सम्पादकीय

संसदीय कार्यवाहीमें बाधक विपक्ष


डा. श्रीनाथ सहाय   

लोकतंत्रमें सरकारका विरोध और उसकी कमियोंको उजागर करनेकी जिम्मेदारी विपक्ष की होती है। लेकिन कुछ तो संसदीय दायित्व होंगे कि संसदकी कार्यवाही चलती रहे। महत्वपूर्ण मुद्दों और विषयोंपर सार्थक बहसके बाद सरकारका जवाब देशके सामने स्पष्टï हो। संसदमें विधेयक पारित किये जायं अथवा संशोधन किये जायं। यह संसद और सांसदोंकी बुनियादी भूमिका है। संसद हंगामों और आपत्तिजनक नारेबाजीका अड्डा नहीं है। संसद देशकी सर्वोच्च पंचायत है और भारतकी संप्रभुताकी प्रतीक है। पिछले पूरे सप्ताहके दौरान सिर्फ मंगलवारको उच्च सदनमें उस समय चार घंटे सामान्य ढंगसे कामकाज हो पाया जब कोविड-१९ के कारण देशमें उपजे हालातको लेकर, सभी दलोंके बीच आपसमें बनी सहमतिके आधारपर चर्चा की गयी। यदि यही कुछ चलता रहा तो आम आदमीके दुख-दर्द और मुद्दोंका कौन उठायगा? हमने कथित संचार घोटालेके दौरमें संसदकी कार्यवाहीको लगातार १३ दिनतक स्थगित होते भी देखा है। तब संचारमंत्री सुखराम थे और पीवी नरसिंहराव प्रधान मंत्री थे। उस राजनीतिको भी नजीर नहीं माना जा सकता। देशके आर्थिक संसाधनों और बेशकीमती समयकी बर्बादी तब भी हुई थी। तब विपक्षमें भाजपा थी, लेकिन बदलेकी भावनाके मद्देनजर आज कांग्रेस और विपक्ष वही राजनीति संसदमें नहीं कर सकते। संसद ऐसी तमाम मानसिकताओंसे ऊपर है। संसदकी एक घंटा कार्यवाहीपर करीब १.५ करोड़ रुपये खर्च होते हैं। विपक्ष खुद गणना कर ले कि नौ दिनोंमें देशका कितना पैसा बर्बाद कर दिया गया। यह पैसा आम आदमीका करके रूपमें दिया हुआ है। संसद भवनके रजिस्टरपर हस्ताक्षर करते ही सांसदका रोजानाका भत्ता तय हो जाता है। मोटी तनख्वाह और सुविधाएं अलग हैं। क्या सांसदकी भूमिका यहींतक सीमित है? संसद सदस्य देशमें गरीबी, मंहगी और कोरोनाकी मारसे त्रस्त जनताके दर्दसे बेखबर नहीं हैं फिर भी नेता हैं कि संसद चलानेको तैयार नहीं हैं। संसदमें हर दिन हंगामेकी भेंट चढऩेका दौर बदस्तूर जारी है।

