प्रणय कुमार
युद्ध किसी समस्याका समाधान नहीं होता। शांति, संवाद, सहयोग, सह-अस्तित्वका कोई विकल्प नहीं। विश्व-मानवताके लिए यह सुखद है कि इसरायल और हमासके बीच युद्ध-विराम हो चुका है। परंतु उल्लेखनीय है कि १९४० के दशकके मध्यमें हंगरी, पोलैंड, जर्मनी, ऑस्ट्रियाके यहूदियोंको किन-किन यातनाओंसे गुजरना पड़ा, १९४८ में स्वतंत्र होनेसे लेकर आजतक उसने किन-किन संघर्षोंका सामना किया, अपनी विकास-यात्रामें अबतक उसने कैसे-कैसे गौरवशाली आयाम-अध्याय जोड़े, यह दुहरानेकी आवश्यकता नहीं! पूरी दुनियाने देखा कि इसरायल और फिलीस्तीनके मध्य हुए हालिया युद्धके दौरान वहांके मौजूदा प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और विपक्षी दलके नेता बेनी गेण्ट्ज इस बातपर एकमत थे कि उनका सबसे पहला और सबसे बड़ा दायित्व उनके राष्ट्रपर आये संकटोंका डटकर सामना करना है और उनपर ३००० से भी अधिक रॉकेट दागनेवाले आतंकी संघटन हमासको सबक सिखाना है। उनके नागरिक अपने देश और अपनी सरकारके साथ हर सूरतमें दृढ़ता एवं मजबूतीसे समवेत खड़े थे।
इसरायलकी इस गौरवशाली विकास यात्रा, अभेद्य सुरक्षा-तंत्र, फिलीस्तीनको लेकर संपूर्ण इस्लामिक जगतकी तीखी प्रतिक्रिया एवं नियमित तनातनी आदिके आलोकमें इसरायल एवं भारतके नागरिकोंके वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय चारित्र्यके अंतरको समझना सार्थक एवं प्रेरणादायी रहेगा। व्यक्ति-चारित्र्यकी दृष्टिसे हमारा राष्ट्र एक आदर्श राष्ट्र रहा है, परन्तु राष्ट्रीय चारित्र्यकी कसौटीपर हम सदैव कमजोर पड़ते रहे हैं। निजी जीवनमें हम सत्य, अहिंसा, निष्ठा, विश्वास, प्रेम आदि मानवीय मूल्योंको सर्वोच्च प्राथमिकता देते आये हैं। लिये गये प्रण और दिये गये वचनोंको निभानेके लिए हम अपने प्राणतक दांवपर लगानेको तैयार रहते हैं। इतिहास ऐसे उदाहरणोंसे भरा पड़ा है, जब हमारे शासकों-मनीषियोंने अपना एक वचन निभानेके लिए सर्वस्व दांवपर लगा दिया। शौर्य, पराक्रम, वीरताकी भी हममें कभी कोई कमी नहीं रही। ऐसे-ऐसे साहसी शूरमा हमारे यहां हुए जो आक्रांताओंको धूल चटानेकी सामथ्र्य रखते थे, परन्तु दूसरी ओर ऐसे दृष्टांत भी हैं जब अपने किसी अहंकारके फेरमें हमने राष्ट्रीय हितोंको तिलांजलि दे दी। हम शत्रुओंसे जितना नहीं हारे, उससे अधिक दुर्बलतासे हारे। हमारा इतिहास पराजयका नहीं, संघर्षका है, परन्तु यदि हमने राष्ट्रीय हितोंको सर्वोच्च प्राथमिकता दी होती तो हमारा इतिहास विजयका इतिहास होता! हम कदाचित इतने लम्बे कालखंडतक गुलाम नहीं रहते।
हमने इतिहाससे कोई सीख नहीं ली। इसीलिए हमारे वर्तमानकी तस्वीर भी धुंधली नजर आती है। हम जाति, पंथ, क्षेत्र, संप्रदाय आदिमें बुरी तरह बंटे हैं। अधिकारों और सुविधाओंकी मांग चारों ओर है, परन्तु त्याग और कर्तव्यका चहुंओर अभाव दिखाई देता है। हम चटखारे लेकर इसके या उसके भ्रष्ट या बेईमान होनेकी बातें तो खूब करते हैं, परन्तु क्या कभी हमने सोचा है कि अपने स्तरपर कि हम भी उन्हीं कमजोरियोंके शिकार रहे हैं। हम अपने