विजयनारायण
चीन आखिर पश्चिम एशियामें पहुंच ही गया। यह कोशिश वह विगत तीस वर्षोंसे कर रहा था, लेकिन पश्चिम एशियाके किसी भी देशने उसे घास नहीं डाली, उन्हें इस बातका अच्छी तरह पता है कि चीनके आनेका मतलब ही होता है नये तनावोंको जन्म देना। पश्चिम एशियाके देश यह भी जानते हैं कि चीन यदि एक बार आ गया तो उसे बाहर भेजना कितना कठिन होगा। चीनके साथ गठबंधन स्वयं ईरानके लिए कितनी दूरगामी मुसीबतें खड़ी करेगा, यह उन्हें पता है। फिर भी ईरानने ऐसा क्यों किया, यह समझना कठिन हो रहा है। जिस अमेरिकाके साथ ईरानके गहरे विवाद हैं, उस अमेरिकाने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। अमेरिका शायद इस समझौतेके दूरगामी परिणामोंका अध्ययन कर रहा है। अमेरिका इस बातसे भी परेशान होगा कि बाइडेनके राष्टï्रपति चुने जानेके बादसे वह ईरानके साथ सम्बन्धोंमें सुधारकी पहल कर रहा था। कूटनीतिक स्तरपर दोनों देशोंके बीच वार्ताएं भी शुरू हो गयी थीं। अमेरिकाने सार्वजनिक रूपसे यह भी संकेत दे दिया था वह ईरानपर लगे प्रतिबन्धोंको धीरे-धीरे हटाना चाहता है। ऐसे बदलते माहौलके बीच ईरानने पल्टी मारकर क्या संकेत दिये हैं। यही समझनेकी बात है। इससे तो यही कहा जा सकता है कि अमेरिकाके पूर्व राष्टï्रपति ट्रम्पका रवैया ही शायद सही था, जो ईरानपर लगे प्रतिबंधोंको खींचना चाहते थे और कड़ाईके साथ पालन करना चाहते थे। यह भी कहा जा सकता है कि ट्रम्प यदि आज भी राष्टï्रपति होते ईरान शायद चीनके साथ समझौता करनेकी हिम्मत नहीं करता। दूसरी ओर बाइडेनकी विदेश नीतिको यह पहला झटका है और शायद जोरका झटका है। अमेरिकाके राष्टï्रपति बाइडेन क्या रुख अपनायेंगे विशेषकर ईरानके साथ यह कहना कठिन हो गया है। इस बातको इस सम्बन्धमें समझा जाना चाहिए कि अमेरिका चीनकी नये सिरेसे घेरेबंदी कने और उसका नियंत्रित करनेकी नीति अपना रहा था। यदि अमेरिकाने इसे अपनी उदारवादी नीतियोंके लिए इसे ईरानकी चुनौती मान लिया तो ईरानपर लगे प्रतिबंधोंमें ढिलाई या वापसी कठिन हो जायगी और ईरान अमेरिकी प्रतिबन्धोंकी जिस घेराबंदीसे निकलनेकी कोशिश कर रहा था, उसमें अब वह शायद कामयाब नहीं हो पायगा।
ईरान और चीन दोनों ही इस बातको अच्छी तरह जानते हैं कि पश्चिम एशियामें अमेरिकाके तमाम विश्वसनीय मित्र है जो किसी भी हालमें अमेरिकाका साथ नहीं छोड़ सकते। इनमें सबसे विश्वसनीय सऊदी अरब है जो शायद पश्चिम एशियामें सबसे सम्पन्न राष्टï्र है। उधर उत्तरी ओरपर इस राहत किसीसे भी कमजोर नहीं है और अमेरिकाका विश्वसनीय मित्र है। ईरानको चीनसे नया गठजोड़ करनेसे पहले यह समझना चाहिए था कि इससे पश्चिम एशियामें जो तनाव बढ़ेगा, उससे वह अमेरिकाकी स्थितिको कमजोर नहीं कर पायेगा। ईरान पश्चिम एशियामें शिया-सुन्नी विवादमें बुरी तरह उलझा हुआ है। सुन्नी समूह या देशोंका नेता सऊदी अरब बना हुआ है और जिन देशोंमें शियाओं और सुन्नियोंके