सम्पादकीय

जलविद्युत उत्पादनके दुष्परिणाम


विकेश कुमार बडोला

रविवारको उत्तराखण्ड स्थित चमोलीमें हिमखण्ड टूटनेसे धौलीगंगापर बन रही जलविद्युत परियोजनाका बांध भी क्षतिग्रस्त हो गया। दो नदियोंके संगम स्थलपर अलकनंदा नदी साकार होती है। अलकनंदामें बहते बाढ़के पानीने तपोवनके निकट निर्माणाधीन तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजनाको भी ध्वस्त कर दिया। इसके बाद जोशीमठके आगे विष्णुगढ़-पिपलकोटी परियोजनामें भी बाढ़का पानी पहुंच गया। नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग और श्रीनगर पहुंचनेतक पानीका बहाव कम हो गया। जलजले आनेके बादसे लेकर आधे घंटेतक तो ऐसे लगा जैसे इसकी अधिकता एवं तीव्रतासे उत्तराखण्ड स्थित गंगा एवं इसकी सहायक नदियोंमें बाढ़का संकट उत्पन्न हो जायेगा। अकस्मात आयी बाढ़के समय ऋषिगंगा और तपोवन स्थित जलविद्युत परियोजनाओंके बांधोंकी सुरंगमें अनेक श्रमिक काम कर रहे थे। बाढग़्रस्त क्षेत्रोंमें १५० लोगोंके मरनेकी आशंका है। हालांकि इस आपदाके बारेमें पता चलते ही राज्य सरकारने हर संभव आपदा प्रबंधन करनेमें विलंब नहीं किया। धौलीगंगा नदीपर तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युतीय विद्युत संयंत्र ५२० मेगावाटका है। अकस्मात आयी इस बाढ़में चार जलविद्युत इकाइयां क्षतिग्रस्त हुई हैं। चारों इकाइयोंपर कुल कितनी हानि हुई इसका आकलन तो अभी नहीं किया जा सकता। लेकिन राज्य सरकार जिन उद्योग आधारित परियोजनाओंपर आश्रित है, वे केदारनाथ आपदाके बाद लाभ कम और हानिप्रद अधिक सिद्ध हो रही हैं। उत्तराखण्डमें हर बरसातमें इसके १३ जिलोंमेंसे किसी न किसी पहाड़ी जिलेमें अतिवृष्टि होती ही होती है।

परिणामस्वरूप बाढ़का संकट उभरता है और आपदा एवं अन्य प्रबंधनमें राज्य सरकारका धन-संसाधन व्यय होता है। पृथक राज्य बननेके बाद उत्तराखण्डके प्राकृतिक स्रोतों-संसाधनोंपर शासनकी गिद्धदृष्टि बराबर लगी रही। २००० में राज्य गठनके बाद ९ नवंबर २००१ को उत्तराखण्ड जल विद्युत निगमकी स्थापना की गयी थी। इस निगमकी स्थापनाका उद्देश्य ही राज्यके जलजन्य प्राकृतिक स्रोतोंका विकास करना, उनसे बिजली बनाना और उसे बेचकर राजस्व अर्जित करना था। इस समय निगमके ३३ जलविद्युत परियोजनाएं हैं। इनमेंसे १४ से अधिक परियोजनाएं क्रियान्वयनके विभिन्न चरणोंमें हैं। जलविद्युत और सिंचाई परियोजनाओंके लिए इस समय राज्यमें १५ बांध हैं। इनमेंसे १३ बांध पूरी तरह निर्मित होकर क्रियान्वित हैं। केवल दो बांध हैं, जो निर्माणाधीन हैं। इनमेंसे एक है सिंचाई उद्देश्य हेतु १९९० से प्रस्तावित जामरानी बांध, जो गोला नदीपर नैनीताल जनपदमें स्थित है। दूसरा, लखवार बांध, जो जलविद्युत एवं सिंचाइ्र उद्देश्य हेतु यमुना नदीपर देहरादून जनपदमें स्थित है। अन्य १३ मेंसे बैगुल, बौर, धोरा, हरिपुरा, नानक सागर एवं तुमारिया बांध उत्तराखण्डके ऊधम सिंह नगरमें हैं। भीमताल नामक बांधे नैनीतालमें, इचारी बांध देहरादून, धौलीगंगा पिथौरागढ़में, कोटेश्वर एवं टिहरी बांध टिहरी गढ़वालमें, मनेरी बांध उत्तरकाशीमें और रामगंगा बांध पौड़ी गढ़वालमें है। सबसे पुराना धोरा बांध है, जो १९६० में बना था और सबसे नया बांध टिहरी बांध है, जिसका निर्माण कार्य २००५ में पूरा हुआ था। आशय यह है कि उत्तराखण्डके १३ मेंसे ७ जिलोंमें बांध हैं। मैदानी क्षेत्रोंकी तुलनामें पर्वत घाटियोंपर बने बांध प्राकृतिक आपदाओंके दृष्टिगत शक्तिहीन ही प्रतीत होते हैं। साथ ही प्राकृतिक विप्लवमें इनके टूटने-बिखरनेसे जलका प्रवाह अतितीव्र होता है। इस तीव्र प्रवाहमें नटी तटोंपर बसे गांवके गांव जलमग्न हो जाते हैं। पर्वत घाटियोंपर जो अतिवृष्टि होती है वह यदि बहते हुए नदियोंपर बने बांधको तोड़कर आगे बढ़ती है तो उसमें टूटे बांधका एकत्र जल भी मिल जाता है। इस प्रकार जो जलराशि नदी मार्गोंसे होते हुए प्रवाहित होती है, वह नदी तलसे बहुत ऊंचाईतक प्रवाहित होने लगती है। इसीसे जान-मालका नुकसान होता है।

