भारतरत्न बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर अपने अधिकांश समकालीन राजनीतिज्ञोंकी तुलनामें राजनीतिके खुरदुरे यथार्थकी ठोस एवं बेहतर समझ रखते थे। नारों एवं तकरीरोंकी हकीकत वह बखूबी समझते थे। जाति-भेद एवं छुआछूतके अपमानजनक दंशको उन्होंने केवल देखा-सुना-पढ़ा ही नहीं, अपितु भोगा भी था। तत्कालीन जटिल सामाजिक समस्याओंपर उनकी पैनी निगाह थी। उनके समाधान हेतु वह आजीवन प्रयासरत रहे। परन्तु उल्लेखनीय है कि उनका समाधान वह परकीय दृष्टिसे नहीं, बल्कि भारतीय दृष्टिकोणसे करना चाहते थे। स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्वपर आधारित समरस समाजकी रचनाका स्वप्न लेकर वह आजीवन चले। उनकी अग्रणी भूमिकामें तैयार किये गये संविधानमें उन स्वप्नोंकी सुन्दर छवि देखी जा सकती है। वह भारतकी जड़-जमीन-मिट्टी-हवा-पानीसे गहरे जुड़े थे। देशकी परिस्थिति-परिवेशसे कटी-छंटी उनकी मानसिकताको वह उस प्रारंभिक दौरमें भी पहचान पानेकी दूरदृष्टि रखते थे। अभीतक कम्युनिस्टोंके शासनको देखकर तो यही स्पष्ट होता है। इतना ही नहीं, उन्होंने नेहरू सरकारकी विदेश नीतिपर टिप्पणी करते हुए कहा था कि हमारी विदेश नीति बिलकुल लचर है। हम गुटनिरपेक्षताके नामपर भारतकी महान संसदीय परम्पराको साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) की झोलीमें नहीं डाल सकते। हमें अपनी महान परम्पराके अनुकूल रीति-नीति बनानी होगी।
वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने १९५२ में नेहरू सरकारकी यह कहते हुए आलोचना की थी कि उसने सुरक्षा परिषदकी स्थायी सदस्यताके लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि भारत अपनी महान संसदीय एवं लोकतांत्रिक परम्पराके आधारपर संयुक्त राष्ट्रकी सुरक्षा-परिषदका स्वाभाविक दावेदार है और भारत सरकारको इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। १९५३ में तत्कालीन नेहरू सरकारको आगाह करते हुए उन्होंने चेताया कि चीन तिब्बतपर आधिपत्य स्थापित कर रहा है और भारत उसकी सुरक्षाके लिए कोई पहल नहीं कर रहा है, भविष्यमें भारतको उसके गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे। तिब्बतपर चीनके कब्जेका उन्होंने बहुत मुखर विरोध किया था और इस मुद्देको विश्व-मंचपर उठानेके लिए तत्कालीन नेहरू सरकारपर दबाव भी बनाया था। वह नेहरूजी द्वारा कश्मीरके मुद्देको संयुक्त राष्ट्र संघमें ले जानेकी मुखर आलोचना करते रहे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि कश्मीर भारतका अविभाज्य अंग है और कोई भी संप्रभु राष्ट्र अपने आन्तरिक मामलेको स्वयं सुलझाता है, कहीं अन्य लेकर नहीं जाता। शेख अब्दुल्लाके साथ धारा ३७० पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि आप चाहते हैं कि कश्मीरका भारतमें विलय हो, कश्मीरके नागरिकोंको भारतमें कहीं भी आने-जानेका अधिकार हो, परन्तु शेष भारतवासीको कश्मीरमें आने-जाने-बसनेका अधिकार न मिले। देशके कानूनमंत्रीके रूपमें मैं देशके साथ ऐसी गद्दारी और विश्वासघात नहीं कर सकता। नेहरूकी सम्मतिके बावजूद अब्दुल्लाको उनका यह दो-टूक उत्तर उनके साहस एवं