सम्पादकीय

पुनर्जीवित करना होगा विपक्षकी भूमिकाको


डा. अजय कुमार मिश्र
किसी भी देशका शीर्ष नेतृत्व इस बातसे इनकार नहीं कर सकता है कि सत्ता सिर्फ पक्षसे नहीं, विपक्षसे भी चलता है। विगत कुछ वर्षोंमें जिस तेजीसे विपक्ष राज्य और केंद्रमें कमजोर हुआ है, कहीं न कहीं जनताका हित भी उतना ही प्रभावित हुआ है और हम ऐसे राहपर बढ़ते चले जा रहे हैं जहां शायद विरोधके लिए कोई जगह नहीं है। कई बातोंके मूलमें जाकर बहस करनेसे सभी बचते हैं। छोटी-छोटी बातोंपर आरोप-प्रत्यारोप अब आम बात है। परन्तु क्या यह वास्तविक रूपसे लम्बे समयमें राष्ट्रको मजबूत बनायगा। इसपर प्रमाणित उत्तर किसीके पास नहीं है, बल्कि असमंजसकी स्थिति जरूर है। स्वतंत्रताकी जहां सीमा तब घट जाती है जब आप विरोध करते हैं, जब आप सहयोग करते हैं तो कई बातोंमें आप क्षम्य हो सकते हैं। १३५ वर्षोंके अपने इतिहासमें कांग्रेस आज जैसा कमजोर जन मानसके बीच कभी नहीं रही है। जिस पार्टीने अनेकों निर्णयोंसे देशमें कई क्रांतिका आरंभ किया, आज वही पार्टी इतनी कमजोर है कि अपने वजूदको बचानेका संघर्ष कर रही है। इसमें जितनी खुदकी कमियां जिम्मेदार है उससे कही अधिक सत्ताधारी पार्टीका भी योगदान है, जिन्होंने अपने कार्यशैली और निर्धारित नीतिसे जन मानसको यह समझानेमें अबतक सफल रहे हैं कि अब देशके पास मात्र एक विकल्प है। राष्ट्र विरोध, भ्रष्टाचार, परिवारवाद, जैसे शब्दोंसे आज वह लोग भी परिचित हो चुके हैं, जिनके लिए कभी यह शब्द अबूझ पहेली बना हुआ था। यही हाल राज्य सरकारोंका भी है जहां सुशासनसे अधिक अपने प्रतिद्वंदी पार्टियोंकी गतिविधियोंको रणनीति बनाकर नियंत्रित किया जा रहा है। आप अनेकों लोगोंसे बात करेगे तो उनके बात विचार व्यवहारमें मीडियाकी अभूतपूर्व भूमिका देखनेको मिलेगी। कई मीडिया आज सरकारोंके प्रतिनिधिके रूपमें कार्य करने लगे हैं जबकि कभी इनका मुख्य काम जनताके हितोंके लिए कार्य करना होता था। यानी की दो अलग-अलग विचारधारा, कार्य प्रणाली आज एक हो चुकी है जिसका परिणाम लोगोंपर पडऩा शुरू हो गया है। लोग आज सोचने, समझने और तर्क करनेकी क्षमताका भी प्रयोग नहीं करते हैं। जबकि जो आप देखते, सुनते, पढ़ते हैं उसकी सत्यताको जांचनेका मुख्य आधार आपकी जानकारी और तर्क करनेकी शक्तिपर ही निहित है। अमूनन लोग इस बातको भूल जाते हैं कि कोई भी नीति-सरकार शत-प्रतिशत सही नहीं हो सकती और न ही शत-प्रतिशत गलत।
कोरोना कालमें जहां दुनियाभरमें आपदा रही है, वही केंद्र सरकारके लिए यह बड़े अवसरसे कम नहीं रहा है, जहां इस अवधिमें सरकारने ४३ महत्वपूर्ण विधेयक पास कराये हैं। इनमें सर्वाधिक १६ विधेयक वित्त विभागके, जबकि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभागके पांच विधेयक, स्वराष्टï्र मंत्रालयके पांच विधेयक, कृषि एवं किसान कल्याणके तीन विधेयक, श्रम एवं रोजगारके तीन विधेयक, आयुर्वेदा, योग और प्राकृतिक चिकत्सा, यूनानी, सिद्ध और होमियोपैथीके दो विधेयक, कारपोरेट अफैर्सके दो विधेयक, मानव संसाधन विभागके एक विधेयक, सिविल विमाननके एक विधेयक, कोयला