सम्पादकीय

चीन भी परेशान था करीमासे


विष्णुगुप्त
करीमा बलोच चीन और पाकिस्तानकी उपनिवेशिक नीति एवं करतूत को दुनियाके सामने बेपर्द करनेकी अहम भूमिकामें थीं। करीमाकी हत्या मानवाधिकारके लिए एक खतरेकी घंटी है। करीमाकी हत्यापर संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा निष्पक्ष और प्रभावशाली जांच होनी चाहिए। तमाम प्रश्न है। दुनियाके नियामकोंकी चुप्पी चिंताजनक है। जबकि करीमा बलोचकी हत्या दुनियामें अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता, मानवाधिकारकी लड़ाईके क्षेत्रमें एक गंभीर संकटके तौरपर देखा जाना चाहिए। करीमा बलोच कहती थी कि सभी बलोच महिलाएं मोदीको अपना भाई मानती हैं। उन्होंने पाकिस्तानकी उपनिवेशिक नीतिके खिलाफ दुनियाभरमें सक्रियताकी नींव रखी थी और पाकिस्तानकी लगातार पोल खोल रही थी? बलूच आंदोलनका वह सबसे बडी हस्ती और वैचारिक शक्ति थी। बलूच राष्ट्रवादका वह प्रतिनिधित्व करती थी। बलूच राष्ट्रवादका सबंध बलूचिस्तानकी आजादी है। बलूचिस्तान पाकिस्तानका पश्चिमी राज्य है। बलूचिस्तानका क्षेत्रफल बहुत बड़ा है। बलूचिस्तान तीन देशोंकी सीमाओंसे जुड़ा हुआ है। बलूचिस्तानकी राजधानी क्वेटा है। कभी बलूच क्षेत्र तालिबान और अलकायदाका गढ़ हुआ करता था। बलूच क्षेत्र अलकायदा और तालिबानका गढ़ क्यों हुआ करता था? बलूचका क्षेत्र घने जंगलों और पहाड़ोंसे घिरा हुआ है और खनिज संपदाओंसे परिपूर्ण है। पाकिस्तानके खनिज संपदाओंका लगभग ६० प्रतिशत खनिज संपदा इसी प्रांतमें उपस्थित है।
बलूच आबादीका विचार है कि बलूचिस्तानपर पाकिस्तानका अवैध कब्जा है, पाकिस्तान उनका अपना देश नहीं है। जिस प्रकारसे अंग्रेज उनके लिए विदेशी आक्रमणकारी थे उसी प्रकारसे पाकिस्तान भी विदेशी आक्रमणकारी हैं। उनका इतिहास भी यही कहता है कि बलूचिस्तान ब्रिटिश कालमें भी एक अलग अस्मिता और देशके लिए सक्रिय एवं आंदोलनरत था, भारत विखंडनमें बलूच आबादीकी कोई दिलचस्पी या भूमिका नहीं थी। मजहबके नामपर पाकिस्तानके निर्माणमें भी बलूच आबादीकी कोई इच्छा नहीं थी। जब भारतमें अंग्रेज अपना बोरिया विस्तर समेटनेकी स्थितिमें थे तब अलग बलूचिस्तानके प्रति कदम उठाये थे। अंग्रेज इस निष्कर्षपर पहुंचे थे कि बलूचिस्तानको अलग क्षेत्रके रूपमें मान्यता दी जानी चाहिए। १९४४ में बलूचिस्तानकी स्वतंत्रताका विचार ब्रिटिश जनरल मनीने व्यक्त किया था। मजहबके नामपर भारत विखंडनके साथ ही साथ बलूचिस्तानकी भी किस्मतपर कुठाराघात हुआ था। पाकिस्तानमें बलूच आबादी कभी मिलना नहीं चाहती थी, बलूच आबादी अपना अलग अस्तित्व कायम रखना चाहती थी। परन्तु पाकिस्तानने बलूपर्वक बलूचिस्तानपर अधिकार कर लिया था। शुरूआतसे ही विरोध हुआ और इस अधिकारकी काररवाईको पाकिस्तानके उपनिवेशवादकी उपाधि प्रदान की गयी थी। परन्तु अंतरराष्ट्रीय समर्थन न मिलनेके कारण बलूच राष्ट्रवादका आंदोलन शक्तिविहीन ही रहा। १९७० के दशकमें बलूच राष्ट्रवादका प्रश्न प्रमुखतासे उठा और दुनिया जानी कि बलूच