देशभक्तिका आदर्श उदाहरण था। जिन्ना द्वारा छेड़े गये पृथकतावादी आंदोलन और द्विराष्ट्रवादके सिद्धांतको मिले लगभग ९० प्रतिशत मुस्लिमोंके व्यापक समर्थनपर कहा, पूरी दुनियामें रह रहे मुसलमानोंकी एक सामान्य प्रवृत्ति है कि उनकी निष्ठा अपने राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट) से अधिक अपने पवित्र स्थानों, पैगम्बरों और मजहबके प्रति होती है। मुस्लिम समुदाय राष्ट्रीय समाजके साथ आसानीसे घुल-मिल नहीं सकता। आश्चर्य है कि उस समय मुस्लिमोंकी आबादी भारतकी कुल आबादीकी लगभग २२ प्रतिशत थी और उस बाइस प्रतिशतमेंसे केवल १४ प्रतिशत मुसलमान ही पाकिस्तान गये। उनमेंसे आठ प्रतिशत यहीं रह गये। इतनी कम आबादीके लिए अखंड भारतका इतना बड़ा भूभाग देनेको अम्बेडकरने मूढ़ताका पर्याय बतानेमें संकोच नहीं किया था। दलित राजनीति करनेवाले तमाम दल और नेता सेवा-बस्तियोंमें सर्वाधिक सेवा-कार्य करनेके बावजूद आज भी संघको प्राय: अस्पृश्य समझते हैं। परंतु उल्लेखनीय है कि डा. अम्बेडकर संघके कार्यक्रमोंमें तीन बार गये थे। विजया दशमीपर आहूत संघके एक वार्षिक आयोजनमें वह मुख्य अतिथिकी हैसियतसे सम्मिलित हुए। उस कार्यक्रममें लगभग ६१० स्वयंसेवक थे। उनके द्वारा आग्रहपूर्वक पूछे जानेपर जब उन्हें विदित हुआ कि उनमेंसे १०३ वंचित-दलित समाजसे हैं तो उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ। स्वयंसेवकोंके बीच सहज आत्मीय संबंध एवं समरस व्यवहार देखकर उन्होंने संघकी सार्वजनिक सराहना की थी।
तत्कालीन हिंदू-समाजमें व्याप्त छुआछूत एवं भेदभावसे क्षुब्ध एवं पीड़ित होकर उन्होंने अपने अनुयायियों समेत अपना धर्म अवश्य परिवर्तित कर लिया। परंतु उनके धर्मपरिवर्तनमें भी एक अंतर्दृष्टि झलकती है और ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने यह सब अकस्मात एवं त्वरित प्रतिक्रियावश किया। पहले उन्होंने निजी स्तरपर सामाजिक जागृत्तिके तमाम कार्यक्रम चलाये, तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक नेताओंसे बार-बार वंचित-शोषित समाजके प्रति उत्तम व्यवहार, न्याय एवं समानताकी अपील की। जब उन सबका व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा, तब कहीं जाकर अपनी मृत्युसे दो वर्ष पूर्व उन्होंने अपने अनुयायियों समेत धर्मपरिवर्तन किया।
परन्तु उन्होंने भारतीय मूलके बौद्ध धर्मको अपनाया, जबकि उन्हें और उनके अनुयायियोंको लुभानेके लिए दूसरी ओरसे तमाम पासे फेंकें जा रहे थे। पैसे और ताकतका प्रलोभन दिया जा रहा था। परन्तु वह भली-भांति जानते थे कि भारतकी सनातन धारा आयातित धाराओंसे अधिक स्वीकार्य, वैज्ञानिक एवं लोकतांत्रिक है। उनकी प्रगतिशील और सर्वसमावेशी सोचकी झलक इस बातसे भी मिलती है कि उन्होंने आरक्षण जैसी व्यवस्थाको जारी रखनेके लिए हर दस वर्ष बाद आकलन-विश्लेषणका प्रावधान रखा था। यह जाति-वर्ग-समुदायसे देशहितको ऊपर रखनेवाला व्यक्ति ही कर सकता है। अच्छा होता कि उनके नामपर राजनीति करनेवाले तमाम दल और नेता उनके विचारोंको सही मायनेमें आत्मसात करते और उनकी बौद्धिक-राजनीतिक दृष्टिसे सीख लेकर समरस समाजकी संकल्पनाको साकार करते।