सम्पादकीय

जीवनको लील गया भ्रष्टाचार


ऋतुपर्ण दवे
गाजियाबादके मुरादनगरके उखलारसी गांवकी घटनाने पूरे देशको झकझोर कर रख दिया। लोग आये तो थे एक मृतकका अंतिम संस्कार करने लेकिन भ्रष्टाचारने २७ लोगोंको निगल लिया। श्मशानमें ही मौतका ताण्डव मच गया। ऐसी घटना उस महानगरमें घटी जहां गगनचुंबी इमारतोंकी भरमार हैं। बड़े-बड़े निर्माण कार्योंमें दक्षताकी कमीं नहीं है। पहली बार शहरमें आया हर कोई कंक्रीटके चमकते-दमकते जंगलोंकी चकाचौंधके बीच बड़ी-बड़ी आलीशान हवेलियोंको बस देखता ही रह जाता है। उसी कंक्रीटके शहरमें महज बीस फुट ऊंची तथा ७०-८० फुट लंबी कंक्रीटकी गैलरी बिना किसी आहटके एकदमसे भरभरा कर बैठ जाय और बेजान लोगोंके ढ़ेर लग जायं। क्योंकि यह एक सरकारी काम था जो ठेकेपर बना था और ठेकेदारको भी क्वालिटी की परवाह नहीं थी वजह साफ है भरपूर कमीशनबाजी का खेल था। लेकिन श्मशानमें भी ऐसा खेल खेला जायगा यह किसीको नहीं पता था। भ्रष्टाचारके अनगिनत कहानियां अक्सर सुननेमें आती हैं। लेकिन श्मशानमें ऐसा भ्रष्टाचार पहली बार दिखा। पूरे देशमें हर किसीकी रूह कांप गयी। वाकईमें मुरादनगरकी ३ जनवरीकी घटना शायद देशके इतिहासकी अबतक पहली अकेली घटना हो जिसने बेईमानीकी सारी सीमाओंको पार कर शर्मसार कर दिया।
उससे भी बढ़कर यह कि श्मशानमें इस ठेकेके लिए भी राजनीतिक सिफारिशें हुईं, होड़ भी हुई, अपनोंको फायदा पहुंचानेका खेल भी हुआ और नतीजन मौतके वीभत्स मंजरका नंगा नाच हुआ। सवाल अनगिनत हैं लेकिन अहम यह कि भ्रष्टाचारकी यह इन्तेहा जिससे अब श्मशान भी अछूते नहीं। भारतमें ही सैकड़ों साल पहले आचार्य चाणक्य हुए तो यूनानमें दार्शनिक प्लेटो। दोनों प्रकाण्ड विद्वान रहे दोनोंने ही भ्रष्टाचारकी गंधको तभी पहचान लिया था। शायद इसीलिए जहां चाणक्यने अति शुद्ध और सात्विक आचरणका उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखा तो प्लेटोने भी अपने ग्रंथ रिपब्लिकमें ऐसे दार्शनिक राजाकी कल्पना की जिसका न तो कोई अपना परिवार होता है और न ही खुदकी संपत्ति। लेकिन राजनीतिमें आनेवालोंका मकसद ही कुछ और होता है जो कहते कुछ तो करते कुछ हैं। कौन नहीं जानता कि परिवारवादमें लिप्त नेताओं द्वारा धन और संपत्ति बनानेकी लालसाने ही राजनीतिको दूषित और कलंकित किया है। चूंकि देशके तंत्रके यही दो अहम हिस्सा होते हैं इसलिए कौन किसपर अंगुली उठायेगा इसका सवाल ही नहीं। शायद इसीलिए भ्रष्टाचार तमाम कोशिशों और कागजोंमें बने कानूनोंके बाद बजाय थमनेके बढ़ता ही जा रहा है जिसने मुरादनगरमें सारी हदोंको पार कर शर्मसार कर दिया।
आजसे ६० साल पहले इन्दौरमें एक पदयात्राके दौरान सर्वोदयी नेता आचार्य विनोबा भावेके मुंहसे निकले शब्द आज भी प्रासंगिक हैं, जिसमें उन्होंने पीड़ा भरे लहजेमें कहा था आजकल भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है। यकीनन उस महान संतकी पीड़ा २१वीं सदीमें भी कायम है। ऐसा ही कुछ २१ दिसम्बर, १९६३ को भारतमें भ्रष्टाचारके खात्मेपर संसदमें हुई बहसमें डा.