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कमजोर इच्छाशक्तिकी उपज


आशीष वशिष्ठ   

नक्सलवाद सिर्फ देशकी आंतरिक सुरक्षा और कानून-व्यवस्थाकी समस्या नहीं है, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक समस्याके साथ विकट सामाजिक समस्या भी है। साथ ही एक भटके हुए आन्दोलनका भी सबसे बड़ा उदाहरण है ‘नक्सलवादÓ। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, बंगाल, तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्टï्र आदि राज्योंके कई हिस्से अब भी ‘नक्सलवादÓ की चपेटमें हैं। 25 मई, १९६७ को पश्चिम बंगालके दार्जिलिंग जिलेके नक्सलबाड़ीमें हुए भूमि विवादमें जमींदारों और किसानोंके बीच हुए संघर्षसे ‘नक्सलवादÓ का जन्म हुआ। इसमें दो राय नहीं कि बदलते समयके साथ इसके स्वरूपमें भी बदलाव आया है और अपने नये अवतारमें नक्सलवाद एक राजनीतिक समस्या बन गया है। ऐसेमें प्रश्न है कि क्या नक्सलवादकी वजहोंपर काम करनेके बजाय सियासी दलोंने इसे शह दिया है? प्रश्न यह भी है कि सरकारने इससे निबटनेके लिए क्या-क्या पहलें की हैं? यदि सरकारकी पहलें सही दिशामें नहीं हैं तो इस समस्याका सही हल क्या है? प्रश्न यह भी है कि क्या तकनीकोंसे लैस हमारे सुरक्षाबल इस समस्यासे निबटनेमें सक्षम नहीं हैं या फिर हमारी सरकारोंमें राजनीतिक इच्छाशक्तिकी कमी है? नक्सलियोंने इन इलाकोंको शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओंसे वंचित कर रखा है। ‘नक्सलवादÓ देशके विकासके रास्तेमें भी सबसे बड़ी बाधा बन चुका है।

बीजापुरकी घटनासे सवाल फिर खड़ा हुआ है कि क्या राजनीतिज्ञोंमें नक्सली समस्याको हल करनेकी इच्छा शक्ति है? ऐसी कौन-सी वजहें हैं कि यह समस्या दशकोंसे हल होनेके बजाय और विकट होती जाती है? नक्सल समस्याका हल न निकलनेके पीछे दो वजहें हैं। एक, राजनीतिक दलोंमें इस बतापर सहमति ही नहीं है कि यह समस्या सामाजिक आर्थिक समस्या है या कानून-व्यवस्था की। इस सवालपर पार्टियोंमें विवाद है और पार्टियोंके भीतर भी। जरूरी है कि इसपर न्यूनतम सहमति बने। ऐसा होनेसे कमसे कम आदिवासियोंको राहत मिलेगी जो हर हालमें कट रहे हैं। दूसरा सवाल इसके अर्थशास्त्रका है। नक्सल प्रभावित हर जिलेको केंद्र और राज्य सरकार इतना पैसा देती है कि यदि उसे पूरी तरह खर्च किया जाय तो जिलोंकी तस्वीर बदल जाय। लेकिन आश्चर्य है कि इतने पैसोंके बावजूद नक्सल प्रभावित क्षेत्रोंकी बहुसंख्य आबादी बिना बिजली और शौचालयके रहती है। अस्पताल जानेके लिए मीलों चलती है और दवाओंके लिए नक्सलियोंपर निर्भर रहती है। कहां क्या खर्च हो रहा है, इसका कोई हिसाब नहीं। क्योंकि जहां पैसे कथित तौरपर खर्च हो रहे हैं वहां तो पुलिस भी नहीं जा पाती। जाहिर है कि यह पैसा नेता-अफसर और ठेकेदारोंकी तिकड़ी बांट कर खा रही है। इस अर्थशास्त्रका तोड़ निकले और जवाबदेही तय हो तो शायद कोई रास्ता निकले। पैसा सही जगह खर्च हो और वह विकास हो जिसके अभावमें नक्सलवादको तेजीसे पनपनेका मौका मिल रहा है।

