सम्पादकीय

आतंकवादपर राजनीति अस्वीकार्य


आर.के. सिन्हा

कुछ वर्ष पूर्व ही देशकी राजधानीमें हुए बटला हाउस एनकाउंटरमें शहीद हुए। दिल्ली पुलिसके जाबांज इंस्पेक्टर मोहनचंद्र शर्माकी जिस आतंकी आरिज खानकी गोलीसे मृत्यु हुई थी, वह खूंख्वार इंडियन मुजाहिदीनसे जुड़ा था। आरिजको धारा ३०२, ३०७ और आम्र्स एक्टमें दोषी करार दिया है। आजमगढ़का रहने आरिज खान उर्फ जुनैदको स्पेशल सेलकी टीमने फरवरी २०१८ में गिरफ्तार किया था। यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है जब इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्माकी मृत्युपर जमकर सियासत हुई थी। उनकी शहादतकी जानबूझकर वोटोंकी राजनीतिकी खातिर अनदेखी की गयी। कांग्रेसके नेता दिग्विजय सिंहने बटला हाउस एनकाउंटरको फर्जी बताया था। उन्होंने यहांतक कहा था कि मैं अपने बयानपर अडिग हूं। अब जब अदालतने आरिज खानको इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्माकी हत्याके लिए दोषी मान लिया है तो संभव है कि वह सब शर्मसार होंगे जो उस बटला हाउस एनकाउंटरको फर्जी बता रहे थे। क्या अब इसपर भी दिग्विजय सिंह कुछ बोलेंग। क्या उनमें इतनी नैतिकता बची है कि वह इंस्पेक्टर शर्माके घर जाकर उसके परिवारवालोंसे माफी मांगेगे अपने शर्मनाक बयानोंके लिए। बटला हाउस एनकाउंटरको ऑपरेशन बटला हाउस नाम दिया गया था। यह ऑपरेशन इंडियन मुजाहिद्दीनके आतंकियोंके खिलाफ चलाया गया था, जिसमें दो आतंकी मारे गये थे और दोको गिरफ्तार किया गया था। बटला हाउस एनकाउंटरको लेकर जिस तरहकी ओछी राजनीति हुई उससे इतने ठोस संकेत तो मिल गये थे कि भारतमें एक बड़ा वर्ग देशके दुश्मनोंके हकमें बोलनेसे कतई बाज नहीं आता। बटला हाउसपर दिग्विजय सिंहसे मिलते-जुलते बयान ही कई अन्य नेताओंने भी दिये थे। पश्चिम बंगालकी मौजूदा मुख्य मंत्री ममता बनर्जीने १७ अक्तूबर २००८ को जामिया नगरमें एक जनसभाको संबोधित करते हुए कहा था, यह (बटला हाउस) एक फर्जी एनकाउंटर था। यदि मैं गलत साबित हुई तो राजनीति छोड़ दूंगी। मैं इस एनकाउंटरपर न्यायिक जांचकी मांग करती हूं। कायदेसे तो उन्हें अब राजनीति छोडऩी ही चाहिए।  बात यहींतक नहीं रूकती। पूर्व केन्द्रीयमंत्री और कांग्रेसके बड़े नेता सलमान खुर्शीदने १० फरवरी, २०१२ को उत्तर प्रदेशके आजमगढ़में कांग्रेसकी एक रैलीको संबोधित करते हुए यह सार्वजनिक दावा किया कि मैंने जब बटला हाउस एनकाउंटरकी तस्वीरें सोनिया गांधीको दिखायी तब उनकी आंखोंसे आंसू गिरने लग गये और उन्होंने मुझे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंहसे बात करनेकी सलाह दी। अब अंदाजा लगा सकते हैं कि आंसूभरी आंखोंसे दी गयी सलाह क्या हो सकती है।

इसी भारतमें आतंकियोंके जनाजोंमें भीड़ भी उमड़ती है। याद होगा कि सुरक्षाबलोंके साथ मुठभेड़में कश्मीरका कुख्यात आतंकी बुरहान मुजफ्फर वानी मारा गया था। उसके जनाजेमें हजारों लोग उमड़े थे। तब दिग्विजय सिंह और असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओंकी जुबानें पूरी तरह सिल गयी थीं। इन और इन जैसों सभी छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियोंने आतंकीके जनाजेमें शामिल लोगोंके लिए एक शब्द नहीं बोला था। उल्लेखनीय है कि मुंबई धमाकोंके गुनहगार याकूब मेमनकी मुंबईमें निकली शव यात्रामें वर्ष १९९३ में हुए सीरियल बम विस्फोटके मामलेमें दोषी याकूब मेमनको नागपुर केंद्रीय कारागारमें फांसी दी गयी। इसके बाद उसकी मुंबईमें शव यात्री निकली। उसमें भी हजारों लोग शामिल हुए। जिनके हाथोंपर मासूमोंका खून लगा हो, क्या समाजके एक वर्गको उनके साथ खड़ा कभी होना चाहिए। इस तरहके ही विक्षिप्त लोग इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्माके नेतृत्वमें हुए एनकाउंटरपर सवाल खड़े कर रहे थे। हिन्दुओंके खूनका प्यासा बुरहान हिजबुल मुजाहिदीनके कमांडरके तौरपर काम करते हुए आतंकवादियोंकी भर्ती कर रहा था। मेमनकी मुंबई धमाकोंकी रणनीति बनानेमें खास भूमिका थी।

आरिज खान भी देशका दुश्मन था। वह साल २००७ से हरकतमें आये इंडियन मुजाहिद्दीनका सक्रिय सदस्य था। इंडियन मुजाहिद्दीनको पाकिस्तान आतंकवादी संघटनोंसे मदद मिलती रही है। उसके २००७ में उत्तर भारतमें हुए कई धमाकोंसे तार जुड़े हुए थे। इसी संघटनने २००८ में अहमदाबादमें बड़ा धमाका किया था, जिसमें ५० लोग मारे गये थे। एक बात समझसे परे है कि मुसलमानोंका एक वर्ग बिना कुछ समझे-बूझे आतंकियोंको अपना नायक क्यों मानने लगता है। क्या आतंकवादका कोई धर्म भी होता है। हम सबने सुना है कुछ मुस्लिम दानिशमंदोंको यह कहते हुए कि आतंकवादका कोई धर्म नहीं होता। यह बात सही है तो फिर वह बुरहान और मेमन जैसोंके हकमें क्यों खड़े नजर आते हैं। बुरहान वानीको जेएनयूमें देशविरोधी नारे लगानेके आरोपी उमर खालिदने शहीद साबित करनेकी कोशिश की थी। उमर खालिदने अपने फेसबुक पोस्टपर बुरहानकी तुलना लैटिन अमेरिकी क्रांतिकारी चे ग्वेरातकसे कर दी। वही खालिद उमर दिल्ली दंगोंका मुख्य मास्टरमाइंड है। फिलहाल वह जेलमें है। एक बात सबको समझनी चाहिए कि आतंकवादपर देशको एक साथ मिलकर लडऩा होगा। भारत आतंकवादकी बहुत बड़ी कीमत अदा कर चुका है। इस मसलेपर राजनीति नहीं करनी चाहिए। यदि हम आतंकवाद जैसे सवालपर भी एक नहीं हुए तो फिर मान लें कि हम आतंकवादसे चल रही जंगमें कभी भी विजय हासिल नहीं कर सकेंगे।