आर.के. सिन्हा
इसरायलमें सत्तामें परिवर्तन तो हो गया है। वहांपर प्रधान मंत्री पदको नफ्ताली बेनेतने संभाल लिया है। परन्तु इससे भारत-इसराइलके संबंधोंपर किसी तरहका असर नहीं होगा। दोनों देशोंके रिश्ते चट्टानसे भी ज्यादा मजबूत है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीने मित्र देशके नये प्रधान मंत्रीको बधाई देते हुए कहा कि अगले वर्ष हमारे राजनयिक रिश्तोंको ३० वर्ष हो जायेंगे, जिसे मद्देनजर रखते हुए मैं आपसे मुलाकात करनेका इच्छुक हूं और चाहता हूं कि दोनों देशोंके बीच रणनीतिक साझेदारी और गहरी हो। दरअसल दोनों देशोंके रिश्तोंको ठोस आधार देनेकी दिशामें प्रधान मंत्री मोदी और इसराइलके निवर्तमान प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू लगातार सक्रिय थे। इन नेताओंके व्यक्तिगत संबंधोंसे भारत-इसराइल रणनीतिक साझेदारीको बल मिला और उन्होंने इस मुद्देपर निजी दिलचस्पी ली। भारत-इसराइल संबंधोंको गति मिलनेमें भारतके हजारों यहूदी नागरिकोंका भी अपना खास योगदान रहा है। भारतमें यहूदी नागरिक महाराष्ट्र, केरल, पूर्वोत्तर और राजधानी दिल्ली आदिमें रहते हैं। इसराइलमें नफ्ताली बेनेटके नये प्रधान मंत्री बननेके साथ ही राजधानीके एकमात्र सिनोगॉगमें उनके यहां आनेका इन्तजार भी शुरू हो गया है। इसकी वजह यह है कि हुमायूं रोडकी जूदेह हयम सिनगॉगमें बेनेटके पूर्ववर्ती बेंजामिन नेतन्याहू और उनसे पहले इसराइलके शिखर नेता सिमोन पेरेज स्थानीय यहूदी समाजसे मिलने और प्रार्थनाके लिए आ चुके हैं। वह जब भारतके सरकारी दौरेपर आये तो जूदेह हयम सिनगॉगमें आना नहीं भूले।
इसी सिनगॉगसे सटी हुमायूं रोडकी कोठीमें सांसदके तौरपर छह वर्ष रहा था। अत: मैं इनकी गतिविधियोंसे थोड़ा बहुत परिचित तो हूं ही। नफ्ताली बेनेटको अपने देशके आम चुनावमें बहुमत हासिल हुआ जिसके बाद इन्होंने अपना कार्यभार संभाल लिया है। बेनेटके बारेमें पता चला कि वह पहले कभी भारत नहीं आये हैं। चूंकि भारत-इसराइलके संबंध बहुत घनिष्ठ हैं इसलिए उनका आनेवाले समयमें नयी दिल्ली आना तय है। देखिये इसराइल कहीं न कहीं भारतके प्रति बहुत आदरका भाव रखता है। इसकी दो वजहें हैं। पहली, भारतमें कभी भी यहुदियोंके साथ किसी भी तरहके कोई जुल्म नहीं हुए। उन्हें इस देशने सारे अधिकार और सम्मान भी दिये। इस तथ्यको सारी दुनियाके यहूदी सहर्ष स्वीकार करते हैं। उन्हें पता है कि भारतमें कोई यहूदी सेनाके शिखर पदपर भी पहुंच सकता है। गवर्नर भी बन सकता है। उन्हें इस बाबत लेफ्टिनेंट जनरल जे.एफ.आर जैकबके संबंधमें विस्तारसे जानकारी है। राजधानीके जूदेह हयम सिनगॉगके एक हिस्सेमें यहुदियोंका कब्रिस्तान भी है। इसमें पाकिस्तानके खिलाफ १९७१ में लड़ी गयी जंगके नायक जे.एफ.आर जैकबकी भी कब्र है। वह पाकिस्तानके खिलाफ लड़े गये युद्धके महानायक थे। यदि उस जंगमें जैकबकी योजना और युद्ध रणनीतिपर अमल न होता तो बंगलादेशको आजादी आसानीसे नहीं मिलती और लगभग एक लाख पाकिस्तानी सैनिकोंका शर्मनाक आत्मसमर्पण भी नहीं होता। पूर्वी पाकिस्तन (अब बंगलादेश) में अन्दर घुसकर पाकिस्तानी फौजोंपर भयानक आक्रमण करवानेवाले लेफ्टिनेंट जनरल जैकबकी वीरताकी गाथा प्रेरक है। उनका आक्रमण युद्ध कौशलका ही परिणाम था कि नब्बे हजारसे ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकोंने अपने हथियारों समेत भारतकी सेनाके समक्ष आत्मसमर्पण किया था, जो कि अभीतकका विश्वभरका सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण है।
