सम्पादकीय

कर्तव्य पालनसे सफलता निश्चित


डा. हेमेन्द्र कुमार सिंह

शिक्षण वह क्रिया है जिसके द्वारा शिक्षक, छात्र तथा विषयके मध्य सम्बन्ध स्थापित होता है। शिक्षक-शिक्षण तथा शिक्षार्थीमें शिक्षक तथा शिक्षार्थी सजीव एवं सक्रिय बिन्दु है। शिक्षक शिक्षणके समय अपने कर्तव्यपथपर अधिक सक्रिय एवं सजीव रहे तब छात्र भी अपने कर्तव्यपथपर अधिक सक्रिय एवं उत्साही रहता है। जबतक शिक्षण प्रक्रियाके यह दोनों महत्वपूर्ण अंग सजीव तथा सक्रिय नहीं रहेंगे। तबतक परस्पर सिखाने एवं सीखनेकी क्रियामें अपने कर्तव्य मार्गपर अपेक्षित आवश्यक सहयोग नहीं प्रदान करेंगे तबतक शिक्षण प्रक्रिया अपने महत्वपूर्ण उद्देश्योंमें सफल नहीं हो सकती। बच्चे हों या बड़े, अधिकारी हों या कर्मचारी, नेता हों या अभिनेता, शिक्षक हों या शिक्षार्थी, मार्गदर्शक हों या अनुयायी सभी अपने-अपने अधिकारोंकी चिन्ता करते हैं और करनी भी चाहिए। लेकिन जब कभी भी हमें अधिकार बोध होता है तो एक और बात समझनेकी जरूरत है और वह यह कि अधिकारके साथ कर्तव्यबोध भी होना चाहिए। हम तबतक सही दिशाको प्राप्त नहीं कर सकते जबतक हम सिर्फ और सिर्फ अधिकारकी बात करते रहेंगे। जैसे यदि शिक्षकको विद्यर्थियोंको मूंगफलीके विषयमें पढ़ाना है तो शिक्षक मूंगफलीके ऋतुमें पढ़ाये जिससे कि छात्र अपने खेतोंमें या कालेजके फार्मपर वास्तविक रूपसे मूंगफलीकी खेतीके विषयमें सैद्धान्तिक तथा प्रयोगात्मक कार्यका ज्ञान प्राप्त कर सकें। शिक्षकको अपने कर्तव्य मार्गपर चलते हुए छात्रोंके प्रति प्रेम और सहानुभूति रखनी चाहिए। उसमे धैर्य और सहनशीलता होनी चाहिए। इन गुणोंसे युक्त शिक्षक छात्रोंके सामीप्यसे सम्पर्कमें आ जाते हैं तथा छात्र शिक्षकमें एकात्म स्थापित कर स्वयंको अपने घरके समान वातावरणमें पाते हैं।

आज विश्वपटलपर यदि किसी चीजकी आवश्यकता है तो वह है अधिकारसे पहले कर्तव्यकाबोध होना। हम जिस समाजमें रहते हैं उस समाजसे हमें बहुत अपेक्षाएं रहती हैं। हमें लगता है कि समाज बहुत अच्छा होना चाहिए। समाजमें कोई अमर्यादित आचरण या व्यवहार नहीं होनी चाहिए। लेकिन समाज है क्या। लोगोंके रहन-सहनका एक क्षेत्र जिसमें जीवन रहता है वही समाज है। जब आप समाजमें अपने अधिकार लेकर पहुंचते हैं तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उस समाजको बनानेमें आपने कर्तव्यका निर्वहन किया है क्या। यदि नहीं तो उस समाजको आप अपना समाज कैसे कह सकते हैं। अधिकार निश्चित रूपसे होता है लेकिन उसके पहले आता है कर्तव्य। जब अधिकारसे पहले कर्तव्य आना शुरू हो जायेगा तब हमारी आधीसे ज्यादा समस्याएं समाप्त हो जायंगी। प्रत्येक सन्तानका अपने पैतृक संपत्तिपर अधिकार होता है लेकिन उस पैतृक संपत्तिको आधिकारिक रूपसे प्राप्त करनेके लिए सन्तानके कर्तव्यका निर्वहन होना भी अति आवश्यक है। प्रकृतिने हमें प्रचुर मात्रामें शुद्ध वायु, जल, मृदा और अनेकों खनिज सम्पदाएं दी हुई हैं परन्तु उसे हम प्राप्त करनेके लिए आधिकारिक रूपसे प्रकृतिका सरंक्षण और संचयन भी कर रहे हैं। शिक्षा प्राप्त करना हमारा मौलिक अधिकार है लेकिन उसको प्राप्त करनेवालोंके कई कर्तव्य भी होते हैं। आज पूरा विश्व कोरोना जैसी महामारीसे जूझ रहा है इस कोरोनाके समय भी हमने सबसे ज्यादा अपने अधिकारोंकी बात की है। लेकिन कर्तव्योंसे बहुत दूर-दूर रहे हैं। हर किसीने अपने अधिकार और दूसरेके कर्तव्यके लिए सोचा और उसीकी अपेक्षा की। जबकि होना इसके विपरीत चाहिए था कि हमारा कर्तव्य हो और दूसरेका अधिकार हो। तब समाजका स्वार्थी रूप बदलेगा और सामाजिक समरसता, आपसी प्रेम, सौहार्द तथा एकताका फिरसे जन्म होगा। भारत माताको मुगलों तथा अंग्रेजी हुकूमतसे आजादी दिलानेमें भारतके अनेकों बीर सुपूतोंने अपने जानकी कुर्बानी दी। अनेकों माताओंके गोंद सूने हो गये, बहनोंके मांगका सिन्दूर मिट गया बच्चोंके सिरसे उनके पिताका साया छिन गया। कहनेका मतलब यह बलिदान देना औरोंका कर्तव्य हो और उसके परिणामस्वरूप अच्छा जीवन जीना हमारा अधिकार है। इस सोचसे हमें बाहर निकलना पड़ेगा। हमें ऐसे समाजका निर्माण करना होगा जिसमें सभी जनमानस पहले कर्तव्यकी बात करें और उसके बाद तो अधिकारके तो हम अधिकारी है ही, अधिकारकी भी बात अवश्य होनी चाहिए। लोग जब कार चलाते हुए शहरके व्यस्त चौराहेपर पहुंचेंगे तो ट्रैफिक नियंत्रण करनेवाले सिपाहीसे उसके कर्तव्य निभानेवाली बात अवश्य करेंगे लेकिन हम ट्रैफिकके नियमका पालन करनेकी बात भूल जाते हैं। वैसे ही कोरोनाके दूसरी लहरने हमारे सामने आक्सीजनका संकट ला दिया। हमारे अपनोंको आक्सीजन समयसे या पर्याप्त मात्रामें न मिल पानेके कारण लोगोंने दम तोड़ दिया। हम सरकारको व्यवस्थाको कोसते रहे लेकिन क्या हमने अपनी जिम्मेदारीके बारेमें सोचा कि हमनें प्रकृतिके संरक्षणके लिए कौन-कौन-सी महत्वपूर्ण जिम्मेदारीका निर्वहन कर रहे हैं। अब परिस्थिति और समयकी मांग है कि अपने पूर्वजोंके दिनचर्याका स्मरण करते हुए सीमित संसाधनोंसे अपनी भौतिक पदार्थोंके प्रति मोहको कम करते हुए सीमित आवश्कताओंकी पूर्ति करते हुए इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि यदि अधिकार हमारे लिए जन्मसिद्ध है तो कर्तव्य कर्मसिद्ध होना चाहिए।