हृदयनारायण दीक्षित
प्रकृति सदासे है। परिवर्तनशील है। अखंड सौभाग्यवती भी है। प्रकृतिका एक-एक अंश गतिशील है। प्रकृतिके अणु और परमाणु न केवल गतिशील है, बल्कि नाच रहे हैं। ऋग्वेदमें सृष्टिके उद्भवका सुंदर उल्लेख है।
चौमासाके चार माह व्रत उपासनाका सुंदर अवसर है। विद्वानोंने १२ महीनोंमेंसे चार महीनेका दायित्व, कर्तव्य और आनन्दको एक अवधिमें लानेका प्रयास किया है। हिन्दू संस्कृतिमें आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन मास पवित्र माने गये हैं। यह आषाढ़ शुक्ल एकादशीसे प्रारम्भ होते हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशीतक चलते हैं चार माहमें जीवनको एक नया आयाम मिलता है। तप और साधनाको बल मिलता है। प्रकृति सदासे है। परिवर्तनशील है। अखंड सौभाग्यवती भी है। प्रकृतिका एक-एक अंश गतिशील है। अनेक विद्वान इसे सांस्कृतिक दृष्टिसे देखते हैं। प्रकृतिके अणु और परमाणु न केवल गतिशील है, बल्कि नाच रहे हैं। ऋग्वेदमें सृष्टिके उद्भवका सुंदर उल्लेख है। बहुत अध्ययन योग्य एक मंत्र है। इसमें प्रश्न है कि पहले था क्या? न सत् था, न असत् था, न रात्रि थी, न दिन था। तब क्या था? यह एक आश्चर्यजनक जिज्ञासा है। ऋषि बताते हैं- ‘अनादी वातं स्वधया तदेकं।Ó उस वातावरणमें वायु नहीं है, लेकिन वह एक अपनी क्षमताके आधारपर ‘स्वधया तदेकंÓ, सांस ले रहा है। वैदिक साहित्यमें असत् और सत्का अर्थ सत्य और झूठ नहीं है। आगे बताते हैं कि असत्से सत् प्रकट हुआ। सृष्टिके पूर्व असत् है। असत्का अर्थ है अव्यक्त। उससे व्यक्त प्रकट हुआ। जब यह व्यक्त हुआ। तब ऋषि बताते हैं कि हे देव! आप बहुत नाचे। ग्रिफ्थने ऋग्वेदके इस अंशके अनुवादमें ‘डांसिंगÓ शब्दका प्रयोग किया है। सत् प्रकट हुआ। देवता नाचने लगे। अस्तित्व सदासे है। इसका आदि और अंत नहीं है। यह सदासे है, सदा रहनेवाला है। इसके भीतर चेतनाका प्रवाह है। यह प्रकृतिके प्रत्येक अंशमें व्याप्त है। प्रकृति व्यक्त होती है। खिलती है, कभी-कभी अदृश्य होती है। कभी दृश्य होती है, कभी व्यक्त होती है, कभी अव्यक्त होती है। लेकिन यह एक ही चेतना है। यही सृष्टिके सभी रूपोंमें व्याप्त है।
ऋग्वेदमें इसके लिए एक सुंदर मंत्र/काव्यमें कहते हैं- ‘इन्द्रर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव:Ó। यह एक इंद्र है। यही सबके भीतर है। भारतमें अपनी बात कहनेकी और काव्यके रूपमें उपस्थित करनेकी एक विशिष्ट परंपरा है। ऋषि कहते हैं-‘इन्द्रर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव:Ó। यह एक ही इंद्र है, जो प्रत्येक रूपमें, रूप-रूप प्रतिरूप हो रहा है। प्रकृति अखंड सौभाग्यवती है और रूपवती भी है। हमारे सामने रूप है। रूपके भीतर एक ही परम सत्ता है। उपनिषदोंमें भी यही बात कही गयी है- ‘अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव:Ó। यह एक ही अग्नि सभी रूपोंमें रूप-रूप प्रतिरूप दिखायी पड़ रही है। यही बात भिन्न-भिन्न रूपोंके लिए अपनी परंपरामें हजारों वर्षसे चली आ रही है। सर्वत्र एक ही चेतना है। कठोपनिषदमें वायुके लिए कहते हैं-‘वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव:।