सम्पादकीय

भावी पीढ़ी होगी प्रोत्साहित


डा. नीलम महेंद्र      

वर्ष २०२१ में भारतको स्वराज प्राप्त हुए ७४ वर्ष पूर्ण हुए और हम स्वतंत्रताके ७५वें वर्षमें प्रवेश कर रहे हैं। इस अवसरपर देश स्वाधीनताका अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे समयमें प्रधान मंत्री उत्तर प्रदेशके अलीगढ़में राजा महेंद्र प्रताप सिंह राजकीय विश्वविद्यालयकी आधारशिला रखते हैं। भारत जैसे देश जो वोटबैंककी राजनीतिसे चलता है वहां प्रधान मंत्रीके इस कदमको उत्तर प्रदेशके आगामी विधानसभा चुनावोंसे प्रेरित बताया जा रहा है। फिलहाल कारण जो भी हो लेकिन कार्य निर्विवाद रूपसे सराहनीय है। क्योंकि हमने यह आजादी बहुत त्याग और अनगिनत बलिदानोंसे हासिल की है। न जाने कितने वीरोंने अपनी जवानी अपनी मातृभूमिके नाम कर दी। न जाने कितनी माताओंने अपने पुत्रोंको अपने ऋणसे मुक्त करके मातृभूमिके ऋणको चुकानेके लिए उनके मस्तकपर तिलक लगाकर फिर कभी न लौटकर आनेके लिए भेज दिया। न जाने कितनी सुहागिनोंने क्षत्राणियोंका रूप धरकर हंसते-हंसते अपने सुहागको भारत माताको सौंप दिया। स्वाधीनताके उस यज्ञको न जाने कितने चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह सुखदेव लाला लाजपत रायने अपने प्राणोंकी आहुतिसे प्रज्वलित किया। लेकिन जब १५ अगस्त, १९४७ में वह ऐतिहासिक क्षण आया तो ऐसे अनेकों नाम मात्र कुछ एक नामोंके आभामंडलमें कहीं पीछे छिप गये या छिपा दिये गये। इतिहास रचनेवाले ऐसे कितने नाम खुद इतिहास बननेके बजाय मात्र किस्से बनकर रह गये। राजा महेंद्र प्रताप सिंह ऐसा ही एक नाम है। लेकिन अब राजा महेंद्र प्रताप सिंहके नामपर एक विश्वविद्यालय बनानेकी पहलने सिर्फ आजादीके इन मतवालोंके परिवारवालोंके दिलमें ही नहीं, बल्कि देशभरमें एक उम्मीद जगायी है कि उन सभी नामोंको भारतके इतिहासमें वह सम्मानित स्थान दिया जायगा जिसके वह हकदार हैं।

कहते हैं कि किसी भी देशका इतिहास उसका गौरव होता है। हमारा इतिहास ऐसे अनगिनत लोगोंके उल्लेखके बिना अधूरा है जिन्होंने आजादीके समरमें अपना योगदान दिया। राजा महेंद्र प्रताप सिंह ऐसा ही एक नाम है जिनके मनमें बहुत ही कम आयुमें देशको आजाद करानेकी अलख जल उठी थी। मात्र २७ वर्षकी आयुमें वे दक्षिण अफ्रीकामें गांधी जीके अभियानमें उनके साथ थे और २९ वर्षकी आयुमें अफगानिस्तानमें भारतकी अंतरिम सरकार बनाकर स्वयंको उसका राष्ट्रपति घोषित कर चुके थे। अंग्रेजी हुकूमतके खिलाफ उन्हें बड़ा खतरा मानते हुए तत्कालीन ब्रिटिश सरकारने उन्हें देशसे निर्वासित कर दिया था और वे ३१ साल आठ महीनोंतक दुनियाके विभिन्न देशोंमें भटकते रहे। इस दौरान वे विभिन्न देशोंकी सरकारोंसे भारतकी आजादीके लिए समर्थन जुटानेके कूटनीतिक प्रयास करते रहे। राजा महेंद्र प्रताप उन सौभाग्यशालियोंमेंसे एक थे जो स्वतंत्र भारतकी संसदतक भी पहुंचे थे। १९५७ में वे मथुरासे निर्दलीय उम्मीदवारके रूपमें अटलबिहारी वाजपेयीके खिलाफ चुनावमें खड़े भी हुए थे और जीते भी थे।

