पटना, बिहार में मोकामा और गोपालगंज विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे ईवीएम में कैद हैं। रविवार को पता चल जाएगा कि मामला पिछले चुनाव जैसा एक-एक पर छूट जाएगा या दोनों सीटें एकतरफा जाएंगी। इस चुनाव में वैसे तो भाजपा और राजद के बीच मुकाबला है, लेकिन परिणाम सभी दलों को प्रभावित करने वाला होगा। अलग-थलग चल रहे लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान से भाजपा के ताजे-ताजे पुनर्जीवित हुए संबंध दांव पर हैं।
भाजपा से नाराज विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी का महत्व महागठबंधन में बढ़ेगा या नहीं। जदयू एवं राजद की दोस्ती मजबूत रहेगी या गांठ पड़ेगी। जैसे कई सवालों के जवाब नतीजों पर निर्भर हैं। पिछले चार चुनावों से मोकामा सीट राजद के अनंत सिंह एवं गोपालगंज की सीट भाजपा के सुभाष सिंह के पास थी। इस चुनाव में दोनों की पत्नियां मैदान में हैं। एके-47 मिलने के कारण सदस्यता रद होने से मोकामा में एवं सुभाष सिंह की बीमारी से जान जाने के कारण गोपालगंज में उपचुनाव हो रहे हैं। गुरुवार को वोट पड़ गए हैं। दोनों जगह वोट प्रतिशत घटा है।
प्रतिष्ठा दांव पर
मोकामा में आधा प्रतिशत तो गोपालगंज में चार प्रतिशत तक कम वोट पड़े। इसने भी धड़कनें बढ़ा दी हैं। दोनों तरफ देखा जाए तो राजद उम्मीदवार के संग महागठबंधन के आठ दल खड़े थे। जिसमें राजद के अलावा कांग्रेस, जदयू, माकपा, भाकपा, भाकपा (माले), हम और वीआइपी शामिल थे। जबकि भाजपा के साथ चुनाव की शुरुआत में चिराग से अलग हुए चाचा पशुपति कुमार पारस एवं उनका दल राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी था।
पिछले चुनाव में नीतीश विरोध के कारण भाजपा द्वारा दूरी बनाने एवं बाद में पार्टी टूट में चाचा को अधिक महत्व दिए जाने से नाराज चिराग दूर-दूर खड़े थे। बातचीत से मामला शांत हुआ और दो दिन उन्होंने भाजपा के पक्ष में हवा बनाने का काम किया। माना जाता है कि वोटर चाचा के बजाय चिराग के साथ हैं। इसलिए उनकी प्रतिष्ठा दांव पर है। अगर जीते तो एनडीए में कद बढ़ेगा और बिहार में जातीय नेता के रूप में प्रतिष्ठा। दोनों सीटों की जीत भाजपा को नीतीश के सहारे से ऊपर करेगी और अकेले जीतने का हौसला देगी। महागठबंधन में भले ही आठ दल थे, लेकिन चुनाव एक तरह से अकेले राजद ने ही लड़ा।
संबंधों का आकलन तय
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पेट की चोट के कारण नहीं गए और हम के जीतन राम मांझी पैर की चोट के कारण। जिला स्तर के नेताओं को छोड़ दिया जाए तो न तो वामपंथी एवं न ही कांग्रेस के बड़े नेता दिखे। हां, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह दोनों जगह सक्रिय दिखे। राजद दोनों सीटें जीतता है तो सदन के समीकरण में वह अपनी पुरानी टीम यानी जदयू और हम को छोड़ अन्य साथियों के साथ बहुत मजबूत हो जाएगा। उसका थोड़ा भी प्रयास नीतीश पर भारी पड़ेगा। अगर हारता है तो नीतीश पर निर्भरता बनी रहेगी। इसलिए हार-जीत, दोनों ही सूरत में संबंधों का आकलन तय है। वहीं 2020 के चुनाव में महागठबंधन छोड़ एनडीए से 11 सीटें लेने वाले वीआइपी के मुकेश सहनी की राजनीति भी परिणाम पर टिकी है।
राजद को जिताने के जमकर प्रयास
पिछले चुनाव में 11 सीटें अपने कोटे से देकर भाजपा ने हाथ पकड़ा था। चार सीटें वीआइपी को मिली थीं और हारने के बाद भी विधान परिषद भेज मुकेश को मंत्री भी बनाया गया था। मुकेश यूपी चुनाव चले गए। उससे भाजपा का न तो कुछ बिगड़ा और न ही मुकेश को कुछ हासिल हुआ। मुकेश के तीन विधायक भाजपा ने अपने पाले में कर लिए। चौथी सीट विधायक के देहांत के कारण खाली थी। उस पर मुकेश ने प्रत्याशी उतार दिया था। राजद जीता, भाजपा हारी और कारण ठहराए गए मुकेश सहनी। मुकेश का मंत्री पद गया, सदस्यता चली गई। अब वे ठौर ढूंढ़ रहे हैं। इस बीच चाहे नीतीश हों या तेजस्वी, दोनों की तारीफ करते नहीं अघाते। चुनाव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा और राजद को जिताने के जमकर प्रयास किए हैं।
अब परिणाम पर उनकी भी निगाहें हैं। अगर राजद की जीत होती है तो स्वाभाविक रूप से उनको महागठबंधन में जगह मिल जाएगी। राज्यसभा या विधान परिषद कहीं भी आगे ठिकाना पा सकते हैं यानी अपना महत्व जता सकते हैं। अब बस कुछ घंटे ही बाकी हैं बिहार में राजनीतिक हलचल पैदा करने वाले घटनाक्रम के आजाद होने में। जिसका सब इंतजार कर रहे हैं।