राष्ट्रीय या नागरिक उत्तरदायित्वोंके प्रति कितने गंभीर हैं, यह किसीसे छिपा नहीं। आये दिन होनेवाले धरने-प्रदर्शन-आंदोलनमें सार्वजानिक संपत्तिकी भारी क्षति राष्ट्रीय-चारित्र्यके अभावकी कहानी बयां करती है। अंतर्बाह्य चुनौतियोंसे घिरे होने और कोरोना जैसी विषम परिस्थितियोंके बीच भी तमाम विपक्षी दल सरकारकी आलोचनाको ही अपना सर्वश्रेष्ठता मानते हैं। हम अपनी ही सरकारसे सर्जिकल स्ट्राइकका प्रमाण मांगते हैं। कोरोनाकी द्वितीय लहरके बीच न केवल आक्सीजन सिलेंडर, जीवनदायी औषधियोंकी कालाबाजारी, जीवन-मृत्युसे जूझ रहे मरीजोंका आर्थिक शोषणतक करते हैं, बल्कि भारतकी छविको बदरंग करनेवाली तस्वीरें भी पूरी दुनियामें फैलाते हैं।
लोग निजी जीवनमें धार्मिक, आध्यात्मिक, सिद्धांतवादी, आदर्शवादी हैं, परन्तु उनमें राष्ट्रीय चिंतनका अभाव है। मुझे क्या, मेरा क्याका चिंतन अधिकांशपर हावी है। आजाद, भगत सिंह, स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती जैसे क्रांतिकारी एवं समाजसुधारक पैदा तो हों परन्तु पड़ोसियोंके घर! विचार करें कि हमारे भाव-विचारमें राष्ट्रहित किस पायदानपर है। फिर भी हम बात करते हैं, शासनतंत्रमें व्याप्त भ्रष्टाचार एवं उसकी विफलता की। शासन और व्यवस्था तो हमारा अपना प्रतिबिंब है, इसलिए पहले निजी एवं सामाजिक स्तरपर भ्रष्टïाचार दूर करना होगा! हम अपने एवं परिवारके प्रति जितने ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ हैं, देश और समाजके लिए भी उतना हो जायं तो उसी दिनसे तस्वीर बदलने लगेगी। लोकतांत्रिक व्यवस्थामें असली ताकत जनतामें निहित होती है। परन्तु उसके लिए जनताको निजी स्वार्थों एवं सब प्रकारकी संकीर्णताओंसे ऊपर उठकर राष्ट्रहितमें मताधिकारका प्रयोग करना होता है। आश्चर्य है कि विभिन्न चुनावोंमें फ्री बिजली-पानी, लैपटॉप-साइकिल-स्कूटी आदि बांटनेकी झड़ी लग जाती है और आज भी जनता सस्ते नारों एवं प्रलोभनोंका शिकार बन सही-गलतका फैसला नहीं कर पाती।
सच तो यह है कि राष्ट्रीय-चारित्र्यके अभावमें व्यक्तिगत उपलब्धियों या उच्च चारित्रिक पहलुओंका भी विशेष महत्व नहीं रह जाता। कहते हैं कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोरकी तमाम ऊंचाइयों और निजी उपलब्धियोंके बावजूद जापानी विश्वविद्यालयके विद्यार्थियोंने एक दीक्षांत समारोहमें उनके हाथों डिग्री लेनेसे मना कर दिया था, क्योंकि गुलाम देशके नागरिकसे यह सम्मान लेना उन्हें स्वीकार नहीं था। कुल-गोत्र, जाति-समुदाय, निजी प्रतिभा-पहचान आदिकी तुलनामें दुनियामें हमारा सम्मान राष्ट्रके सम्मानके अनुपातमें ही होगा। दरअसल तंत्र और नागरिक-समाज राष्ट्र एवं राष्ट्रीय हितोंको कितनी प्राथमिकता देता है, उसीपर राष्ट्रीय चारित्र्य निर्भर करता है। विपदा या युद्ध-कालमें इसरायलकी सरकार, वहांके विपक्षी दलों और आम नागरिकोंकी सोच और आचरणके परिप्रेक्ष्यमें स्वयं तय करें कि राष्ट्रीय चारित्र्य एवं नागरिक-जिम्मेदारीके निर्वहनकी कसौटीपर हम भारतीय कितना खरा उतरते हैं।