सम्पादकीय

भारतीय संविधानकी मूल भावना


 निरंजन स्वरूप

पिछले माह सुप्रीम कोर्टने भारत सरकारको पूजा स्थल सम्बन्धी कानून १९९१ की धारा ३ एवं ४ के प्रावधानको निरस्त करनेके लिए दायर याचिकापर नोटिस जारी किया तबसे यह कानून चर्चामें आया है। अत: इसका विषलेशण देशकी जनताके लिए आवश्यक हो जाता है। वर्ष १९९१ में जब रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद अपने पूरे उफानपर था, उस समय देशके कुछ तथाकथित शान्तिप्रिय, शान्तिदूत अल्पसंख्यकोंको तुष्टïीकरणकी नीतिके तहत उनको खुश करनेके लिए इस कानूनको लाया गया। भारतके भीतर १५ अगस्त, १९४७ को किसी भी पूजा स्थलका जो रूप था वही रहेगा, उसमें कोई भी बदलाव नहीं किया जा सकेगा। धारा-४ १/४२१/२ को जिसमें यह कहा गया है कि १५ अगस्त, १९४७ को भारतमें किसी भी पूजा स्थलकी जो भी स्थिति थी वह वही रहेगी और उसमें भी कोई बदलाव नहीं किया जा सकेगा, इस सम्बन्धमें यदि कोई भी केस या दावा किसी भी न्यायालयके समक्ष किया गया तो वह स्वत: निरस्त हो जायेगा अर्थात्ï न्यायालयको इसमें हस्तक्षेपका अधिकार नहीं है। देशकी संसद, देशके बहुसंख्यक सनातनी समाजको, जो अपनी कोई भी बात मनवानेके लिए पत्तथरबाजी नहीं करता, सार्वजनिक सम्पत्तिको नुकसान नहीं पहुंचाता और शान्तिपूर्ण तरीकेसे यदि न्यायालयकी शरणमें जाना चाहता है तो देशका कानून उसे इससे भी रोकता है। यह कुकृत्य विश्वके शायद ही किसी भी लोकतांत्रिक देशमें हुआ होगा। जबकि यह बात तो मन्दिरोंके अतिरिक्त अन्य पूजा स्थलोंपर भी लागू है तो यही तथाकथित सैक्यूलर बुद्धिजीवी बतायें कि कितने सनातनियोंने किसी अन्य धर्मके पूजा स्थलके ऊपरकी छत तोड़कर उसपर अपने धर्मचिह्नï स्वरूप निर्माण कराया। यह कुकर्म इस देशमें केवल और केवल सनातनियोंके पूजा स्थलोंके साथ उस शान्तिप्रिय सभ्यताके लोगों द्वारा किया गया, जो आजसे सैकड़ों साल पहले लूटपाट करते थे।

इस कानूनके अन्तर्गत केवल पूजा स्थलोंको ही उनके यथास्थितिमें रखनेकी बात कही गयी है और अन्य किसी भी प्रकारकी इमारतोंको इस कानूनके दायरेसे बाहर रखा गया है। पूजा स्थलोंको ही इस कानूनके दायरेमें रखना, यह साफ इंगित करता है कि किस वर्ग विशेषको खुश करनेके लिए इस कानूनको बनाया गया है। इस कानूनका उद्देश्य सिर्फ सनातनी बहुसंख्यकोंको उनकी आस्थाके दो प्रमुख केन्द्र, काशीकी ज्ञानव्यापी मस्जिद और मथुराके श्रीकृष्ण जन्म स्थानके विवादको न्यायालयमें ले जानेसे रोकना है। यदि यह मान भी लिया जाय कि देशकी संसद, देशके नागरिकोंको धार्मिक उन्मादमें पड़कर आपसी सौहार्द खराब होनेसे बचाना चाहती है तो फिर क्यों देशकी संसदने वर्ष १९९५ और पुन: वर्ष २०१३ में वक्फ कानून नामक एक और काला कानून पास किया, जिसकी विभिन्न धाराओंमें और मुख्यता धारा-४० में ऐसी व्यवस्था है कि यदि भारतके वक्फ बोर्डके सदस्य चाहे तो देशकी संसद, राष्टï्रपति भवन इत्यादिको आजसे ५०० साल पहले अपनी आस्थाका केन्द्र बताकर उसे भारतकी हागिया-सोफिया बना सकते है। पूजा स्थल सम्बन्धी कानून १९९१ यदि संविधानकी दृष्टिïसे भी देखा जाये तो यह कानून भारतीय संविधानके भाग-३ में प्रत्येक नागरिकोंके मूल अधिकारोंको भी छीनता है, क्योंकि यह कानून देशके नागरिकोंको न्यायालयकी शरणमें अपना वाद ले जानेसे रोकता है और यही नहीं, देशके सुप्रीम कोर्टको भी इस कानूनके अन्तर्गत हस्तक्षेपका अधिकार नहीं है। भारतीय संविधानमें प्रदत्य मूल अधिकार केवल और केवल संविधानमें वर्णित कुछ विशेष परिस्थितियोंमें ही निरस्त किये जा सकते है।