राममनोहर लोहियाने भी कहा था कि सिंहासन और व्यापारके बीचका संबंध भारतमें जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनियाके इतिहासमें कहीं नहीं हुआ है। शायद पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी भी ऐसा ही कुछ कहना चाहते थे। दिल्लीसे चले एक रुपयेमें गरीबतक १५ पैसे ही पहुंच पाते हैं कहना उनकी बेबसी थी या गुस्सा पता नहीं। सच तो यह है कि देशभरमें ऐसे कितने उदाहरण मिल जायंगे जहां कागजोंमें तालाब बन जाते हैं, विभिन्न योजनाओंमें कुंए खुद जाते हैं। उद्घाटनसे पहले पुल ढह जाते हैं। बनते ही सड़कें नेस्तनाबूद हो जाती हैं। हो-हल्ला होनेपर जांचकी घोषणा हो जाती है लेकिन रिपोर्ट कब और क्या आती है किसी को कानों कान खबरतक नहीं हो पाती है। भ्रष्टाचारका आरोपी फलता-फूलता रहता है। अब तो अधिकारी नेताओंके शागिर्द बने नजर आते हैं। अनेकों मौकोंपर यह देखनेमें आया कि राजनीतिक मंच और नारे लगानेमें भी नौकरशाहोंको कोई शर्म नहीं आती। हद तो तब होती है जब प्रदेशोंमें सरकार बदलते ही अधिकारियोंकी वफादारी बदलनेके किस्से सामने होते हैं। भ्रष्टाचार रुके कैसे। एक ओर तेजीसे डिजिटलाइजेशन, दूसरी ओर बढ़ता भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और दलालीकी प्रवृत्ति। वह भी जब सीधे खातोंमें योजनाओंका लाभ पहुंचाया जा रहा हो। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनलके ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर-एशिया सर्वे २०२० यही कुछ कह रहा है। इसमें भारतको एशियाका सबसे ज्यादा भ्रष्ट देश बताया गया जहां रिश्वतखोरी जमकर होती है। रिपोर्ट कहती है कि ३९ प्रतिशत लोगोंको उनके हककी और स्वीकृत सुविधाओंको पानेके लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है। जिसका चलन डिजिटल दौरमें बजाय घटनेके बढ़ता जा रहा है। दुनियाके सबसे बड़े लोकतंत्रके लिए इससे बुरी बात और क्या हो सकती है। कहीं न कहीं यह हमारे सिस्टमकी नाकामी है।
यूं तो देशमें भ्रष्टाचारको रोकनेके लिए कई तरहके कानून हैं। लेकिन सच भी है कि यह सुरसा-सा मुंह फाड़े चला जा रहा है। देशमें चाहे निर्माण सेक्टर हो या औद्योगिक गतिविधियां, टैक्स चोरी रोकना हो या उत्खनन, चिकित्सा, शिक्षा, बैंकिंग, परिवहन या फिल्म उद्योग यानी देशमें हर कहीं हर सरकारी दफ्तरमें भ्रष्टाचारकी जड़ें गहरेतक पैठ जमा चुकी हैं। सवाल बस यही कि कैसे रुकेगा भ्रष्टाचार। काश एक वन नेशन वन राशनकार्डकी तर्जपर एक ऐसा वन नेशन वन इंफर्मेशन पोर्टल बने जिसमें तमाम देश यानी केन्द्र और प्रदेशोंके हर कार्यों जैसा ठेका, इजाजत, स्थानान्तरण, सरकारी गतिविधियों संबंधी सूचनाकी एक-एक जानकारीकी फीडिंग तो की जा सके लेकिन इस पोर्टलकी सारी जानकारियां केवल प्रधान मंत्री कार्यालय और प्रधान मंत्री ही देख सकें। उनकी बेहद विश्वस्त लोगोंकी एक टीम हो जो रेण्डमली किसी भी कामकी जांचके लिए न केवल स्वतंत्र हो, बल्कि एनएसए जैसे सख्त कानूनोंसे लैस हो। दोषी होनेपर जल्द जमानत या सुनवाईका प्रावधान भी न हो और सीधे जेलकी काल कोठरीका रास्ता हो। शायद यही डर और गतिविधिसे पंचायतसे लेकर महापालिकाओं और सरपंचके दफ्तरसे लेकर कमिश्नरी और सचिवालय तकमें एक भयका माहौल बनेगा।