मंत्रालयके एक विधेयक, उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजानिक वितरणके एक विधेयक, संसदीय मामलोंके एक विधेयक और शिपिंगके एक विधेयक शामिल है। सरकारने जहां इन विधेयकोंको पारित करानेमें गति दिखाई वही विपक्षका कमजोर होना भी इन विधेयकोंके कोरोनाकालमें पारित होनेमें सहायक रहा है। वर्तमानमें सरकार और किसानोंके मध्य चल रहे विवादकी वजह कृषि विधेयक भी इसी अवधिमें पारित किया गया है।
प्रधान मंत्री मोदीने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व, कार्य प्रणाली और जनमानसतक तेजीसे पहुचनेकी तकनीकीसे जहां आम जनताको यह महसूस कराया है कि सरकार उनके हितके लिए कार्य कर रही है, वही राहुल गांधी अपने शब्दों, कार्य प्रणालीसे जनतासे दूर होते चले गये हैं। ऐसेमें कांग्रेसके साथ-साथ देशका भी बड़ा नुकसान इस बातका है कि मजबूत विपक्ष केंद्रमें नहीं है। वर्ष १९९९ से २०१९ तक कुल पांच लोकसभा चुनावमें कांग्रेसकी तरफसे पार्टी लीडर सोनिया गांधी रही है जबकि इसी अवधिमें भारतीय जनता पार्टीमें स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी और नरेन्द्र मोदी पार्टी लीडर रहे हैं। यह अंतर अपने आपमें इस बातकी पुष्टि करता है कि समयपर बदलाव न करनेपर न केवल जनताका विश्वास आपमें कम होता है, बल्कि विपक्ष मजबूत होता है। हमेशा सत्ता पक्षके सभी निर्णय शत-प्रतिशत सही हो यह जरूरी नहीं है परन्तु विपक्षका कमजोर होना, लिये गये निर्णयोंमें अपनी बात न रखना, स्वयंके कमजोर होनेके साथ जनताको कमजोर करता है। सत्ताधारी पार्टीको २०१६ लोक सभा चुनावमें ३७.३६ प्रतिशत (२२.९१ करोड़) वोट प्राप्त हुए थे। जबकि अन्य पार्टियोंको २२.२२ प्रतिशत (१३.६४ करोड़), कांग्रेसको १९.४९ प्रतिशत (११.९५ करोड़) वोट मिले थे। यानी कि सत्ताधारी पार्टीकी तुलनामें विपक्षमें कुल ६१.६४ प्रतिशत (३८.४४ करोड़) वोट मिले थे। ऐसेमें जनताकी आवश्यकता और मांगका मूल्यांकन कोई आसानीसे नहीं कर सकता।
जनतंत्रकी खाशियत यही है कि विजेता पार्टी सत्तामें शासन करती है, परन्तु इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि सत्ताधारी पार्टीके सभी निर्णय शत-प्रतिशत सही हो और बड़े समूहके लोगोंके लिए लाभकारी भी हो। ऐसेमें विपक्षकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है जो लिये गये निर्णयोंको आम जनताके हितोंसे जोड़कर देखता है और उचित संघटित विरोध करता है। जिसका इस कोरोनाकालमें व्यापक आभाव देखनेको मिला है। खुली चर्चा और रायके पश्चात् लिया गया निर्णय ही प्रभावी होता है, न कि विदेशी व्यवस्थाको स्वदेशी पर्यावरणमें लागू करना। विपक्षकी भूमिकाको पुनर्जीवित करनेके लिए केंद्रमें कांग्रेसके अतिरिक्त कोई भी पार्टी विकल्पके रूपमें अभी नहीं हो सकती। ऐसेमें जरूरी है कि वर्तमान संघटन परिवारवादकी विचारधारासे बाहर आकरके देशकी वर्तमान आवश्यकताओंके अनुरूप संघटनका न केवल विस्तार करें, बल्कि योग्य लोगोंको बिना भेदभावके जिम्मेदारी प्रदान करें, क्योंकि सत्ता सिर्फ पक्षसे नहीं, विपक्षसे भी चलता है।