरावट आयी थी। लेकिन अगले वर्ष २००९ में विश्वकी आयमें २.५ प्रतिशतकी गिरावट आयी थी। इन दोनों अनिश्चितताओंके कारण एक संभावना यह बनती है कि वर्तमान मंदी शीघ्र सामान्य हो जाये जैसा कि मुद्राकोषने आकलन किया है अथवा अगले वर्ष गहरी मंदीमें हम प्रवेश कर जायं जैसी संभावना विश्व बैंकने जतायी है। इन दोनों अनिश्चतताओंके कारण हमें सतर्क हो जाना चाहिए और लम्बी मंदीके लिए तैयारी कर लेनी चाहिए। यह सोचकर नहीं चलना चाहिए कि वैक्सीन बननेसे यह मंदी शीघ्र ही समाप्त हो ही जायेगी। सबसे विपरीत परिस्थितिके लिए तय्यार रहना चाहिए अन्यथा वैसी परिस्थिति उत्पन्न होनेपर हम भारी संकटमें पड़ेंगे जैसे वर्षापर निर्भर रहनेवाला किसान कभी-कभी भारी संकटमें पड़ता है।
इस सम्बन्धमें हमें ऋणके उपयोगपर ध्यान देना होगा। तमाम सरकारोंने इस मंदीके दौरान भारी मात्रामें ऋण लेकर अपनी अर्थव्यवस्थाके चक्कोंको चालू रखा है जो कि प्रसन्नताका विषय है। लेकिन यदि यह मंदी लम्बी खिंच जाती है तो सरकारोंकी उत्तरोत्तर ऋण लेनेकी क्षमतापर प्रभाव पड़ेगा। ब्याज दरें बढ़ सकती हैं और सरकारोंको ऋण मिलना कठिन हो सकता है। उस परिस्थितिमें हम दोहरे संकटमें पड़ेंगे। मंदी भी जारी रहेगी और वर्तमानमें हम ऋण लेकर जिस मंदीको पार कर रहे हैं वह ऋण लेना भी कठिन हो जायगा। इसलिए वैश्विक सलाहकारोंका कहना है कि ऋणके उपयोगकी गुणवत्तापर ध्यान देनेकी जरूरत है। यदि सरकारोंने ऋण लेकर सामान्य खर्च जैसे युद्ध, मूर्तियां, पुलिस अथवा सरकारी खपत इत्यादिमें खर्च किये तो उस ऋणसे नयी आय उत्पन्न नहीं होगी जबकी ऋणपर ब्याजका बोझ बढ़ता जायगा। तुलनामें यदि लिये गये ऋणका हम सुनिवेश करें विशेषत: अपने देशमें सुशासन लागू करनेके लिए, श्रमिकोंकी कार्य क्षमतामें सुधार करनेके लिए अथवा नयी तकनीकोंके आविष्कारके लिए तब उस ऋणसे नया उत्पादन शुरू हो जायगा और लिये गये ऋण कि हम अदायगी कर सकेंगे। मान लीजिये भारत सरकारने ऋण लिया और ऋण लेकर कृषिमें नये प्रकारकी जैविक खादका आविष्कार कर लिया। यदि ऐसा हुआ तो मंदी लम्बी भी खिचे तो भी उस जैविक खादके प्रभावसे हम मंदीके दौरान भी अपनी आयमें वृद्धि हासिल कर सकते हैं। इसलिए सरकारको चाहिए कि जो ऋण लिये जा रहे हैं उनका उपयोग सुशासन, जनताकी कार्य क्षमता और नयी तकनीकोंके आविष्कारमें करे, न कि वर्तमान सरकारी खपतको पोषित करनेमें।