संसदके भीतर सांसद पोस्टर, बैनर और तख्तियां लहराते हुए और अध्यक्षके आसनके पास आकर हंगामा बरपा रहे हैं। मंत्रीके हाथसे कागज छीनकर, उसे चिंदी-चिंदी कर, आसनकी ओर उछाल रहे हैं। राज्यसभाके सभापति एम. वेंकैया नायडूने उच्च सदनमें लगातार हो रहे हंगामे और व्यवधानपर क्षोभ प्रकट करते हुए, सूचना प्रौद्योगिकी और संचारमंत्री अश्विनी वैष्णवके हाथोंसे एक विपक्षी सदस्य द्वारा बयानकी प्रति छीन उसके टुकड़े हवामें लहरानेकी घटनाको ‘संसदीय लोकतंत्रपर हमलाÓ करार दिया। उन्होंने कहा कि कोविड महामारीकी विभीषिकाके बीच यह सत्र आयोजित हुआ है और जनतासे जुड़े कई अहम मुद्दोंपर चर्चा की जानी है। उन्होंने सदस्योंके सामने कई सवाल भी उठाये और उनसे इरपर चिंतन करनेको कहा। लोकसभामें भी कागज फाडऩे और उछालनेकी घटना घटी है। पोस्टर, बैनर तो संसदमें निषिद्ध हैं। फिर कैसे सदनमें पहुंच जाते हैं? क्या उनकी कोई चौकिंग नहीं है? ऐसे असभ्य, अभद्र आचरणसे विपक्षको कौन-सा न्याय मिल रहा है? राज्यसभामें नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खडग़ेने तो यहांतक धमकी दी है कि यदि जासूसी कांडकी न्यायिक जांचके लिए सरकार तैयार नहीं हुई तो पूरा मॉनसून सत्र ही धुल सकता है। नुकसान किसका होगा? दूसरी तरफ लोकसभामें स्पीकर ओम बिरला हंगामा करनेवाले सांसदोंपर बरसे हैं और फटकार भी लगायी है। स्पीकरने साफ कहा है कि सदनमें हंगामा करने और कार्यवाहीको बाधित करनेके लिए जनताने सांसदोंको नहीं चुना है। वे लोगोंकी समस्याओंको उठायें और मुद्दोंपर बहस करें। चिकनी मानसिकता है, लिहाजा कोई रास्ता दूर-दूरतक दिखाई नहीं दे रहा है। प्रधान मंत्री मोदीने अपने सांसदोंको निर्देश दिये हैं कि वह हंगामाखेज विपक्षको बेनकाब करें और विकासके कार्योंको लोगोंतक पहुंचायें। दूसरी तरफ विपक्षने एक साथ ‘कामरोको प्रस्तावÓ के नोटिस देकर सरकारको बाध्य करनेकी रणनीति तय की है। दोनों पक्षोंका निष्कर्ष होगा कि संसदका यह सत्र हंगामों और स्थगनकी बलि चढ़ जायगा। जवाबदेहीसे सत्ता और विपक्ष दोनों ही कन्नी काट रहे हैं। अभीतक तीन-चार विधेयक ही ध्वनिमतसे पारित किये जा सके हैं। उनपर संसदमें कोई बहस नहीं हो सकी। क्या संसदका मंच सिर्फ अखाड़ेबाजीके लिए बनाया गया है? जासूसी कांडके अलावा, किसान आंदोलन, वैश्विक महामारी कोरोनाके कारण अर्थव्यवस्थाका कचूमर, नतीजतन बेरोजगारी और महंगी, देशके कई हिस्सोंमें जल-प्रलय, अंतरराष्टï्रीय विवाद और संकट आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिनपर संसद विमर्श नहीं करेगी तो फिर संसदका औचित्य ही क्या है?

यह भ्रामक धारणा है कि संसदकी कार्यवाही चलाना सरकारका ही दायित्व है। सरकार विधेयक तैयार कराती है, प्रश्नोंके जवाब भी देती है, लेकिन कार्यवाही तभी संभव है, जब सरकार और विपक्षमें समन्वय हो। चूंकि सभी सांसद, अंतत:, देशकी जनताके प्रति जवाबदेह हैं, लिहाजा सर्वोच्च पंचायत भी साझा तौरपर चलायी जानी चाहिए, लेकिन मौजूदा हालात ऐसे नहीं लगते कि दोनों पक्षोंके बीच समझौता होगा और देशहितमें संसद चलायी जा सकेगी। दरअसल, कांग्रेसने तय कर लिया है कि संसदको किसी न किसी तरह बाधित किये रखना है, ऐसेमें वह हर छोटी-बड़ी घटनाको तूल दे रही है और सदनके कामकाजको रोक रही है। इसमें उसे दूसरे विपक्षी दलोंका भी साथ मिल रहा है। कांग्रेसको यह समझना चाहिए कि संसदमें शोरगुल करनेसे देशकी जनताके बीच उसके खिलाफ नकारात्मक संदेश जा रहा है। इस तरह वह अपनी जगहंसाई तो करा ही रही है देशके विकासके रास्तेमें भी रोड़ा अटका रही है। लोकतंत्रके लिए यह शुभ संकेत नहीं कि एक दल अपनी हठधर्मिताके कारण संसदको असहाय कर दे। अब जब संसदका मानसून सत्र खत्म होनेमें ज्यादा दिन नहीं बचे हैैंं तब कांग्रेस सहित विपक्षको गंभीरतासे देशकी जनताके बारेमें सोचना चाहिए। उस जनताके बारेमें सोचना चाहिए, जो पिछले लगभग डेढ़ सालसे कोरोनाका दंश झेल रही है। कोरोनाको लेकर संसदमें कोई आवाज सुनायी नहीं दे रही है। वहीं जनहितमें लंबित पड़े जरूरी विधेयक जल्दसे जल्द पारित हो सकें एवं देशहितमें जरूरी फैसले लिये जा सकें, इस बारेमें विपक्षको जरूर सोचना चाहिए।