सम्पादकीय

भावनात्मक परिष्कार


श्रीराम शर्मा
प्राचीनकालसे तुलना की जाय और मनुष्यके सुख-संतोषको भी दृष्टिगत रखा जाय तो पिछले जमानेकी असुविधाभरी परिस्थितियोंमें रहनेवाले व्यक्ति अधिक सुखी और संतुष्ट जान पड़ेंगे। इन पंक्तियोंमें भौतिक प्रगति तथा साधन-सुविधाओंकी अभिवृद्धिको व्यर्थ नहीं बताया जा रहा है, न उनकी निंदा की जा रही है। कहनेका आशय इतना भर है कि परिस्थितियां कितनी भी अच्छी और अनुकूल क्यों न हों, यदि मनुष्यके आंतरिक स्तरमें कोई भी सुधार नहीं हुआ है तो सुख-शांति किसी भी उपायसे प्राप्त नहीं की जा सकती है। सर्वतोमुखी पतन और पराभवके इस संकटका निराकरण करनेके लिए एक ही उपाय कारगर हो सकता है। वह है व्यक्ति और समाजका भावनात्मक परिष्कार। भावना स्तरमें अवांछनीयताओंके घुससे ही तमाम समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। इन समस्याओंका यदि समाधान करना है तो सुधारकी प्रक्रिया भी वहींसे प्रारंभ करनी पड़ेगी, जहांसे यह विभीषिकाएं उत्पन्न हुई हैं। अमुक-अमुक समाधान सामयिक उपचार तो हो सकता है, परन्तु चिरस्थायी समाधानके लिए आधारको ही ठीक करना पड़ता है। अधर्मका आचरण करनेवाले असंयमी, पापी, स्वार्थी, कपटी, धूर्त और दुराचारी लोग शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य एवं धन-संपत्ति, यश-वैभव आदि सब कुछ खो बैठते हैं। उन्हें बाह्य जगतमें घृणा और तिरस्कार तथा अंतरात्मामें धिक्कार ही उपलब्ध होते हैं। ऐसे लोग भले ही उपभोगके कुछ साधन इक_े कर लें, परन्तु अनीतिका मार्ग अपनानेके कारण उनका रोम-रोम अशांत तथा आत्म-प्रताडऩाकी आगमें झुलसता रहता है। चारों ओर घृणा, तिरस्कार एवं असहयोग ही मिलता है। आतंकके बलपर यदि वह कुछ पा भी लेते हैं तो उपभोगके पश्चात उनके लिए विषतुल्य-दुखदायक ही सिद्ध होता है। आत्मशांति पाने, सुसंयमित जीवन व्यतीत करनेवाले मनुष्यको धर्ममय जीवनक्रम अपनानेके लिए तत्पर होना पड़ता है। नैतिकता, मानवता एवं कर्तव्य परायणताको ही अपने जीवनमें समाविष्ट करना होता है। इस प्रवृत्तिका व्यापक प्रसार करनेके लिए किये गये प्रयत्नोंको नैतिक क्रांतिकी संज्ञा दी जाती है। बुद्ध धर्मके प्रथम मंत्र धम्मं शरणं गच्छामिमें इसी नैतिक क्रांतिकी चिंगारी निहित है, इस मंत्रको लोकव्यापी बनानेके लिए जो प्रयत्न बौद्ध धर्मावलंबियोंने किया था, उसे विशुद्ध नैतिक क्रांति ही कहा जायगा। वर्तमान दौरमें इनसान एक-दूसरेसे आगे निकलनेके चक्करमें अपन सब कुछ गंवा देता है। आजके मनुष्यके पास तो अपने लिए सोचनेका ही समय नहीं है तो बाकी परिवारके विषयमें वह क्या करेगा। अवसादग्रस्त जीवनशैली आजके इनसानको इस कद्र प्रभावित कर रही है कि उसे सुख और शांतिका तो पता ही नहीं रहा। अपने वजूदकी पहचान और आंतरिक स्तरमें सुधार बहतु जरूरी है।