बाबा हरदेव
गुरुका ध्यान करके किया हुआ कर्म ही प्रधान हो जाता है। कई बार इनसान चालाकी भी कर जाता है, सोच लेता है कि आज भले मेला देखो, वहां हाजिरी तो लग ही जायगी। यह दिमागकी चालाकी है दिमागी खोज है। दिमाग जो सोचता है, उसमें बनावट हुआ करती है। वास्तवमें भक्ति दिमागका विषय नहीं, बल्कि हृदयका विषय है। जो अंदर-बाहरसे एक होकर निर्मल भावसे भक्तिमें लग जाते हैं, वास्तवमें उनका ही मुख उजला होता है तथा वे ही हर प्रकारके सुख प्राप्त करते हैं। सेवाका महत्व सेवादार ही समझता है। वही जानता है कि भक्ति क्या है। भक्त एक खिला हुआ फूल होता है और भक्ति उसकी महक हुआ करती है। भक्त हमेशा अर्पित भावसे जीवन व्यतीत कर देता है। इस निरंकार परमात्माके आगे सर्वस्व अर्पण कर देता है। जो अपने शीशको अर्पण कर देता है, उसकी अपनी पहचान बाकी रह नहीं जाती। वह जिसको शीश देता है, उस जैसा हो जाता है। भक्तकी यह भावना होती है कि अपने होमे रूपी शीशेको अर्पित कर देता है। इसको अपने पास नहीं रखता। महापुरुषों अहंकारमें यह नहीं कहते कि मैं करनेवाला हूं, मैं यह सब करता हूं, मेरे पास बड़ी विद्या है, मैं बहुत नयी चीजें बना लेता हूं। मेरे पास ऐसी अक्ल है कि मैं कईयोंको हिलाकर रख सकता हूं। भक्त महापुरुष सेवा करके भी कर्ता भाव नहीं रखते। सेवाका कर्ता खुदको न मानकर प्रभुकी कृपा मानते और जानते हैं। गुरमुख महापुरुष जो भी कार्य करते हैं हमेशा अर्पण भावसे करते हैं। गुरमुख महापुरुष जो भी कार्य करते हैं, यही मानते हैं कि यह किस प्रकार भले काममें लग रही है और मैं कौन हूं करनेवाला। दातार तू ही अवसर प्रदान कर रहा है, जो यह सेवाका मौका मिल रहा है। सेवा करते हुए मेवा भी तभी प्राप्त होता है, जैसे कहा है हृदयसे जो सेवा करता है, वह कोई स्वार्थ या लालसा रखे बिना ही इस सेवाके मार्गपर चलता है। ध्यान रहे, भक्ति तो संसार भी कर रहा है, लेकिन परमात्माके बिना जाने जो भक्ति की जाती है, उसका कोई लाभ नहीं मिलता। भक्तिका आरंभ ही तब होता है, जब प्रभुको पाकर इसके साथ नाता जोड़ लिया जाता है। यदि हमारे जीवनमें कोई आया ही नहीं तो हम प्यार किससे करेंगे। जैसे किसी मांकी गोदमें यदि बच्चा आया ही नहीं तो वह प्यार किससे करेगी। इसका स्नेह किसके साथ बनेगा। इस प्यार और मोहके लिए गोदमें बच्चा आना जरूरी है। जैसे बिजलीका कनेक्शन ही यदि हमारे घरतक नहीं आया तो हम चाहे कितने ही बल्ब खरीद लें।