सम्पादकीय

प्रेमचन्दका साहित्यिक अवदान


 प्रणय कुमार

समन्वय एवं लोकमंगलकी भावना एवं साधना हमारा सार्वकालिक आदर्श रहा है। परंतु बीते कुछ दशकोंसे हमारे सार्वजनिक विमर्श और विश्लेषणका ध्येय जीवन और जगतमें व्याप्त एकत्वको खोजनेकी बजाय और विभेद पैदा करना हो चला है। परस्पर विरोधी स्थितियों-परिस्थितियोंके मध्य समन्वय एवं संतुलन साधनेकी बजाय संघर्ष उत्पन्न करना हो गया है। निहित स्वार्थों एवं दलगत राजनीतिके कारण हम समाजको अलग-अलग वर्गोंमें बांटते चले जा रहे हैं। विभाजनकारी मानसिकता एवं भेद-बुद्धिकी पराकाष्ठा तब और देखनेको मिलती है, जब हम अपने महापुरुषों, स्वतंत्रता-सेनानियों, साहित्यकारों और कलाकर्मियोंको भी जाति-वर्ग-संप्रदाय विशेषसे जोड़कर देखते हैं। संत, साहित्यकार, समाज-सुधारक या विविध क्षेत्रके मान्य महापुरुष किसी जाति-वर्ग या संप्रदाय विशेषका प्रतिनिधित्व नहीं करते। वह सबके और सब उनके होते हैं। इसीमें उनका वैशिष्ट्य है। परंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह कि बौद्धिकता एवं वर्गीय-जातिगत चेतनाके नामपर आज तमाम साहित्यकारों-मनीषियोंको भी संकीर्ण एवं संकुचित दायरेमें आबद्ध किया जा रहा है।

हिंदी कहानी एवं उपन्यासके शिखर-पुरुष मुंशी प्रेमचंद भी ऐसे विमर्श एवं विवेचनाके शिकार हुए। उनकी जयंतीपर यह विचार न्यायोचित होगा कि कथित बौद्धिकता एवं वर्गीय चेतनाके नामपर उनके सृजन एवं सरोकारोंको लेकर चलनेवाले खंड-खंड चिंतनपर हम अविलंब विराम लगायें और उनके विपुल रचना-संसारको समग्रतामें स्वीकार या आकलित-अवलोकित करें। कोई भी साहित्यकार देशकाल एवं परिस्थितियोंकी उपज होता है। वह अपने देखे-सुने गये यथार्थका कुशल चितेरा होता है। उसका उद्देश्य अपनी रचनाओंके माध्यमसे पाठकोंका रंजन और उनकी चेतनाका परिष्करण एवं उन्नयन होता है। प्रेमचंद भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनकी कतिपय कहानियोंको आधार बनाकर उन्हें दलित विरोधी या ब्राह्मïण विरोधी बताना, उन्हें संप्रदाय विशेषका पैरोकार या विरोधी सिद्ध करना सरासर अन्याय है। चाहे उनकी कहानी ठाकुरका कुंआ, पूसकी रात, दूधका दाम, ईदगाह या पंच परमेश्वर हो, चाहे उनके उपन्यास रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प और गोदान आदि। सभीमें उन्होंने समाजके पीडि़त जनोंके प्रति गहरी सहानुभूति प्रकट की है और न्याय, समता एवं भ्रातृत्वपर आधारित समाज-व्यवस्थाकी पैरवी की है। उनका यथार्थोन्मुखी आदर्शवाद भारतीय चिंतनकी सुदीर्घ परंपरासे उपजा जीवन-दर्शन है। जीवनके संघर्षों-थपेड़ोंसे जूझता मन अंतमें बुराईपर अच्छाई, असत्यपर सत्य और अशुभपर शुभकी विजय देखकर स्वाभाविक प्रसन्नताकी अनुभूति करता है और प्रेमचंदकी अपार लोकप्रियता एवं स्वीकार्यताका यह एक प्रमुख आधार है। यथार्थ-चित्रणके नामपर आदर्श एवं लोकमर्यादाकी नितांत उपेक्षा एवं अवमानना भारतीय परंपरा और कदाचित प्रेमचंदको भी स्वीकार नहीं। समाजको सही दिशामें आगे बढ़ानेमें सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक आदर्शों एवं परंपराओंकी अपनी भूमिका होती है और हर समाज अपने लिए कुछ आदर्शों एवं शाश्वत जीवनमूल्योंकी रचना एवं स्थापना करता है। समाजके व्यापक एवं समग्र हितोंकी रक्षाके लिए उनका बने रहना अत्यंत आवश्यक होता है। खंडन-मंडनसे अधिक सार्थक मौलिक उद्भावनाएं होती हैं। और प्रेमचंद अपनी साहित्यिक जिम्मेदारी और सामाजिक आवश्यकताको भली-भांति समझते थे।

