मंजरी कुमारी
विज्ञानका ही आविष्कार है कोरोना, यह बहुत सारे विशेषज्ञोंका मानना है। हालमें इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पतालके वरिष्ठ परामर्शदाताने भी यह स्वीकार किया है कि कोरोना मानवसृजित जैविक हथियार है। यह विचार तबतक स्वीकार्य है जबतक इस दृष्टिकोणका प्रामाणिक खंडन सामने नहीं आ जाता है। अमेरिकामें भी अनेक वैज्ञानिकों द्वारा इस विचारधाराका समर्थन किया गया है कि कोरोना मानवकृत जैविक वायरस है। जाने-माने वैज्ञानिक डा. ली.मेंग यानने भी यह प्रमाणित करते हुए दावा किया है कि कोरोना प्राकृतिक उत्पत्ति नहीं है। उत्तरी अमेरिका एवं यूरोपके १८ वैज्ञानिकोंने इस संबंधमें गहन जांचकी आवश्यकता बतायी है। वैसे कोरोनाके आविष्कारी चरित्रमें कुछ ऐसे गुण हैं जो किसी और आविष्कारमें दिखाई नहीं देते हैं। अपने इन्हीं विशिष्ट गुणोंके कारण कोरोना परम्परासे हटकर प्रकृतिके लिए जहां वरदान है, वहीं मानव जातिके लिए अभिशाप। शायद कुछके लिए ही आविष्कार हैं जो प्रकृतिके लिए वरदान हैं अन्यथा अधिकतर आविष्कारोंने प्रकृतिको न सिर्फ बौना दिखानेकी कोशिश की है। आविष्कार मनुष्यकी कृति है और मनुष्य यह भूल जाता है कि कृतिसे प्रकृतिको वह विकृत नहीं कर सकता है। कई बार ऐसा भी देखनेको मिला है कि मनुष्यके कुछ आविष्कार उसके लिए ही भष्मासुर साबित हो रहे हैं। कोरोनाकी कहानी किसीके लिए अप्रत्याशित घटना है तो किसीके लिए दुर्घटना। दोनों स्थितियोंमें कोरोनाने प्रकृतिको लाभ पहुंचाया है। उदाहरणार्थ दिल्लीमें पर्यावरण प्रदूषण चारों ओरसे दिल्लीकी सांसको बाधित करनेकी कोशिश कर रहा था, प्रकृतिका दम घुट रहा था, गौरैया गायब हो गयी थी। ऐसेमें कोरोना महामारीसे पूरे भारतकी मानवजातिमें हाहाकार मच गया, लेकिन प्रकृति बहुत प्रसन्न हुई। लाकडाउन लगनेके कारण जहां मनुष्य घरोंमें दुबक गये वहीं दशकों बाद प्रकृतिने स्वाभाविक अंगड़ायी ली। धूप खिली, फिर बारिश हुई, फिर रातमें चांदका पूरा मुखड़ा दिखा, आसमानमें तारोंकी बारात नजर आयी, फिर सुबह हुई और सामने पेड़की फुनगीपर गौरैया चहचहाती दिखी।
कोरोना कालमें दिनचर्या बंधनसे मुक्त हो गयी। हम अब भी सुबह उठते हैं परन्तु अबकी सुबह राहतभरी होती है। जीवन शास्त्रीय संगीतकी तरह स्वर देने लगा है। भरपूर समय सृजन, अध्ययन, मनन, आत्मावलोकन, चिंतनके लिए मिल रहा है। इंद्रधनुषके सातवें मानवीय रंगके रूपमें पिताके वात्सल्यमें मांके ममत्वकी अनुभूति हो रही है। पहली लहर मार्च २०२० से आरंभ होकर अक्तूबर २०२० तक पराकाष्ठापर थी। कोरोनाका ऐसा प्रथम कालखंड था जिसमें सृजनके अनेक सोपान तय किये। कोरोनाने सकारात्मक सहयोगकी श्रंखला गढऩी शुरू कर दी। पड़ोसी उचक-उचक कर देखते थे कि यह दोनों बालकनीसे झांकते हुए भी दिखाई क्यों नहीं देते, इन्हें न तो लूड़ोकी जरूरत है, न टेलीविजन धारावाहिक देखनेकी चिंता। दोनों पिता-पुत्री लेखन प्रतियोगितामें डटे रहते थे। जब लिखते-लिखते थक जाते थे तो शतरंजकी बिसातपर धूर प्रतिद्वंद्वी बन जाते थे। पिताजी कोरोना कालपर उपन्यास लिख रहे थे और मैं अपने बचे हुए समयमें लेख-कहानी-कवितासे धुआंधार लेखनबाजी कर रही थी। क्योंकि मैं स्नातक परीक्षाकी तैयारीमें अधिक समय दे रही थी, इसलिए अपनी सृजनात्मकताको सीमित रखते हुए कोरोना कालमें आगे बढ़ रही थी।
