सम्पादकीय

चुनाव परिणामोंकी ध्वनि


अवधेश कुमार
उमर अब्दुल्लाने कहा कि डीडीसी चुनावोंमें लोगोंने भाजपाको करारा जवाब दिया है। वह इसे धारा ३७० हटाये जानेके खिलाफ जनादेश भी बता रहे हैं। आश्चर्यजनक वक्तव्यपर यदि चुनाव आयोग द्वारा दिया आंकड़ा देखें तो जिस गुपकार गठबंधनको यह लोग शक्तिशाली मोर्चा मान रहे थे, जिसकी किलेबंदी कोई भेद नहीं सकता, कल्पना यह थी कि हम साथ मिल गये तो प्रदेशमें कोई टिकेगा नहीं और सारे चुनाव जीतकर हम पहलेकी तरह जो चाहेंगे करेंगे। वह फेल हो गया। फारुख इतने बौरा गये कि धारा ३७० को फिरसे लागू करनेके लिए चीनसे मदद लेनेका बयान दे दिया। मेहबूबा कहने लगीं कि यहां तिरंगेको हाथ लगानेवाला नहीं मिलेगा। गाल बजाना कोई इनसे सीखे। निस्संदेह स्थानीय राजनीतिक समीकरणमें जबतक कश्मीरकी राजनीतिमें हो रहा परिवर्तन निश्चित रूपाकार ग्रहण नहीं करता, इनकी सम्मिलित ताकतको कोई नकार नहीं सकता। किन्तु इस चुनाव परिणामने साबित कर दिया है कि इनका प्रभाव समाप्त हो रहा है। ऐसा न होता तो एक-दूसरेके साथ सांप-नेवलेका युद्ध लडऩेवाले अब्दुल्ला और मेहबूबाको मिलकर चुनाव नहीं लडऩा पड़ता। बावजूद इसके क्या इस जनादेशको इनकी उम्मीदोंके अनुरूप कहा जा सकता है।
इसका सीधा उत्तर है ‘नहींÓ। गुपकार ११२ सीटें जीतकर सबसे बड़ा गठबंधन अवश्य बना है, परन्तु भाजपाको ७५ स्थान पाकर सबसे बड़ी पार्टी बननेसे यह नहीं रोक सके। भाजपा मतोंमें ३८.७४ प्रतिशतके साथ आगे है। गुपकारको ३२.९६ प्रतिशत मत मिले हैं जो भाजपासे ५.७८ प्रतिशत कम है। भाजपाको कुल ४ लाख ८७ हजार ३६४ मत मिले जबकि गुपकारके साथ कांग्रेसका भी मत मिला दें तो यह ४ लाख ७७ हजारके आसपास है। कल्पना करें यदि सात दलोंने मिलकर चुनाव नहीं लड़ा होता तो परिणाम कैसा होता। निर्दलीयोंकी ५० स्थानोंपर विजय भी इन दलोंसे मोहभंगका ही संकेत है। सबसे बड़ी बात घाटीमें भाजपाके तीन प्रत्याशियों द्वारा गुपकारको हराकर प्राप्त किया गया विजय है। वास्तवमें परिणामोंके आंकड़े बता रहे हैं कि यदि भाजपाने प्रदेशमें अपनी गोटी ठीकसे सजायी और कुछ दलोंको ताकत दिया तो फिर अब्दुल्ला और मुफ्तीकी राजनीति हाशियेपर होती। इन लोगोंका चुनावमें एक ही एजेंडा था। यदि धारा ३७० और ३५ ए को वापस लाना है, प्रदेशको सम्पूर्ण भारतसे अलग विशेष राज्यकी तश्तरीमें सजानेकी ताकत पानी है तो गुपकारको गले लगाओ एवं भाजपाको भगाओ। यदि पूरे प्रदेशमें इनकी बातोंका असर होता हो इन्हें एकतरफा विजय मिलती। ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ है इनके उम्मीदवार इतनी संख्यामें जीते भी तो इस कारण कि दूसरे दल या उम्मीदवार कम ताकतवर थे या उनका भी एजेंडा यही था। आखिर कांग्रेस भी धारा ३७० हटाये जानेका विरोध कर रही है। वहांके नेता गुपकारके साथ होनेकी बात करते हैं। भाजपाका अबतक पूरे प्रदेशमें विस्तार नहीं हुआ है। इस चुनावसे जोरदार ध्वनि यह निकल रही है कि धारा ३७० हटानेके मोदी सरकारके फैसलेको जनताने नकारा नहीं है। यदि यही चुनाव एकाध साल बाद होते तो शायद परिणामोंने गुपकार नेताओंकी नींद छीन लेती।
नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाहको परिणामोंकी ध्वनि ठीकसे सुननी चाहिए। जिस तरह उन्होंने धारा ३७० हटानेके पहले प्रदेशमें सख्ती की और उसे आगे बनाये रखा उससे उनके प्रति विश्वास बढ़ा था। बादमें भावुकतामें आकर एवं तथाकथित लोकतांत्रिक प्रक्रिया आरंभ करनेकी जल्दबाजीके कारण निर्मित और घनीभूत होते माहौल तथा इससे राजनीतिमें बनते नये समीकरणकी संभावनाको धक्का लग गया। पहले फारुख अब्दुल्ला, फिर उमरको रिहा करना किसे रास आया इसका पता करना चाहिए। जो मेहबूबा लगातार भारत विरोधी बयान देतीं रहीं उनको रिहा करना धारा ३७० हटानेकी भावनाको कमजोर करनेवाला था। इनके भ्रष्टाचार और कुशासनको जनताने भुगता है। धारा ३७० हटाना इतिहासकी भयानक आत्मघाती भूलका अंत करना था। इससे प्राप्त विशेषाधिकारकी मलाई मुख्यत: वहां नेताओं, अधिकारियों एवं प्रभावशाली तबके ही चटकर जाते थे। इनके भ्रष्टाचारके कारनामें जिस तरह सामने आये हैं उसके बाद अलगसे कोई प्रमाण देनेकी आवश्यकता नहीं है। यह खुले मैदानकी राजनीतिमें नहीं, जेलमें समय बितानेके हकदार हैं। जनताने भी भारी संख्यामें निर्दलियोंको चुनकर तथा भाजपाको सबसे बड़ी पार्टी बनाकर यही कहा है। अब्दुल्ला पिता-पुत्र एवं मुफ्तीको भी अब यह आवाज सुनाई पड़ रही होगी, परन्तु मोदी-शाहको इसे सुननेकी ज्यादा जरूरत है।
मान लीजिये परिणामोंमें भाजपा पिछड़ जाती तो क्या इससे गुपकारकी बातोंपर मुहर माना जाता। पहली बार उन तबकोंको मतदान करनेका मौका मिला जिन्हें इन पार्टियोंने प्रदेशका नागरिक ही नहीं माना था। जिला विकास परिषदके साथ पंचों एवं सरपंचोंके चुनावमें पश्चिमी पाकिस्तानसे आये लोगोंको मतदानका अधिकार दिया गया। यही उन वाल्मिकी परिवारोंके साथ भी हुआ जिन्हें वर्षों पहले सफाईके लिए लाकर बसाया गया परन्तु वह प्रदेशके नागरिक नहीं बने। क्या इन सबको मतदानका हक नहीं मिलना चाहिए था। गुपकार घोषणाकी ध्वनि यही है। इन लोगोंको मतदान करते वक्त कैसा महसूस हुआ होगा इसकी केवल कल्पना कर सकते हैं। वहां बसपाको भी दो सीटें इसी कारण प्राप्त हुई क्योंकि वाल्मिकी परिवारोंको मतदानका अवसर मिला। यही नहीं, जम्मू-कश्मीरकी जनताको भी पहली बार जिला विकास परिषदके चुनावोंमें मत डालनेका अवसर मिला। आजतक इन्होंने जिला विकास परिषदका चुनाव ही नहीं कराया। इनके शासनकालमें तीन स्तरीय पंचायती राज साकार नहीं हो सका। ७० वर्षोंमें पहली बार यह चुनाव आयोजित हुआ तथा अब जाकर वहांके लोगोंको तीनस्तरीय पंचायती राज प्राप्त हुआ है। जम्मू-कश्मीरके निवासियोंने साक्षात अनुभव किया है कि धारा ३७० हटनेके बाद पंचायतोंको ताकत मिली है, उनके हककी राशि सीधे खातेमें गयी, वह खुद स्थानीय स्तरपर विकासके अनेक काम कराने लगे, अधिकारी उनतक पहुुंचने लगे। इन सबका सपना भी यह नहीं देख सकते थे। इससे वहांका मनोविज्ञान किस तरह निर्मित हो रहा होगा इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।पंचायतके दोस्तरीय चुनावोंका कश्मीरके दलोंने बहिष्कार किया था। जनताने इनकी एक न सुनी। उनके पास अस्तित्व बचानेकी मजबूरी आ गयी थी। यदि वह इस चुनावमें भाग नहीं लेते तथा आपसी नफरत और दुश्मनी भुलाकर एक साथ नहीं आते तो उनके पास दिनमें तारे गिननेका ही काम बचता। यह स्थिति धारा ३७० हटानेके कारण ही पैदा हुई। अलगाववादीतक चुनाव बहिष्कारकी घोषणा करनेका साहस नहीं दिखा पाये। आखिर जम्मू-कश्मीरमें ५१ प्रतिशत मतदान सामान्य बात नहीं है। अनेक स्थानोंपर लोगोंने पहलेकी उदासीनताको दरकिनार कर मतदान किया। उदाहरणके लिए श्रीनगर शहरमें लोकसभा चुनावमें ७.९ प्रतिशत और पंचायत चुनावमें १४.५ प्रतिशत मतदान हुआ जबकि वर्तमान चुनावमें ३५.३ प्रतिशत। एक साथ ठंड, कोरोना, आतंकवाद आदिकी चुनौतियोंको दरकिनार कर लोगोंने मतदान किया तो साफ है कि वह नयी व्यवस्थाको अपने हकमें मान, इसको हृदयंगम करनेकी ओर बढ़ रहे हैं। इस प्रक्रियाको और बल देनेकी आवश्यकता है। जिला विकास परिषदके चुनाव परिणामोंसे निकलती ध्वनियोंको जो नहीं सुन रहे उनको सुनाना जरूरी है। केन्द्रमें भी सरकार और विपक्ष सभी इसे सुने तथा इसके अनुरूप अपनी नीतियां निर्धारित करें।