दरअसल राजा महेंद्र प्रताप सिंहके व्यक्तित्वके कई आयाम थे। वे स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, लेखक, शिक्षाविद, क्रांतिकारी, समाजसुधारक और दानवीर भी थे। जब भारत आजादीके लिए संघर्ष कर रहा था तो ये केवल भारतकी आजादीके बारेमें ही नहीं सोच रहे थे, बल्कि वे विश्व शांतिके लिए प्रयासरत थे। उन्होंने संसार संघकी परिकल्पना करके भारतकी संस्कृतिका मूल वसुधैव कुटुंबकमको साकार करनेकी पहल की थी।

इनकी शख्सियतकी विशालताका अंदाजा इस बातसे लगाया जा सकता है कि वे देशको केवल अंग्रेजों ही नहीं, बल्कि समाजमें मौजूद कुरीतियोंसे भी आजाद करानेकी इच्छा रखते थे। इसके लिए उन्होंने छुआछूतके खिलाफ भी अभियान चलाया था। अनुसूचित जातिके लोगोंके साथ भोजन करके उन्होंने स्वयं लोगोंके सामने उदाहरण प्रस्तुत करके उन्हें जातपातसे विमुख होनेके लिए प्रेरित किया। समाजसे इस बुराईको दूर करनेके लिए वह कितने संकल्पबद्ध थे इसका अंदाजा इसी बातसे लगाया जा सकता है कि उन्होंने सबको एक करनेके उद्देश्यसे एक नया धर्म ही बना लिया था प्रेम धर्म। वे जानते थे कि समाजमें बदलाव तभी आयगा जब लोग शिक्षित होंगे तो इसके लिए उन्होंने सिर्फ अपनी सम्पति ही दानमें नहीं दी, बल्कि वृंदावनमें तकनीक महाविद्यालयकी भी स्थापना की। इनके कार्योंसे देशकी वर्तमान पीढ़ी भले ही अनजान है लेकिन वैश्विक परिदृश्यमें उनके कार्योंको सराहा गया यही कारण है कि १९३२ में उन्हें नोबल पुरस्कारके लिए भी नामित किया गया था। लेकिन इसे क्या कहा जाय कि देशको पराधीनताकी जंजीरोंसे निकालकर स्वाधीन बनानेवाले ऐसे मतवालोंपर १९७१ में देशकी एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका द टेररिस्ट्स यानी वो आतंकवादी नामकी एक श्रृंखला निकलती है। जाहिर है राजा महेंद्र प्रताप जो कि तब जीवित थे उस पत्रिकाके संपादकको पत्र लिखकर आपत्ति जताते हैं।

दअरसल हमें यह समझना चाहिए कि भारतको गुलामीकी जंजीरोंसे आजाद करानेके लिए किसीने बंदूक उठायी तो किसीने कलम। किसीने अहिंसाकी बात की तो किसीने सशस्त्र सेना बनायी। स्वतंत्रताप्राप्तिका यह संघर्ष विभिन्न विचारधाराओंवाले व्यक्तियोंका एक सामूहिक प्रयास था। उनके विचार अलग थे जिसके कारण उनके मार्ग भिन्न थे लेकिन मंजिल तो सभीकी एक ही थी देशकी आजादी। अलग-अलग रास्तोंपर चलकर भारतको आजादी दिलानेमें अपना योगदान देनेवाले ऐसे कितने ही वीरोंके बलिदानोंकी दास्तानसे देश अनजान है। राजा महेंद्र प्रतापके नामपर विश्विद्यालय बनानेके कदमसे ऐसे ही एक गुमनाम नामको पहचान दी है। उम्मीद है कि इस दिशामें यह सरकारका पहला कदम होगा आखरी नहीं, क्योंकि अभी ऐसे कई नाम हैं जिनके त्याग और बलिदानकी कहानी जब गुमनामीके अंधकारसे बाहर निकलकर आयगी तो इस देशकी भावी पीढ़ीको देशहितमें कार्य करनेके लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करेगी।