बीच सशस्त्र संघर्ष चल रहे हैं। उनमें वह सुन्नियोंकी हर तरहकी मदद कर रहा है। इसके ठीक विपरीत ईरान ऐसे संघर्षोंमें शिया समूहों या देशोंकी मदद कर रहा है। अमेरिका वैसे शिया-सुन्नी संघर्षोंमें न किसीका पक्ष ले रहा और न किसीकी मदद कर रहा है, क्योंकि उसका प्रभाव क्षेत्र दोनों ही तरहके इलाकोंतक फैला रहा है। अमेरिका ऐसे संघर्षों और युद्धोंको लेकर परेशान रहा है। दूसरी ओर ईरानने ईराक और सीरिया जैसे शियाबहुल देशोंमें अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया है। इसके साथ ही ईरान यह भी जानता है कि अमेरिका अपने सम्बन्धोंमें कभी भी इस इलाकेमें उलटफेर कर सकता है। फिर भी उसने चीनके साथ यह गठजोड़ किया इसका आकलन दुनियाके सारे देश कर रहे हैं। वैसे अभी ईरान इस गठजोड़के आर्थिक विकाससे जुड़े पहलुओंतक ही सीमित बता रहा है। ईरानने कहा है कि वह चीनके सहयोगसे नये कारखाने खोलना चाहता है और अपना आर्थिक दायरा बढ़ाना चाहता है। ईरानको यह समझना चाहिए कि चीन जहां भी गया है और जिन देशोंके साथ भी उसने आर्थिक गठबन्धन किया है, उसने वहां अपना आर्थिक गलियारा बना लिया है, जमीन लीजपर ली है और अपनी सैनिक छावनी भी बना ली है। चीन ऐसी योजनाओंके लिए भारी कर्ज भी देता है और जो भी देश चीनके कर्जके जालमें फंसे हैं, उनका निकलना बड़ा ही कठिन हो गया है। ईरानके लिए जीता जागता उदाहरण उसका पड़ोसी पाकिस्तान है। चीनने ग्वादर बंदरगाहका निर्माण किया और वहां उसने चीनियोंकी बस्ती बना ली, जहां बड़ी संख्यामें चीनी सैनिक मौजूद हैं।
चीनी सैनिक तो ग्वादर बंदरगाहसे कराकोरमतक बनानेवाले सड़क मार्गपर मौजूद हैं। बलूचिस्तानमें चीनी सैनिकोंपर विद्रोही बलूचियोंने हमले भी किये हैं। पाकिस्तान भारी कर्जके जालमें फंसा है और वह चीनी कर्ज अदा कर पा रहा है और न चीनको लीजपर दी गयी जमीनको ही मुक्त करा पा रहा है। ईरान यह भी जानता है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीरमें भी चीनके विरुद्ध भारी जन-आक्रोश सड़कपर दिखायी पड़ रहा है। इन सारी घटनाओंकी जानकारी होनेके बाद भी ईरान चीनसे गठजोड़की दिशामें क्यों आगे बढ़ रहा है, यह लोगोंकी समझमें नहीं आ रहा है। ईरान-चीन आर्थिक गठजोड़से ईरान-भारत सम्बन्धोंपर प्रभाव पडऩा स्वाभाविक है। भारत ईरानमें चाबहारमें बंदरगाह बना रहा है, लेकिन यह काम रुका हुआ है। चीनकी नजर इस बंदरगाहपर है और वह इसे हथियाना चाहता है। भारतको या बाहरसे अफगानिस्तानतक रेल मार्ग बनाना था किन्तु यह काम भी अभी उसे नहीं मिला है। ईरान भारतका भरोसेका दिन रहा है, लेकिन अमेरिकी प्रतिबन्ध लगनेसे वह बुरी तरह प्रभावित हुआ है। ईरानसे तेलकी आपूर्ति भी की है। अब ईरानकी चीनके साथ नयी आर्थिक गठजोड़से भारतका चिन्तित होना स्वाभाविक है और भारतके लिए इस समझौतेसे उत्पन्न स्थितियोंके मुकाबलेकी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।