सम्पादकीय

ईश्वरका अस्तित्व 


श्रीराम शर्मा

मन किसकी प्रेरणासे दौड़ाया हुआ दौड़ता है। किसके द्वारा प्रथम प्राण-संचार संभव हुआ। किसकी चाही हुई वाणी मुख बोलता है। कौन देवता देखने और सुननेकी व्यवस्था बनाता है। मन अपने आप कहां दौड़ता है। आन्तरिक आकांक्षाएं ही उसे जो दिशा देती हैं, उधर ही वह चलता, दौड़ता और वापस लौट आता है। यदि मन स्वतंत्र चिंतनमें समर्थ होता तो उसकी दिशा एक ही रहती। सबका सोचना एक ही तरह होता, सदा-सर्वदा एक ही तरहका चिंतन बन पड़ता, परन्तु लगता है- पतंगकी तरह मनका उड़ानेवाला भी कोई और है, उसकी आकांक्षा बदलते ही मस्तिष्ककी सारी चिंतन-प्रक्रिया उलट जाती है। मन एक पराधीन उपकरण है, वह किसी दिशामें स्वेच्छापूर्वक दौड़ नहीं सकता। उसके दौड़ानेवाली सत्ता जिस स्थितिमें रह रही होगी, चिंतनकी धारा उसी दिशामें बहेगी। मनको दिशा देनेवाली मूल सत्ताका नाम आत्मा है। दूसरे प्रश्नमें जिज्ञासा है कि माताके गर्भमें पहुंचनेपर प्रथम प्राण कौन स्थापित करता है। उसमें जीवन-संचारके रूपमें हलचलें कैसे उत्पन्न होती हैं। रक्त-मांस तो जड़ हैं। जड़में चेतना कैसे उत्पन्न हुई। यहां भी उत्तर वही है- यह आत्माका कर्तृत्व है। भू्रण अपने आपमें कुछ भी कर सकनेमें समर्थ नहीं। माता-पिताकी इच्छानुसार संतान कहां होती है। पुत्र चाहनेपर कन्या गर्भमें आ जाती है। जिस आकृति-प्रकृतिकी अपेक्षा, उससे भिन्न प्रकारकी संतान जन्म लेती है। इसमें माता-पिताका प्रयास भी कहां सफल हुआ, तब भ्रूणको चेतना प्रदान करनेका कार्य कौन करता है। उपनिषदकार इस प्रश्नके जवाबमें आत्माके अस्तित्वको प्रमाण रूपमें प्रस्तुत करता है। मृत शरीरमें प्राण संचार न रहनेसे उसके भीतर वायु भरी होनेपर भी सांसको बाहर निकालनेकी सामथ्र्य नहीं होती। श्वास-प्रश्वास प्रणाली यथावत रहनेपर भी प्राण-स्पंदन नहीं होता। प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान प्राणों द्वारा शरीर और मनके विभिन्न क्रियाकलाप संचालित होते हैं, परन्तु महाप्राणके न रहनेपर शरीरमें उनका स्थान और कार्य सुनिश्चित होते हुए भी सब कुछ निश्चल हो जाता है। अंगोंकी स्थिति यथावत रहते हुए भी जिस कारण मृत शरीर जड़वत नि:चेष्ट हो जाता है, वह महाप्राणका प्रेरणा क्रम रुक जाना ही है।