कोरोनाकी भयावहता बढ़ती गयी। दिल्ली विश्वविद्यालयने कई अभ्यास सत्र आयोजित किये ताकि सभी परीक्षार्थी नयी प्रणालीसे परिचित हो सकें। सीमित समय तीन घंटेमें उत्तर लिखनेके साथ ही आधे घंटेमें पीडीएफ बनाकर और स्वीकार्य न्यूनतम आकारमें परिवर्तित कर जटिल प्रक्रियासे होते हुए पोर्टलमें उत्तर पुस्तिकाको नियत समयके अंदर अपलोड करना पड़ता था। कई बार देर होनेका खतरा मंडराने लगता था क्योंकि नेटवर्ककी समस्या इस देशकी मौलिक समस्याओंमेंसे एक प्रमुख समस्या बन जाती थी। ईश्वरकी कृपासे यह ऐतिहासिक परीक्षा सफलतापूर्वक अगस्त माहमें संपन्न हुई। कोरोनाके सायेमें हमने स्वतंत्रता दिवस मनाया। कोरोनाका सम्मान करते हुए इस बार हमने लालकिले जानेका दुस्साहस नहीं दिखाया। पिता-पुत्री फिरसे रचनात्मक लेखनमें जुट गये। पिता जीने एक और उपन्यास लिखनेकी नींव रखी और मैं भी उनके सामने १९ नहीं पड़ी। इस तरह सृजनात्मक उपलब्धियोंके साथ मैंने शैक्षणिक सफलता भी प्राप्त की। स्नातकके परिणाममें हिंदी प्रतिष्ठामें मैंने अपने पुराने कीर्तिमानको तोड़ते हुए विशिष्टता प्राप्त कर प्रथम श्रेणीमें नया कीर्तिमान रचा। इस परिणामने मेरा उत्साह दुगुना कर दिया। इस तरह कोरोनाके प्रथम कालखंडमें मैंने अपनी प्रतिद्वंद्विता स्वयंसे आरंभ की और अपने जीवनमें अपने सामने एक नयी चुनौती प्रस्तुत की। प्रथम कालखंडमें मुझे और मेरे पिताजी दोनोंको कोरोना हुआ था, इसलिए उस दृष्टिसे सिर्फ २१ दिनोंके लिए वह अभिशाप बना और अनोखा अनुभव दे गया, जिसका निहितार्थ है कि जीवन यात्राका रिटर्न टिकट कन्फर्म है यानी जो आया है वह जायगाा। उस अवधिमें हम अपना ध्यान बटानेके लिए तरह-तरहके उपक्रम करते थे। उन कुछ नकारात्मक पलोंको हटानेके लिए हम कभी साथ मिलकर गाना गाते थे या आपसमें वाद-विवाद करते थे कि अरे यह कोरोना है तो क्या हुआ एक न एक दिन इसे भी तो समूल नष्ट हो जाना है। क्वारंटाइनके बाद हम दोनोंका पुनर्जन्म हुआ।
फिरसे कोरोना कालखंड ऐतिहासिक रूपसे मेरे लिए वरदान साबित हुआ। अब ऐसा लग रहा था कि कोरोना खत्म हो गया है। लाकडाउनका युग बीत चुका है। लेकिन अब शहरमें फिरसे प्रदूषणका स्तर दिखने लगा था। प्रकृति फिर प्रसन्न नहीं लग रही थी। लोग घूमने-फिरने और दूरदराज जानेकी योजना बनाने लगे थे। अचानक कोरोनाने वापसीकी और दूसरी लहर आरंभ हो गयी। इस दौरान पत्रकारिताकी पढ़ाई आनलाइन चलती रही। आनलाइन माध्यमसे ही मैंने प्रथम सेमेस्टरकी परीक्षा उत्तीर्ण की। मेरी मेहनत रंग लायी। प्रथम सेमेस्टरकी परीक्षामें मैंने दस एसजीपीएमें दस प्राप्त करते हुए विश्वविद्यालयमें सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन यानी शीर्ष स्थान प्राप्त किया। इन सब सकारात्मक प्रयोगोंके बावजूद मेरी हार्दिक इच्छा है कि कोरोना अति शीघ्र भारतकी धरतीको छोड़ दे और तीसरी लहर या चौथी लहरकी श्रंृखला न रचे।