भारतीय संविधानके अनुच्छेद-३२ के अनुसार देशके किसी भी नागरिकको यह अधिकार प्रदत्त है कि वह उस स्थितिमें न्यायालयकी शरणमें जाकर न्यायकी मांग कर सकता है जब उसे यह लगे कि उसका कोई संवैधानिक अधिकार उससे छीना गया है या छीना जा रहा है। यहां यह भी विदित हो कि नागरिकोंको प्रदत्त यह अधिकार जबतक कोई संवैधानिक बदलाव न किया जाये, को न तो छीना जा सकता है और न ही निरस्त किया जा सकता है। संविधान सभामें डा. अम्बेडकरने यह स्पष्टï कहा था कि अनुच्छेद-३२ भारतीय संविधानकी मूल आत्मा है अत: यह संविधानका सबसे महत्वपूर्ण भाग है। संविधानके अनुच्छेद-२५-२६ में नागरिकोंको धार्मिक स्वतंत्रताके अधिकारके अन्तर्गत पूजा, उपासना करनेकी पूरी स्वतंत्रता है, यदि कोई नागरिक किसी न्यायालयकी शरणमें जाकर यह गुहार लगाता है कि उसे एक विशेष जगह जो उसकी आस्थाका केन्द्र है, उसे वहां पूजा-पाठ करनेसे रोका जा रहा है, क्या यह अधिकार उससे छीन लेना संविधानके इन अनुच्छेदका उल्लंघन नहीं है। इस कानूनमें रामजन्म भूमिके मसलेको इस कानूनके दायरेसे बाहर रखा गया है, तो प्रश्न यह है कि सनातनी परम्पराके अन्य आस्थाओं और पूजा स्थलोंको भी धारा-५ में क्यों नहीं रखा गया। यह भेदभाव क्यों रामके अतिरिक्त सनातनी परम्परामें कृष्ण, शिव भी आस्थाकी दृष्टिïसे उतने ही महत्वपूर्ण है जितने प्रभु श्रीराम है। यहांपर यह भी समझना आवश्यक है कि किस प्रकारसे मुगल आक्रान्ताओं, लूटेरे शासकों द्वारा सनातनी समाजकी आस्थाको ध्वस्त किया गया, उसका एक प्रमाण वर्ष १६६९ में शासक औरंगजेबके एक शरमानसे मिलता है, जिसकी आंखोंमें मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्म स्थानपर स्थित मन्दिर किस हदतक खटक रहा था। औरंगजेबने अपने इस फरमानमें कहा है कि मथुराके इस मन्दिरको ध्वस्त कर दिया जाय। औरंगजेबका यह फरमान प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार द्वारा अनुवादित रूपमें आज भी मौजूद है, क्या इस प्रकारके इतिहासमें किये गये कुकृत्यको न्यायालयकी शरणमें जाकर उसे ठीक कराना एक गुनाह है। यदि किसी भी ऐतिहासिक भूलको ठीक करना या कराना एक अपराध है और यदि कोई शान्तिपूर्ण ढंगसे न्यायालयकी शरणमें जाकर ऐतिहासिक भूलको ठीक करवाना चाहता है तो क्या उसे देशकी संसद द्वारा रोकना लोकतांत्रिक मूल्योंकी रक्षा कहा जा सकता है। यदि इतिहासमें की गयी भूलोंको नहीं सुधारा जाना है तो फिर क्यों अंग्रेजोंके समय बहुतसे बने हुए कानूनोंको १५ अगस्त, १९४७ के बादसे आजतककी हर सरकार द्वारा समय-समयपर बदला गया, निरस्त किया गया। अत: यह स्पष्टï है कि पूजा स्थल सम्बन्धी कानून १९९१ संसद द्वारा किसी एक विशेष उद्देश्य पूर्तिके लिए, किसी समुदाय विशषको वोट बैंककी राजनीतिके तहत लुभानेके उद्देश्यसे समस्त लोकतांत्रित मूल्योंको ताकपर रखते हुए बनाया गया है। अत: स्पष्टï है कि भारतीय संविधान, जिसकी बात आज हर वह व्यक्ति भी कर रहा है जो कभी यह कहा करता था कि उसके लिए सिर्फ एक ही किताब है जिसके आगे वह किसीको नहीं मानेगा, उसी भारतीय संविधानकी मूल भावना, उसमें प्रदत्त मूल अधिकारों और करोड़ों सनातनियोंकी भावनाको ध्यानमें रखते हुए भारत सरकारको सुप्रीम कोर्टमें यह अवश्य कहना चाहिए अथवा अनुरोध किया जाना चाहिए कि इस कानूनको रद करना ही संविधानकी मूल भावनाको बचा सकता है और यदि ऐसा सम्भव नहीं हो तो भारतीय संसदको अपनी छविपर लगे इस काले दागको स्वयं धो डालना चाहिए।