सम्पादकीय

स्वास्थ्यपर ध्यान देनेकी जरूरत


 संजय       

देशमें ज्यादातर लोग कोरोना महामारीके संक्रमणके चलते बीमार हो रहे हैं और यह बात सिर्फ ठंडमें होनेवाले सर्दी-जुकाम जैसी नहीं है। कोरोना महामारीको लेकर भारतमें हालत भयावह बन गये हैं। अमेरिकाकी जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी द्वारा पिछले दिनों जारी आंकड़ोंके अनुसार पूरी दुनियामें इस वायरस संक्रमणके कुल मामले बढ़कर १६४२५४०२३ हो गये हैं और अबतक ३४०४९९० लोगोंकी जान जा चुकी है। संसारमें इस बीमारीसे अमेरिकाके बाद दूसरा सर्वाधिक प्रभावित देश भारत है जहां २५ मार्च २०२० को जब लाकडाउन लगा था तब कोरोना वायरसके ५२५ मामले सामने आये थे और ११ मौतें दर्ज हुई थीं। जब लॉकडाउन ६८ दिनों बाद ३१ मई २०२० को खत्म हुआ तब भारतमें १९०६०९ मामले दर्ज किये जा चुके थे और ५४०८ मौतें हुई थी। आज यह कितना भयावह रूप ले चुका है सबके सामने है। इस बीमारीमें मरीजोंको न तो शहर और न ही गांवमें ठीकसे उपचार मिल पा रहा है। शहरोंमें कुछ हदतक स्थितिको सामान्य कह सकते हैं, परन्तु गांवोंमें स्थिति बहुत ही खराब है। यहां बीमारी और समयपर उपचार नहीं मिलनेके साथ ही गरीबीके चलते लोग बड़ी तादादमें मर रहे हैं। आखिर गांवमें इतनी विकराल स्थिति क्यों बनी। इसको जाननेके लिए हमें केन्द्र एवं राज्य सरकारोंकी स्वास्थ्य नीतिपर नजर डालनी होगी। हालांकि भारतमें स्वास्थ्यका जिम्मा राज्य सरकारोंका है, लेकिन केन्द्र सरकार भी जिम्मेदारीसे बच नहीं सकती तो फिर केन्द्र और राज्यकी सरकारें मिलकर मरीजोंको लाशें बननेसे क्यों नहीं रोक पायीं। हमारे यहां स्वास्थ्य क्षेत्रकी बदहालीका सबसे बड़ा कारण आबादीके लिहाजसे स्वास्थ्य बजटकी उपलब्धता नहीं होनेको माना जा सकता है।

हम अब भी स्वास्थ्यपर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज एक फीसदी खर्च करते हैं। स्वास्थ्यके क्षेत्रमें खर्चके मामलेमें भारत अपने पड़ोसियोंसे भी पीछे है। इस मदमें मालदीव जीडीपीका ९.४ फीसदी, भूटान २.५ फीसदी, श्रीलंका १.६ फीसदी और नेपाल १.१ फीसदी खर्च करता है। दक्षिण एशियाके दस देशोंकी सूचीमें भारत सिर्फ बंगलादेशसे पहले, नीचेसे दूसरे स्थानपर है। भारतकी तुलनामें इलाजपर अपनी कुल आयका दस प्रतिशतसे अधिक खर्च करनेवाले देशोंमें ब्रिटेन भी शामिल है। वहां स्वास्थ्यपर जीडीपीका १.६ फीसदी, अमेरिकामें ४.८ फीसदी और चीनमें १७.७ फीसदी खर्च किया जाता है। केन्द्र सरकारने सेहतको लेकर जिस तरहकी उपेक्षाभरी नीतिको अपना रखा है, उस कारण देशमें स्वास्थ्यपर होनेवाले भारी-भरकम खर्चके चलते हर साल औसतन चार करोड़ भारतीय परिवार गरीबी रेखाके नीचे चले जाते हैं। जब हालात इतने विकट हैं तो सरकारको स्वास्थ्य बजटपर जीडीपीका कमसे कम तीनसे चार फीसदी खर्च करना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। आज भी भारतकी ७० फीसदी आबादी इलाजके लिए निजी क्षेत्रपर निर्भर है। निजी अस्पतालोंपर आश्रित रहनेका मामला तभी खत्म होगा जब सरकार स्वास्थ्य बजटपर अधिक खर्च करे। केन्द्र सरकारको विदेशोंसे आयात होनेवाली मेडिकल उपकरणों, दवाओं आदिकी कीमतोंको कम करनेपर ध्यान देना चाहिए ताकि मरीजोंको सस्ता इलाज मिले। भाजपाने २०१९ के आम चुनावके अपने घोषणापत्रमें वादा किया था कि इस बार वह स्वास्थ्य बजटको न केवल बढ़ायगी, बल्कि दुनियाकी सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना आयुष्मान भारत योजना (पीएमजेएवाई) को अगले चरणतक ले जायगी। इसके लिए हेल्थ फॉर ऑलका नारा भी दिया गया था।