नक्सली समस्याको लेकर ढेर सारी चुनौतियोंके बावजूद प्रभावित क्षेत्रोंमें पहलेसे कमी आयी है। आंकड़ोंके मुताबिक, २००८ में २२३ जिले नक्सल प्रभावित थे लेकिन, तत्कालीन सरकारके प्रयासोंसे इनमें कमी आयी और २०१९ में आयी रिपोर्टके अनुसार, ४४ जिलोंको नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया है। केरलमें ऐसे तीन, ओडिशामें दो और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा आंध्र प्रदेशमें एक-एक जिले हैं, जहां पहली बार नक्सलियोंकी हलचल दिखी है। लिहाजा, नक्सल प्रभावित कुल जिलोंकी संख्या अब ९० हो गयी है। यह सभी जिले देशके ११ राज्योंमें फैले हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और बिहार सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्योंमें शामिल हैं। साल २०१६ से २०१९ के दौरान नक्सल प्रभावित इलाकोंमें हिंसाकी वारदातोंमें २०१३-१५ के मुकाबले १५.८ फीसदी और इनमें होनेवाली मौतोंकी संख्यामें १६.६ फीसदीकी कमी आयी है। दरअसल, अपने वर्तमान रूपमें नक्सल आन्दोलनने अपनी प्रकृति और उद्देश्य दोनोंमें महत्वपूर्ण रूपसे बदलाव किया है। एक तरफ जहां इस समस्याकी वजह आर्थिक और सामाजिक विषमता समझी जाती रही है, वहीं, इसे अब एक राजनीतिक समस्या भी समझा जाने लगा है। वर्ष २०१८ के छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावमें नक्सल समस्यापर राजनीतिक बयानबाजी इसीका एक पहलू है। यही कारण है कि जानकारोंकी नजरोंमें नक्सलवाद सियासी दलोंका ‘चुनावी तवाÓ है जिसपर मौका मिलते ही रोटी सेंकनेकी कोशिश की जाती है। ऐसा इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि, हमारी सरकारें लगातार संविधानकी पांचवीं अनुसूचीको तरजीह देनेसे कतराती रही हैं। इस अनुसूचीमें अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियोंके प्रशासन और नियंत्रणसे जुड़े मामले आते हैं। चिंताका विषय है कि आजादीके ७० सालों बाद भी अबतक अनुसूचित क्षेत्रोंको प्रशासित करनेके लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।

सरकार और प्रशासन द्वारा नक्सलवादपर दोतरफा प्रहार किया जा रहा है। सुरक्षाबलोंके द्वारा नक्सलियोंकी धर-पकड़ और एनकाउंटर तो किया ही जी रहा, साथ ही इन भटके हुए लोगोंको फिरसे मुख्यधारासे जोडऩेके लिए भरपूर प्रयास किये जा रहे हैं। नक्सल प्रभावित इलाकोंमें नक्सली समस्यासे निबटनेके लिए सरकार समय-समयपर काम करती रही है। हालांकि, इन इलाकोंमें किसी परियोजनाको सफलतापूर्वक पूरा करना हमेशा ही बड़ी चुनौती रही है। इंफ्रास्ट्रक्चर, सड़क, सेलफोन कनेक्टिविटी, पुल, स्कूल जैसे विकास कार्योंपर काम किया जाता रहा है। नक्सल प्रभावित इलाकोंमें अबतक हजारोंकी तादादमें मोबाइल टॉवर लगाये जा चुके हैं जबकि कई हजार किलोमीटर सड़कका निर्माण भी हो चुका है। सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिलोंमें युवाओंको रोजगारके लिए प्रशिक्षित करनेके लिए जून, २०१३ में आजीविका योजनाके तहत ‘रोशनीÓ नामक विशेष पहलकी शुरुआत की गयी थी। नक्सल समस्यासे निबटनेके लिए केंद्र सरकरने आठ सूत्रीय ‘समाधानÓ नामसे एक कार्ययोजनाकी शुरुआत की है। सबसे अधिक नक्सल प्रभावित सभी ३० जिलोंमें जवाहर नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय संचालित किये जा रहे हैं। हिंसाका रास्ता छोड़कर समर्पण करनेवाले नक्सलियोंके लिए सरकार पुनर्वासकी भी व्यवस्था करती है।

संविधानकी पांचवीं अनुसूचीमें अनुसूचित क्षेत्रोंमें ट्राइबल एडवाइजरी कौंसिलकी स्थापना की बात की गयी है। सरकारोंको इसपर ध्यान देना होगा। आदिवासियोंको अधिकार न मिलनेसे भी इनमें असंतोष पनपता है और नक्सली इसीका फायदा उठाकर आदिवासियोंको गुमराह करते हैं। इसी तरह १९९६ के पेसा कानून, बैकवर्ड रीजन ग्रांट फण्ड जैसे कार्यक्रमोंको सही रूपसे लागू करनेकी जरूरत है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसे मसलोंपर और बारीकीसे काम करना होगा, तभी इस समस्यासे निजात मिल पायेगी। स्थानीय लोगोंको भरोसेमें लेना और हथियार उठा चुके लोगोंसे बात कर मसलेका हल निकालनेकी कोशिश करनी होगी। सरकारके कई प्रयासोंके बावजूद अबतक इस समस्यासे पूरी तरह निजात न मिलनेकी बड़ी वजह है कि सरकारें शायद इस समस्याके संभावित पहलुओंपर विचार नहीं कर रही। हालांकि सरकारी पहलसे कुछ क्षेत्रोंसे हिंसाका खात्मा जरूर हो गया है। लेकिन अब भी लम्बा सफर तय करना बाकी है।