सम्पादकीय

मनोरंजनकी आड़में विकृतिको जन्म


डा. श्रीनाथ सहाय

अबतक तो केवल इण्टरनेटके जरिये फैले पोर्नोग्राफीके कारोबारको लेकर ही चिन्ता व्यक्त की जाती थी किन्तु अब ओटीटी रूपी इस माध्यमने डरावनी स्थित उत्पन्न कर दी है। एक समय था जब भारतमें मां-बाप बच्चोंको सिनेमा देखनेतकसे रोकते थे। लेकिन पहले टेलीविजन और उसके बाद इण्टरनेटके उदयने मनोरंजनको सर्वसुलभ कर दिया। जिन बच्चोंको रेडियोपर गाने सुननेसे भी रोका जाता था उनके हाथमें मोबाइल फोन आते ही वह अपनी उम्रसे ज्यादा बड़े होने लगे। इन दिनों जिस ओटीटीकी सर्वत्र चर्चा हो रही है वह सिनेमाके नये विकल्पके तौरपर आ धमका है। बीते दो दशकमें परम्परागत सिनेमाघरोंकी जगह तेजीसे मल्टीप्लेक्स खुले लेकिन ओटीटीने उस व्यवसायको भी खतरेमें डाल दिया है। वेब सीरीज नामक नयी विधा आजकल सामान्य चर्चाओंका विषय बनने लगी है। इसके कारण मनोरंजन उद्योगमें जबरदस्त बदलाव आने लगा है। लेकिन इसके जरिये भारतीय दर्शकोंके समक्ष जो कुछ परोसा जा रहा है उससे समाजमें एक हलचल भी है।

भारतीय संदर्भोंमें खुलेपनको लेकर एक विशिष्टï सोच है जिसमें अश्लील दृश्यों और संवादोंके बारेमें मर्यादाओंकी रेखा भले ही सदियों पुरानी है किन्तु औसत भारतीय परिवारोंमें आज भी न सिर्फ बच्चों अपितु वयस्क सदस्योंके बीच भी खुलेपनके बारेमें संकोच देखा जा सकता है। यही वजह है कि जिस ओटीटीका सस्ते और सहज मनोरंजनके रूपमें स्वागत किया गया अब उसके सामने लक्ष्मण रेखाएं खींचनेका प्रयास हो रहा है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालयने इस सम्बन्धमें केंद्र सरकारको लताड़ते हुए कहा कि केवल नियम बननेसे काम नहीं बननेवाला। न्यायालयने इण्टरनेट, ओटीटीके साथ डिजिटल मीडियापर परोसी जा रही अश्लीलताको रोकनेके लिए सख्त कानून बनानेके निर्देश भी दिये जिसके लिए सरकारने समय मांग लिया। बीते एक वर्षमें कोरोनाकी वजहसे फिल्मोंके निर्माणमें बहुत बाधा आयी। सिनेमाघरोंके बंद हो जानेसे मनोरंजन उद्योगका कारोबार ठप हो गया। लेकिन इसी दौरान लघु फिल्मों ओर वेब सीरीजने जोर पकड़ा और देखते-देखते यह नया तरीका जनताको रास आने लगा।

टीवी धारावाहिकोंकी जगह वेब सीरीज चर्चामें शुमार होने लगी। लेकिन मनोरंजनके नामपर ठेठ पश्चिमी शैलीमें जिस तरहसे नंगापन मनोरंजनकी आड़में पेश किया जाने लगा और उसे नियंत्रित करनेमें सरकारकी असमर्थता सामने आयी इसके बादसे ही मामला अदालतकी देहलीजपर जा पहुंचा। हिंसा और अन्तरंग दृश्योंके अलावा गालियोंसे भरे संवादोंकी वजहसे ओटीटी प्लेटफार्म नामक मनोरंजनका यह साधन समाजके एक बड़े वर्ग विशेष रूपसे युवा पीढ़ीको अपने मोहपाशमें जकड़ता जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालयमें एक कम्पनीका बचाव करते हुए एक वरिष्ठï अधिवक्ताने कहा कि मेरे घर चलिये, ऐसी सैकड़ों फिल्में हैं जिनमें नग्नता (पोर्न) नहीं है। उनकी बात पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन यह भी सच है कि ओटीटीके रूपमें जो नया छोटा पर्दा मनोरंजनका नया जरिया बन गया उसपर नियन्त्रण कर पानेमें मौजूदा नियम कानून पूरी तरह असहाय साबित हुए हैं। इसीलिए न्यायालयको यह कहना पडा कि अश्लील सामग्री रोकनेके लिए सरकार कानून बनाये। लेकिन सवाल यह है कि सरकार इस बारेमें अभीतक इतनी उदासीन क्यों रही? जिन सार्वजनिक मंचोंपर अराजकता, अश्लीलता, असामाजिकता है, जो अभिव्यक्तिकी आजादीकी आड़में आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशित-प्रसारित करते रहे हैं, जिनसे सर्वोच्च न्यायालयने नागरिकोंकी निजताको लेकर गंभीर सवाल किये हैं, जो वाशिंगटनमें कैपिटल हिल (अमेरिकी संसद भवन) और दिल्लीमें लालकिलेपर बेलगाम उपद्रवको अलग-अलग ढंगसे उकसाते और भड़काते हैं, जो भारतीय संदर्भमें हमें अनावश्यक लगते हैं, उनके मद्देनजर बेहद गंभीर सवाल है कि उन्हें ‘मीडियाÓ का नाम और विशेषण क्यों दिया गया? हालांकि भारतीय संविधानमें ‘चौथा स्तंभÓ का कोई अलग और विशेष प्रावधान नहीं है, लेकिन लोकतंत्रमें मीडियाकी समानांतर और समान भूमिका है। देशके कानूनमें उसका दायित्व तय किया गया है। भारतीय अदालतों और प्रेस परिषदके प्रति मीडिया जवाबदेह है और उसपर निरन्तर निगरानी भी है। कानून उसे दंडित भी करता रहा है। इतनी गंभीर और जिम्मेदार भूमिकामें ह्वïाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि मंच कभी नहीं रहे, जिन्हें दुनियाभरमें ‘सोशल मीडियाÓ के तौरपर संबोधित किया जाता रहा है।

