सम्पादकीय

विश्वास खोते किसान


कमलेश कमल
तमाम लिखित-अलिखित सरकारी आश्वासनोंके बीच लगभग महीनेभरसे जारी किसान आंदोलन छठे दौरकी वार्ताके बाद भी मंद पड़ रहा। शुरूमें किसान संघटनोंने सरकारके दावोंके जवाबमें इतनी ही मांग रखी थी कि वह यदि सचमुच न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को समाप्त नहीं करना चाहती है तो बस कानूनमें एक पैरा जोड़ दे कि एमएसपीके नीचे कोई खरीद नहीं होगी। सरकारने वादे और दावे तो इस बीच बहुत किये, लेकिन एमएसपीको कानूनसे जोडऩेको तैयार नहीं हुई। अब किसान नेताओंने साफ कह दिया है कि सरकार इन तीन कानूनोंको वापस नहीं लेती है तो देशभरमें हाईवे जाम किया जायगा। एक तरफ उनका दावा है कि किसी राजनीतिक पार्टीको मंचपर नहीं आने दिया जायगा, दूसरी तरफ आंदोलनमें खालिस्तान समर्थकोंके घुस आनेकी बात कही जा रही है। केंद्रीय खाद्य-आपूर्तिमंत्रीतकने आंदोलनके पीछे चीन और पाकिस्तानका हाथ होनेकी बात कह दी। हालांकि तथ्य यह है कि किसानोंकी लामबंदी अबतक अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण रही है। कृषि सुधारके लिए लाये गये इन तीन कानूनोंके विरोधमें जब शिरोमणि अकाली दल एनडीएसे बाहर हो गया, तभी लग गया था कि पंजाब और हरियाणाके किसान इन कानूनोंको आसानीसे स्वीकार नहीं करेंगे। सवाल उठने लगा कि ये कानून यदि इतने ही किसान हितैषी हैं तो बीजेपी आखिर अपने सहयोगी दलको यह बात क्यों नहीं समझा सकी। अब हरियाणा सरकारमें सहयोगी जेजेपीके भी किसानोंके समर्थनमें आ जानेसे बीजेपी इस मुद्देपर घिरती हुई दिख रही है।
विपक्षका कहना है कि एमएसपी और सब्सिडी कम करना अंतरराष्ट्रीय और मुख्यत: विश्व व्यापार संघटनके दबावका परिणाम है। प्रश्न उठता है कि क्या सचमुच भारतमें अधिक सब्सिडी दी जा रही है। विश्व व्यापार संघटनके नियमोंके अनुसार उत्पादन मूल्यके दस प्रतिशतसे अधिक सब्सिडी नहीं दी जा सकती। अमेरिका कहता है कि भारतमें उत्पादन लागत कम है और ६० से ७० प्रतिशततक सब्सिडी दी जा रही है। आंकड़ोंपर गौर करें तो भारतके हर किसानको बिजली, पानी, खाद-बीज आदिके लिए सालाना औसतन १५ हजार ६७४ रुपये दिये जाते हैं, जबकि चीनका औसत ५९ हजार ६०५ रुपये और अमेरिकाका औसत ४१ लाख ८० हजार रुपये है। स्पष्ट है कि भारतकी तुलनामें अमेरिका अपने किसानोंको २६७ गुना ज्यादा सब्सिडी देता है। विकसित देश चाहते हैं कि भारत किसानोंसे एमएसपीपर अनाज खरीदना बंद करे और सरकारी राशन दुकानोंकी व्यवस्था हटाकर इसके एवजमें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानूनके हकधारकोंको हर महीने निश्चित नकद राशि हस्तांतरित करे। इस नकद राशिके लाभार्थी मुक्त बाजारसे जो चाहें खरीदें। माना जा रहा है कि मोदी सरकार इस दिशामें कदम आगे बढ़ा चुकी है। खुले बाजारकी इस व्यवस्थाके लागू होनेसे क्या होगा। जैसा कि विगत वर्षोंमें चंडीगढ़ और पुडुचेरीमें हुआ है, यदि भारत सरकार पूरे देशमें किसानोंसे लोक भंडारणके लिए अनाज खरीदना और उसे सार्वजनिक वितरण प्रणालीकी दुकानोंसे वितरण करना बंद कर दे तो देशभरमें खाद्य सुरक्षा निजी हाथोंमें चली जायगी। जानकार मानते हैं कि इसका नकारात्मक असर महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गोंपर पड़ेगा क्योंकि खाद्य सामग्रीकी कीमतोंपर सरकारका नियंत्रण बिल्कुल नहीं रह जायगा।
तथ्यात्मक रूपसे देखें तो अभी २३ फसलोंपर एमएसपी है। इसमें भी मात्र १५ प्रतिशत धान ही एमएसपीके तहत खरीदा जाता है। हां, पंजाब और हरियाणा दो ऐसे राज्य हैं जहां ९० प्रतिशत चावल और गेहूं सरकार खरीदती है और यही कारण है कि सबसे पहले यहींके किसान लामबंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि इन तीन कानूनोंसे वर्तमान मंडी व्यवस्था भी समाप्तप्राय हो जायगी। सरकार लाख कहे कि ऐसा नहीं होगा, वे माननेको तैयार नहीं हैं। सरकार भरोसा दिला रही है कि किसान पूरे भारतमें कहीं भी अपना सामान बेच सकते हैं, जबकि किसान संघटनोंका कहना है कि इसका कोई विशेष मतलब नहीं है।
देशके एक औसत किसानके पास १.८ हेक्टेयर जमीन ही है। ऐसेमें कैसे संभव है कि अपने उत्पादको लेकर कोई सामान्य किसान राज्य क्या जिलेके भी बाहर जा सके। यह ऐसा ही है जैसे कोई इस तर्कपर सरकारी नौकरीको खारिज करे कि निजी नौकरीमें कोई बंधन नहीं है, पूरे भारतमें आप जहां चाहें अपनी प्रतिभाके आधारपर उचित नौकरी पा सकते हैं। कुल मिलाकर किसानोंकी मांग अपनी जगह है और सरकारी वादे अपनी जगह। आजतक किसी भी सरकारने एमएसपीको कानूनी दर्जा नहीं दिया है। ऐसेमें इसकी उम्मीद करना अति आशावादिता कही जायगी। लेकिन अन्य उपायोंसे सरकार किसानोंको संतुष्ट करनेका प्रयास अवश्य करेगी क्योंकि कोई भी सरकार देशकी ५२ फीसदी आबादीको निराश करनेका जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। किसान मांग कर रहे हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली बंद न हो। सरकार इसे आसानीसे मान लेगी। ईंधनपर लगनेवाला टैक्स कम करनेपर भी सरकार विचार कर सकती है। पराली जलाने और स्वामीनाथन समितिकी सिफारिशोंको लागू करने जैसे मामलोंमें भी किसान संघटनकी मांगोंपर सरकार पॉजिटिव रुख दिखा सकती है। अभी इस किसान आंदोलनको जिस तरहका समर्थन मिल रहा है, उससे सरकार दबावमें है। किसानोंकी नब्ज थामे बिना सरकारने एक ऐसा अग्रगामी कदम उठाया है जो उसे भारी पड़ रहा है। आशा है अगले दौरकी वार्तामें कोई सार्थक हल निकल आयगा क्योंकि न तो सरकार चाहेगी कि अन्नदाता ज्यादा समय सड़कोंपर रहें, न ही किसानोंके हकमें है कि वे घर-द्वार, खेती-बाड़ी छोड़कर दिल्लीकी सर्दीमें लंबे समयतक खुलेमें बैठे रहें।