राष्ट्रवादका भी कोई सशक्त अस्तित्व है जिसे पाकिस्तान सैनिक शक्तिसे प्रताडि़त कर रहा है, कुचल रहा है। बलूचिस्तान सबसे पिछड़ा प्रांत है। इसलिए कि पाकिस्तानने उपनिवेशिक नीतिपर चलकर बलूचिस्तानका दोहन किया और विकासको शिथिल रखा। करीमा बलोच एक महिला थी। मजहबी तानाशाहीवाले देशों और समाजमें एक महिलाका मानवधिकार कार्यकर्ता और हस्ती बन जाना कोई मामूली बात नहीं है, यह एक बहुत बड़ी बात है। बलूचिस्तानमें तीन तरफसे करीमा बलूच जैसी बहादुर महिलाएं त्रासदियां झेली है एक मजहबी समाज, दूसरा पाकिस्तानका सैनक तबका और तीसरा अलकायदा-तालिबान जैसे आतंकवादी संघटनोंकी हिंसा। मुंह खोलनेवाली या फिर समाजमें अगवा बननेकी कोशिश करनेवाली महिला सीधे तौर आतंकवादी संवर्गकी प्रताडऩाका शिकार बना दी जाती हैं। पाकिस्तानने बलूचिस्तानमें मानवाधिकारका कब्र बना रखा है। पिछले कुछ सालोंमें बलूचिस्तानके अन्दर हजारों बलूच राष्ट्रवादकी सेनानी मारे गये है। कुछ साल पहले बलूच नेता नबाब अकबर खान बुगतीकी हत्या हुई थी। बुगतीकी हत्याका आरोप तत्कालीन तानाशाह परवेज मुशर्रफपर लगा था। बुगतीकी हत्या अमेरिका और यूरोपभरमें सुर्खियां बंटोरी थी।
मुर्शरफपर बुगती हत्याका मुकदमा भी चला। करीमाने अपने आंकडोंसे हमेशा पोल खोल रही थी कि पाकिस्तान कैसे बलूचिस्तानमें मानवाधिकार हनन कर रहा है और बलूच नेताओं एवं कार्यकर्ताओंको कैसे मौतकी नींद सुला रहा है। करीमा बलूचके लिए यह काम खतरेवाला था। पाकिस्तानकी सेना और आईएसआईने कई बार करीमा बलोचकी हत्या करानेकी कोशिश की थी। करीमा बलोचने अपनी जानपर खतरेको देखते हुए पाकिस्तान छोडऩा ही उचित समझा। वह पाकिस्तान छोड़कर कनाडामें निर्वासित जीवन बीता रही थी और पाकिस्तान द्वारा मानवाधिकार हननकी बात उठा रही थी। जिसके कारण पाकिस्तानकी कूटनीति हमेशा दबावमें थी। करीमा बलोचकी हत्याको तानाशाही करतूत भी कह सकते हैं। तानाशाहियों द्वारा अपने विरोधियोंकी हिंसक हत्याका बहुत बड़ा इतिहास है। दुनियामें कम्युनिस्ट और मुस्लिम तानाशाहियोंमें इस तरहकी हत्या आम बात है। सोवियत संघके कम्युनिस्ट तानाशाह स्टालिन अपने घोर विरोधी लियोन त्रोत्सकीकी हत्या मैक्सिकोंमें करायी थी, इसके अलावा सोवियत संघमें लाखों ऐसे विरोधियोंकी हत्या हुई थी जिसे स्टालिन पंसद नहीं करता था। उत्तर कोरियाका कम्युनिस्ट तानाशाह किम जौंग उनने अपने सौतेले भाई किम जोंग् नमकी हत्या मलयेशियामें करायी थी। सऊदी अरबने अपने विरोधी पत्रकार जमाल खशोगीकी हत्या तुर्कीमें करायी। पाकिस्तानमें हमेशा सैनिक मुस्लिम तानाशाही सक्रिय रहती है। चीन अपने ग्वादर बंदरगाहके निर्माण और अपनी सीपीइसी परियोजनाका विरोध शांत करानेके लिए करीमा बलोचको निबटाना चाहता था क्योंकि ग्वादर बंदगाह और सीपीईसी परियोंजनाके खिलाफ करीमा बलोच और बलोच आन्दोलनके नेता सक्रिय थे। करीमाकी हत्याकी निष्पक्ष जांचकी जरूरत है। यदि करीमाकी हत्याका प्रसंग दब गया तो बलूचिस्तानकी आजादी भी इसी तरह कुचली जाती रहेगी।