सम्पादकीय

कांग्रेसकी वर्तमान दशा और दिशा


 डा. धनंजय सहाय

कहते हैं वक्त सबको सिखा देता है परन्तु शायद यह बात कांग्रेसपर सटीक नहीं बैठती। एकके बाद एक चुनावोंमें मुंहकी खाने एवं सिकुड़ते जनाधारके बावजूद अंग्रेजोंके जमानेका सबसे पुराना भारतीय राजनीतिक दल मानो हम नहीं सुधरेंगेकी कसम खाकर बैठा है। अभी पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमितिकी बैठकमें अपने पूर्णकालिक अध्यक्षके लिए २३ जूनको प्रस्तावित बैठकको स्थगित करनेका निर्णय लेकर कांग्रेसने एक बार पुन: साबित कर दिया कि गांधी-नेहरू खानदानकी तिलस्मि छायासे बाहर आनेका हाल-फिलहाल उसका कोई इरादा नहीं है। यह बात दीगर है कि अबकी बन्दूक कोरोना महामारीके कंधेपर रखकर चलायी गयी है। लम्बे समयतक केन्द्र एवं राज्योंमें अपने हुकूमका इक्का चलानेवाली यह पार्टी मोदी-शाहकी जोड़ीके आगे इतनी आसानीसे हांफते हुए हथियार डाल देगी इसका अन्दाजा तो बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितोंको भी नहीं था। लोकतांत्रिक शासन प्रणालीके अन्तर्गत होनेवाले चुनावोंमें हार-जीत तो लगी रहती है। हारनेवाला दल विपक्षकी भूमिका निभाते हुए अगले चुनावमें जीत हासिल करनेके लक्ष्यको सामने रखता है। वह अपने संघटनिक ढांचेको मजबूत बनाता है साथ ही अपने चमत्कारिक नेतृत्वसे आशा करता है कि वह सत्तारूढ़ दलकी कमियों एवं विफलताओंको पर्दाफाश करते हुए जन-सहानुभूति बंटोरे और आगामी चुनावमें उसे मतोंके रूपमें तब्दील कर सके। इस कसौटीपर यदि कांग्रेसको कसा जाय तो हर तरफ आपको निराशा ही हाथ लगेगी। उसका संघटनिक ढांचा छिन्न-भिन्न है, लगातार हार और सत्तासे दूर रहनेके कारण कार्यकर्ताओंमें अवसादकी स्थिति है। नेताओंकी बात करें तो माता-पुत्रमें अध्यक्ष पदको लेकर अजीब पेशोपेश है। कांग्रेस अध्यक्षके रूपमें विभिन्न चुनावोंमें करारी हार झेलनेके बाद इस्तीफा दे चुके राहुल गांधीका मानमनौव्वल अब भी जारी है कि वे अति कृपा करके पुन: इस पदको धारण कर लें परन्तु वह इसके लिए तैयार नहीं हैं। मां सोनिया गांधीका मानना है कि जबतक वह तैयार नहीं होते तबतक अन्तरिम अध्यक्ष वह ही बन जाती हैं। कांग्रेसमें इन दोनोंके अलावा कोई नेता ऐसा है ही नहीं, जो कांग्रेस अध्यक्षके मुकुटको धारण करनेका तेज रखता हो।

दरअसल कांग्रेसमें गांधी-नेहरू खानदानकी चरण वंदना करनेवाले चाटुकार नेताओंका एक तबका ऐसा भी है जो कांग्रेसकी लुटिया डुबोनेमें अपना जी-जान एक किये हुए है। यह उन नेताओंकी फौज है जो कांग्रेसकी कीमतपर भी अपने आलाकमानकी आंखके तारे बने रहना चाहते हैं और आलाकमान भी इनपर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं। दूसरी तरफ कांग्रेसमें ऐसे नेताओंकी भी कमी नहीं है जो कांग्रेसकी वस्तुस्थितिसे भिज्ञ हैं और वे उसे डूबती नाव नहीं बनने देना चाहते। यहां परेशानी इस बातकी है कि जब भी वे कांग्रेसकी वर्तमान दशा और दिशापर प्रकाश डालना चाहते हैं तो चरणवंदनामें डटी फौज उनपर चढ़ाई कर देती है और उन्हें गांधी-नेहरू खानदान विरोधी करार देते हुए नकार दिया जाता है। ज्ञातव्य है कि कांग्रेसकी वास्तविकतापर प्रकाश डालनेवाले २३ नेताओंको किस कदर लानत मलानत झेलनी पड़ी थी यह किसीसे छिपा नहीं है। राज्यसभासे कार्यकाल पूरा करनेके बाद वरिष्ठï कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजादको निशानेपर लेते हुए कतिपय लोगोंने तो उनके भारतीय जनता पार्टीकी सदस्यतातक ग्रहण करनेकी आशंका जता दी थी। नुकसानकी भरपाईके उद्देश्यसे ही सही पांच राज्योंके विधानसभा चुनावमें हारकी समीक्षाके लिए गठित टास्क फोर्सकी कमान गुलाम नबी आजादको सौंपी गयी है। अब देखनेवाली बात यह है कि यह टास्क फोर्स अपने मकसदमें कितना कामयाब होती और आलाकमान उसकी बातोंपर कितनी तवज्जो देती है।

सम्भवत: असंतुष्टï नेताओंके समूह जी-२३ के नेता गुलाम नबी आजादके जख्मोंपर मरहम लगानेकी कवायदसे अन्य नेताओंको भी मनानेकी कोशिश पार्टी कर रही है। परन्तु इसमें वह कितनी कामयाब होगी यह तो वक्त ही बतायेगा परन्तु हाल-फिलहाल न तो कांग्रेसकी दशा ही ठीक है और न ही दिशा। आज आवश्यकता इस बात की है कि कांग्रेस गांधी-नेहरू परिवारके खोलसे बाहर निकले। राहुल गांधी काफी वक्त मिलनेके बाद भी यह साबित करनेमें सर्वथा विफल रहे हैं कि वे कांग्रेसकी जिम्मेदारियोंको उठा सकते हैं। यदि पार्टी उन्हें एक और मौका देनेका मन बनाती है तो यह अपने पैरपर स्वयं कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। कांग्रेसमें वरिष्ठï एवं अनुभवी नेताओंकी पूरी फौज है। कांग्रेस यदि उनका सही तरीकेसे सदुपयोग करे तो पार्टीमें नयी जान फूंकी जा सकती है। इस दलको यदि पूर्णकालिक समर्थ अध्यक्ष मिलता है तो उसकी पहली प्राथमिकता पूरे संघटनके पुनर्गठनकी होगी, क्योंकि वह पूरी तरहसे जंग खा चुके हैं। कार्यकर्ताओंके अन्दर जोशका संचार होगा तो पार्टीमें नयी जान आयेगी और वह सत्तारूढ़ दलको चुनौती देनेकी स्थितिमें होगी और स्वयं भी सत्ताका स्वप्न सजा सकेगी लेकिन अभी तो वह क्षेत्रीय क्षत्रपोंके साथ मिलकर जैसे-तैसे चुनाव लडऩेका स्वांग ही कर पा रही है परन्तु आलाकमान क्या इसके लिए तैयार है।