दूसरी, प्रथम विश्वयुद्धके दौरान भारतीय सैनिकोंने बहादुरीका परिचय देते हुए इसरायलके हाइफा शहरको आजाद कराया था। भारतीय सैनिकोंकी टुकड़ीने तुर्क साम्राज्य और जर्मनीके सैनिकोंसे जमकर भयानक मुकाबला किया था। माना जाता है कि इसरायलकी आजादीका रास्ता हाइफाकी लड़ाईसे ही खुला था, जब भारतीय सैनिकोंने सिर्फ भाले, तलवारों और घोड़ोंके सहारे ही जर्मनी-तुर्कीकी मशीनगनसे लैस सेनाको धूल चटा दी थी। इस युद्धमें भारतके बहुत सारे सैनिक शहीद हुए थे। राजधानी दिल्लीमें आनेवाले इसरायलके शिखर नेतासे लेकर सामान्य टूरिस्ट अब तीन मूर्ति स्मारकमें जाने लगे हैं। इसमें साल २०१८ से इसरायलके ऐतिहासिक शहर हाइफाका नाम जोड़ दिया गया है। तबसे इस चौकका नाम तीन मूर्ति हाइफा हो गया है। वास्तवमें मोदी और नेतन्याहूके संबंध आत्मीय और मित्रवत हो गये थे। इसके चलते दोनों देशोंके आपसी संबंधोंमें सहयोग और तालमेल निरन्तर बढ़ता रहा। महत्वपूर्ण यह है कि भारत-इसरायलकी संस्कृतिमें भी समानता है। हमारे त्योहारोंमें भी समानता है। भारतमें होली मनायी जाती है तो इसराइलमें हनुका मनाया जाता है।
भारतने साल १९९२ में इसरायलके साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थपित किये थे। साल २००३ में तत्कालीन इसराइली प्रधान मंत्री एरियल शेरोन भारतकी यात्रापर आये थे। ऐसा करनेवाले वह पहले इसराइली प्रधान मंत्री थे। भारतके साथ द्विपक्षीय संबंधोंको रक्षा और व्यापार सहयोगसे लेकर रणनीतिक संबंधोंतक विस्तार देनेका श्रेय काफी हदतक उनको ही जाता है। इस बीच केन्द्रमें नरेन्द्र मोदीके नेतृत्ववाली सरकारके २०१४ में सत्तासीन होनेके बादसे दोनों देशोंके रिश्तोंमें नयी इबारत लिखी जाने लगी है। इसराइल साल १९४८ में जन्मके बादसे ही फिलीस्तीनियों और पड़ोसी अरब देशोंके साथ जमीनके स्वामित्वके प्रश्नपर निरन्तर लड़ रहा है। भारतने १९४९ में संयुक्त राष्ट्रमें इसराइलको शामिल करनेके खिलाफ वोट दिया था। यह पंडित नेहरुकी अदूरदर्शिता थी परन्तु फिर भी उसे संयुक्त राष्ट्रमें शामिल कर लिया गया। अगले साल ही भारतने भी इसराइलके अस्तित्वको स्वीकार कर लिया था। याद रखें कि यही भारत और इसराइलके संबंधोंका श्रीगणेश था। भारतने १५ सितंबर, १९५० को इसराइलको मान्यता दे दी। अगले साल अब मुंबईमें इसराइलने अपना वाणिज्य दूतावास खोला। परन्तु भारत अपना वाणिज्य दूतावास इसराइलमें नहीं खोल सका। भारत और इजराइलको एक-दूसरेके यहां आधिकारिक तौरपर दूतावास खोलनेमें चार दशकोंसे भी लंबा वक्त लग गया। मतलब नयी दिल्ली और तेल अवीवमें इसराइल और भारतके एक-दूसरेके दूतावास सन्ï १९९२ में खुले। इसराइल भारतके सच्चे मित्रके रूपमें लगातार सामने आ रहा है। हालांकि फिलस्तीन मसलेके सवालपर भारत आंखें मूंदकर अरब संसारके साथ विगत दशकोंमें खड़ा रहा, परन्तु बदलेमें भारतको वहांसे कभी भी अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। कश्मीरके सवालपर अरब देशोंने सदैव पाकिस्तानका ही साथ दिया। लेकिन इसराइलने हमेशा भारतको हर तरहसे मदद की और साथ खड़ा रहा। खैर, अब इसराइलमें नये प्रधान मंत्री आ गये हैं। परन्तु जैसे कि कहते हैं कि किसी भी राष्ट्रकी विदेश नीति तो स्थिर और स्थायी ही होती है। वह सत्ता परिवर्तनसे नहीं बदलती। इसलिए मानकर चलें कि भारत-इसराइलके बीच मैत्री और आपसी सहयोग सघन और गहरा ही होता रहेगा।