सन् २०१३ में १६-१७ जूनको केदारनाथमें आयी आपदा कौन भूल सकता है। उस प्रलंयकारी अतिवृष्टिमें केदारनाथसे लेकर दिल्लीतक बाढ़की परिस्थितियां निर्मित हो गयी थीं। हालांकि इसे २००४ की सुनामीके बाद देशकी सबसे बड़ी आपदा माना जाता है। परन्तु यदि तत्कालीन संप्रग सरकारने केदारनाथ आपदा और इसमें हुए जान-मालका गंभीर आकलन किया होता यह अविस्मरणीय आपदा होती। यदि उस समयावधिमें पहाड़ोंपर होनेवाली मूसलधार वर्षा एक दिन और हो जाती तो दिल्ली भी बुरी तरह जलमग्न होता। जब दिल्ली जलमग्न होता, तब तत्कालीन केंद्र सरकार केदारनाथ आपदाको राष्ट्रीय आपदा अवश्य घोषित कर देती। हालांकि तत्कालीन उत्तराखण्ड सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ोंके अनुसार ५७०० से अधिक लोग आपदामें मारे गये थे। इनमें ९३४ स्थानीय लोग भी थे। परन्तु जो तीन लाख तीर्थयात्री केदारनाथ धाम दर्शनार्थ पहुंचे थे उनके अनुसार आपदामें दस हजारसे अधिक लोग मारे गये थे। आपदामें कई स्थानीय गांव, नदी तटपर बने होटल और घर जमीन सहित उखड़कर नदीमें समा गये। राज्य सरकारको करोड़ों-अरबों रुपयेकी हानि हुई। धार्मिक पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ। ९ नवंबर २००० को देशके २७वें राज्यके रूपमें गठित उत्तराखण्डका भौगोलिक क्षेत्र अपने प्राकृतिक स्वरूपमें और पलायनसे पूर्व एक प्रशान्त क्षेत्र था। उत्तराखण्डमें प्राकृतिक आपदाओंकी तीव्र पुनरावृत्ति विगत १५ वर्षोंसे ही देखनेको मिली है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसपर विचार करना चाहिए। प्राकृतिक आपदाओंको देखते हुए हमें ऊर्जाके नवीकरणीय विकल्पोंके बारेमें सोचना चाहिए। सरकारको जलविद्युत परियोजनाओंके विकल्पके रूपमें नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनोंपर ध्यान लगाना चाहिए। इसके तहत सौर एवं पवन ऊर्जा बेहतर विकल्प हैं। चूंकि सौर एवं पवन ऊर्जाएं अदृश्य हैं अत: इनका दुष्प्रभाव जल ऊर्जाके जलजलेके रूपमें नहीं हो सकता। इसके अलावा जलकी तुलनामें सौर एवं पवन ऊर्जाके उत्पादनमें धन-संसाधन तथा परिश्रम भी बहुत कम लगता है। अब दुनियामें प्रकृति, जलवायु और पर्यावरणकी बढ़ती विकृतियोंको देखते हुए ऊर्जाके उन्हीं विकल्पोंको अपनानेकी आवश्यकता है, जिससे प्रकृतिका अतिदोहन न करना पड़े।