उनकी जिस यथार्थवादी रचना कफनने पात्र घीसू और माधोकी संवेदनहीनता और उसकी जातिके उल्लेखको आधार बनाकर जिन कथित दलित चिंतकों-विचारकोंने प्रेमचंदको दलित विरोधी करार दिया है, उन्हें यह समझना-विचारना चाहिए कि उनकी इस कहानीका उद्देश्य ही समाजको यह समझाना है कि अभाव एवं गरीबी मनुष्यकी सहज संवेदनाको कुंठित और भोथरी कर देती है और वह अपनोंके प्रति भी निर्मम और निष्ठुर हो उठता है। जिन दलित चिंतकोंने स्वानुभूतिकी पैरवी करते हुए सहानुभूतिको खारिज किया है, वे शायद भूल गये कि मनुष्यकी संवेदनाका फलक व्यापक और विस्तृत होता है। जाति विशेषकी वेदना-व्यथाको संवेदनाके धरातलपर अनुभूत करनेके लिए जन्मना उसी जातिका होना अनिवार्य नहीं। कहते हैं कि क्रौंच-युगलमेंसे एक जब बाणसे बिद्ध हुआ तो संसारके प्रथम कवि महर्षि वाल्मीकिके हृदयमें जागृत करुणासे अनायास ही प्रथम लोक प्रस्फुटित हुआ। मनुष्यकी संवेदनाका विस्तार तो मूक-निरीह पशु-पक्षियोंसे लेकर संपूर्ण चराचर जगततक होता है। फिर भला यह कैसे संभव है कि हाड़-मांससे बने अपने ही तरहके जातितर मनुष्योंकी पीड़ाके प्रति वह संवेदनहीन बना रहे, बल्कि भारतीय ज्ञान-परंपरामें तो संवेदनाका यह विस्तार ही जीवन है और संकीर्णता ही मृत्यु है।

साहित्यकार नग्नसे नग्न सत्यको भी सौंदर्यमें आवेष्टित कर प्रस्तुत करता है। वह अपने ढंगसे सत्यं शिवम सुंदरमकी पुन: स्थापना करता है। प्रेमचंदने भी यही किया। उनकी कतिपय रचनाओं एवं देशकालको आधार बनाकर उन्हें इस या उस खेमेमें बांटकर देखना उनके साहित्यिक अवदानको कम करके आंकना है। अपनी मान्यताओं, विश्वासों एवं पूर्वाग्रहोंके पृष्ठ-पोषणके लिए किसीको वामपंथी या दक्षिणपंथी घोषित करनेका हालिया चलन सत्यकी राह खोजती बुद्धि एवं चेतनाको कमजोर करती है। शास्त्रार्थकी सनातन परम्परावाले देशमें विमर्श और विश्लेषण तो अबाध जारी रहना चाहिए, परन्तु उसके मूलमें जोडऩेका भाव एवं ध्येय होना चाहिए, न कि तोडऩेका।

ऐसे तमाम प्रयासों, आलोचनाओं या विमर्शोंसे प्रेमचंदकी महत्ता या प्रासंगिकता कम नहीं हो जाती। वह गांव एवं कृषक संस्कृतिके उद्गाता हैं। उनका साहित्य अपने युग एवं समाजका प्रतिबिंब है। उनकी रचनाओंमें जन-जनकी पीड़ा एवं संघर्षको वाणी मिली है। वे स्वराज और स्वाधीनताके महागाथाकार हैं। कथाकार होते हुए भी उनमें महाकाव्यात्मक चेतनाके दर्शन होते हैं। देश, समाज, संस्कृतिके सरोकारोंसे लेकर व्यक्ति-व्यक्तिकी पीड़ा एवं अंतद्र्वंद्वको उन्होंने मुखरित किया है। उनकी कथावस्तु, पात्र एवं संवाद हमें अपने जीवनसे जुड़े जान पड़ते हैं। उनका राष्ट्रभाव, संस्कृति-भाव, शोषण-दमनसे मुक्ति-भाव, संप्रदायोंमें एकताभाव, कृषि-संस्कृति, भारतीयता एवं लोकचेतनाकी रक्षाका भाव, उन्हें न केवल विशिष्ट बनाता है, अपितु कालजयी और जन-मनका सम्राट भी बनाता है। सर्व साधारणके प्रति उनकी घनीभूत संवेदना और करुणा मनुष्यको मनुष्यसे जोडऩेका एक सक्तल सद्प्रयास है। प्रसिद्ध साहित्यकार एवं समालोचक डा. रामविलास शर्माके शब्दोंमें प्रेमचंद वाल्मीकि, वेदव्यास, तुलसीदासकी परंपरामें आते हैं, इसलिए उनका साहित्य भी इन महाकवियोंके समान युगों-युगोंतक सार्थक बना रहेगा और अपने समयके मनुष्य, समाज और देशकी आत्माका उन्नयन करता रहेगा, उसे अंधकारसे प्रकाशकी ओर लाता रहेगा और अपनी प्रासंगिकताको अखंड रूपमें बनाये रखेगा, क्योंकि मानवीय उत्कर्षके अतिरिक्त साहित्यकी अन्य कोई सार्थकता नहीं हो सकती।