Ó एक ही परम चेतना विभिन्न रूपोंमें प्रकट हुआ करती है। यह हमको सत्ï-चित्ï-आनन्दसे भर देती है। जहां-जहां गतिशीलता है, वहां-वहां समय होता है। भारतमें छह प्राचीन दर्शन हैं। उसमेंसे एक वैशेषिक है। वैशेषिक दर्शनके दृष्टा ऋषिने कालको, द्रव्य बताया है। विज्ञानके लोग आश्चर्यचकित होंगे कि समय द्रव्य कैसे हो सकता है? यहां आत्मा भी द्रव्य है और काल भी। चरक संहितामें भी आत्मा एवं कालको द्रव्य बताया गया है। अथर्ववेदमें काल सूक्त है। भृगुका गाया हुआ। बताते हैं कि कालमें मन है, कालमें प्राण है, कालमें मृत्यु है, कालमें जीवन है, कालमें फूल खिलते हैं, बीज बनते हैं। कालकी महिमा बहुत व्यापक बतायी गयी है। पहले गति, फिर काल। कालमें फिर नया रूप। रूप एक है। रूप दिक्कालमें ऋतु है। ऋतुओंका आनन्द है। प्रत्येक ऋतुके गीत हैं, अपने अनुष्ठान हैं। प्रत्येक ऋतुके अपने कर्मकांड भी हैं। ऋतु प्रकट चेहरा है। इसके पीछे अंतर्निहित है पूरे ब्रह्मïांडका संविधान। उसका नाम है ऋत। ब्रह्मïांडको अंग्रेजी भाषामें कहें तो कई शब्द हैं। कॉसमॉस, यूनिवर्स। ऋत् प्रकृतिका कॉन्स्टिट्यूशन है। ऋतका चेहरा है ऋतु। हमारे लोकजीवनमें ऋत यानी प्रकृतिका संविधान लागू है।
ऋतुएं आती हैं। अपने-अपने ढंगसे आती हैं। प्रकट अस्तित्वका कोई भी नाम रख सकते हैं। प्रकृति रख सकते हैं। ब्रह्मïांड रख सकते हैं। भगवान रख सकते हैं। शिव रख सकते हैं। सारे शब्द भारतकी प्रज्ञा, रीति, प्रीति, भारतकी संस्कृतिका भाग हैं। सालमें चार महीने हमारे पूर्वजोंने अलगसे निकाले। यह महीने पुराणोंमें, विभिन्न प्राचीन आख्यानोंमें सब जगह मिलते हैं। इसमें कुछ कर्म करणीय हैं। कुछ अकरणीय। अकरणीयकी सूची ध्यानसे देखने योग्य है। इन चार महीनोंमें मंगल कार्य नहीं हो सकते। विवाह नहीं हो सकते। इस सूचीका निर्माण तत्कालीन परिस्थितियोंके आधारपर हुआ है। इसी चौमासामें वर्षाका अपना आनन्द है। आकाशसे मेघ धरतीतक आते हैं। धरती माताकी प्रीति उन्हें नीचे खींच लेती है। वर्षा अपनी मस्तीमें आती है। मस्तीमें गीत भी उगते हैं। ज्यादा वर्षामें कष्ट भी होता है। ऐसे दिनोंमें यात्रा सुखदायी नहीं होती। ऐसे दिनोंमें हमारे शरीरका पाचन तंत्र कुछ विश्रामकी स्थितिमें चला जाता है। ऐसेमें एक ही बार भोजन करना चाहिए। हमारे पूर्वज वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे समृद्ध थे। वैज्ञानिक विचार दृष्टिके आधारपर बहुत पहले ही बता दिया गया था कि इन-इन महीनोंमें यह करना है, यह नहीं करना है। एक सूची करणीय और एक सूची अकरणीय। भारतीय जीवन दृष्टि आनन्द गोत्री है। हम अपने पूर्वजोंके अनुभव सिद्ध ज्ञानके आधारपर अपना जीवन संवार सकते हैं। चातुर्मासकी व्यवस्था हमारे लिए उपयोगी है।
भारतका लोकजीवन आनन्दधर्मा है। लोक और शास्त्रमें यहां कोई द्वंद्व नहीं है। शास्त्र लोकसे ही सामग्री लेता है। उसे अपने अनुभवोंसे पकाता है। उसके अंत:करणमें प्रवेश करता है शास्त्र। फिर करणीय और अकरणीय तंत्रकी सूची बनाता है। यही काम लोक अपने ढंगसे करता है। लोक और शास्त्र दोनों एक ही माता-पिताके पुत्र हैं। कौटिल्यने अर्थशास्त्रके शुरुआतमें ही ‘लोकायतÓ शब्दका इस्तेमाल किया है। चौमासा जैसे अन्य सारे अनुष्ठान लोकमें प्रचलित हैं और शास्त्र द्वारा अनुमोदित भी हैं, इनसे हमारा जीवन आनन्दमगन होता है। ऋग्वेदके अंतिम सूक्तमें ऋषि कहता है- ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्ï। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥Ó हम साथ चलें, साथ बोलें, साथ उठें, साथ सांस्कृतिक अनुष्ठान और हमारे-आपके कर्म सब एक तरह हों। ऋषि आगे कहते है- ‘देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासतेÓ। हमारे पूर्वज भी यही करते आये हैं। यह एक प्रवाह है। हम वही करते हैं। हमारे पिता भी यही करते थे। उनके पिता भी यही करते थे। यही सनातन परम्परा है।