इंटरनेटका अनुचित प्रयोग रोकना जरूरी है। केन्द्र सरकारने इंटरनेट मीडिया, ओटीटी और डिजिटल न्यूज प्लेटफार्मका प्रयोग अफवाहों और झूठका प्रसार करनेवालोंपर नकेल कसनेके लिए सख्त कदम उठाते हुए इसके लिए नये दिशा-निर्देश जारी किये हैं। यह दिशा-निर्देश कितने कामयाब होंगे, यह तो आनेवाला समय ही बतायगा, लेकिन यह सरकारका बहुत ही सराहनीय कदम है क्योंकि शरारती तत्व इण्टरनेटका अनुचित प्रयोग करते हैं। कभी-कभी सरकारको आन्दोलन, प्रदर्शनके दौरान इण्टरनेटपर पाबंदी मजबूरीमें लगानी पड़ती है। इससे देशको आर्थिक नुकसान भी होता है और आमजनको परेशानी भी। बच्चे, किशोर, नाबालिग आखिर क्यों पथभ्रष्टï होकर अनैतिक और अपराधी मामलोंको अंजाम दे रहे हैं? क्या इसका कारण फिल्मों, नाटकों और इंटरनेटमें दिखाये जानेवाले आपत्तिजनक दृश्य तो नहीं, सभीको यह सोचना चाहिए।

सोशल मीडियाको कुछ लोग मात्र टाइम पासका जरिया मानते हैं और शरारती तत्व इसका दुरुपयोग करते हैं, लेकिन इसके दुरुपयोगको रोकनेके लिए सरकार भी ढुलमुल रवैया अपनाये हुए है। कुछ लोग फेक न्यूज या मनगढं़त तथ्योंको भी सोशल साइट्सपर शेयर कर देते हैं। जो लोग अफवाहें या भ्रांतियां फैला रहे हैं, उनपर शिकंजा कसनेके लिए सरकारको कुछ प्रयास करने चाहिए ताकि कोई अफवाह किसीके लिए मुसीबत न बने। यदि किसीको कोई अफवाह सोशल मीडियापर नजर आती है तो उसकी शिकायत फौरन संबंधित सोशल मीडियाके हेल्प डेस्क, मीडिया और पुलिसको देनी चाहिए। लेकिन इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि सोशल मीडियापर जो परोसा जाता है, जरूरी नहीं वह सारा ही खराब या गलत हो, क्योंकि आज सोशल मीडियापर डॉक्टर, आयुर्वेद और अन्य विभिन्न पेशेके माहिर अपना-अपना तजुर्बा पेश करते हैं। इसके पहले कि अश्लीलताके कारोबारी समाजकी सोचको पूरी तरह विकृत करनेमें सफल हो जायं, सरकार और समाजके जिम्मेदार लोगोंको आगे बढ़कर उसे रोकनेकी दृढ़ता दिखानी चाहिए। भारत भले ही कितना भी आधुनिक और पश्चिमपरस्त हो जाय लेकिन वह नग्नताको संस्कृति माननेके लिए कभी तैयार नहीं होगा। भारतमें ओटीटी प्लेटफॉर्म और न्यूज पोर्टल आदिके लिए भी कोई जिम्मेदार संहिता नहीं है। इनपर खूब सीमाएं लांघी गयी हैं। आस्थाओंके मजाक उड़ाये गये हैं और अभिव्यक्तिकी पनाहगाहमें छिपते रहे हैं। सर्वोच्च अदालत कह चुकी है कि अभिव्यक्तिकी आजादी भी असीमित नहीं है। फिलहाल यह दिशा-निर्देश ‘नरम स्पर्शकी निगरानीÓ साबित होंगे अथवा निरंकुशता बदस्तूर जारी रहेगी, यह देखना अभी शेष है।