कोरोना कालमें सबसे अहम मानी जानेवाली इस योजनाकी कैसी धज्जियां उड़ायी जा रही हैं, यह सबके सामने है। कई निजी अस्पताल इसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं, जबकि सरकारें बड़े-बड़े फुल पेजके विज्ञापन निकालकर मरीजों और उनके परिजनोंसे यह दावा कर रही हैं कि सबको पांच लाखतकका इलाज नि:शुल्क मिलेगा। सरकार आवामको वाकईमें स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना चाहती है तो सबसे पहले इस सरकारको बुनियादी स्वास्थ्यके ढांचेको मजबूत करनेकी आवश्यकता है। बीते साल आयी विश्व स्वास्थ्य संघटन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्टके आंकड़े सरकारकी नीति और नियतको खुलकर सामने रख देते हैं। इसके मुताबिक भारतमें स्वास्थ्यके मदमें होनेवाले खर्चका ६७.७८ प्रतिशत लोगोंकी जेबसे ही निकलता है, जबकि इस मामलेमें वैश्विक औसत १७.३ प्रतिशत ही है। रिपोर्टमें यहतक कहा गया है कि आधे भारतीयोंकी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओंतक पहुंच ही नहीं है। डब्ल्यूएचओकी इस रिपोर्टमें बताया गया है कि भारतमें लगभग २३ करोड़ लोगोंको २००७ से २०१५ के दौरान अपनी आयका दस फीसदीसे अधिक पैसा इलाजपर खर्च करना पड़ा था। यह संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनीकी संयुक्त आबादीसे भी अधिक था। इन आंकड़ोंसे साफ अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकार भारतके आमजनके स्वास्थ्यके प्रति कितनी बेपरवाह है। ग्रामीण क्षेत्रोंमें स्वास्थ्य बदहालीकी गंभीर समस्याओंके साथ ही वहां डॉक्टर, अनिवार्य स्टाफ और आवश्यक सुविधाओंपर बात करें तो पता चलता है कि बदहाली चहुंओर पसरी है। स्वास्थ्य मामलोंके जानकारोंकी मानें तो सरकारने ग्रामीण स्वास्थ्यके ढांचेके नामपर अस्पतालों और हेल्थ सेंटरोंकी इमारतें तो खड़ी कर दी हैं, लेकिन इनको क्रियाशील बनानेके लिए मानव संसाधनोंकी खासी कमी है।

सर्वविदित है कि भारतमें डाक्टरोंकी भारी कमी है। इस कमीके चलते ग्रामीण अंचलमें कोरोना महामारीके कारण संकटकी स्थिति निर्मित हो गयी थी। भारतमें कोरोनाने महामारीका रूप ले लिया था और हमारे पास इलाजके लिए पर्याप्त डाक्टरतक नहीं थे। देशके प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रोंपर डाक्टरोंकी करीब ४१.३२ फीसदीकी कमी है। यानी सरकारकी तरफसे कुल १५८४१७ पद स्वीकृत हैं जिनमेंसे ६५४६७ अब भी खाली हैं। सरकार सहकारिता आंदोलनके प्रयासोंसे सीख लेकर निजी अस्पतालोंपर एक मजबूत निगरानी तंत्रको खड़ा किया जाय ताकि बीमारको समयपर सरल, सहज और सस्ता इलाज मिल सके।