सम्पादकीय

चुनाव नतीजोंमें छिपे भविष्यके संकेत


राजेश माहेश्वरी 

भाजपाने अपनी अधिकतम ताकत पश्चिम बंगालको फतह करनेमें लगा दी थी। वह अलग बात है कि उसके विधायकोंकी संख्या बढ़ गयी। ममता बनर्जी हालांकि स्वयं नंदीग्रामसे चुनाव हार गयीं परन्तु उनकी पार्टी तीसरी बार अच्छे बहुमतके साथ सत्ता हासिल करनेमें कामयाब रही। वहीं तमिलनाडुमें पहली बार बड़े कद्दावर राजनेताओंकी अनुपस्थितिमें लड़े गये चुनावमें स्टालिनको करुणानिधिकी विरासतका लाभ मिला। एआईएडीएमकेमें वर्चस्वकी लड़ाई मतदाताओंमें विश्वास जगानेमें विफल रही। असममें भाजपाकी प्रभावी जीतमें जहां पार्टी संघटन और रणनीतिका योगदान मिला, वहीं स्थानीय मजबूत छत्रपोंने उसमें बड़ी भूमिका निभायी। पश्चिम बंगालके चुनाव परिणाम देशकी राजनीतिका नये सिरेसे धु्रवीकरण करेंगे। वामपंथी और कांग्रेस इस चुनावमें पूरी तरह साफ हो गये। अब सवाल यह पैदा होता है कि यदि कोई मोर्चा अगले लोकसभा चुनावके लिए बनता है तो ममता बनर्जी उस मोर्चाकी अगुआ बननेका स्वाभाविक दावा पेश करेंगी। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल ममता बनर्जीका नेतृत्व स्वीकार पायेंगे।

पश्चिम बंगालकी जनताने जो फैसला विधानसभा चुनावमें दिया है वह सूझ-बूझवाला कहा जायेगा। एक ओर जनताने केन्द्र सरकारकी नीतियोंपर विचार किया और उसे सरकार नहीं सौंपी परन्तु ८० से ऊपर विधानसभा सीट देकर सरकारको अपनी नीतियां जनहितैषी रखनेका संदेश दिया। वहीं नंदीग्राममें ममता बनर्जीको हराकर और दो सौसे ऊपर सीट टीएमसीके खातेमें जमा करके जनताने सत्ताकी चाबी फिरसे तो सौंपी, परन्तु यह संदेश भी दिया कि अहमकी राजनीति त्यागनेसे ही पश्चिम बंगालका भला होनेवाला है। विधानसभा चुनावमें पश्चिम बंगालकी जनताने डीजल, पेट्रोलके बढ़े दाम समेत कोरोना कालमें दवाओंके अकाल, आक्सीजनकी कमी और सबसे महत्वपूर्ण आक्रामक रवैया अपना रही भाजपा द्वारा लांघी गयी संसदीय मर्यादाकी सीमाके लिए भाजपाको सत्तासे दूर रखा। वहीं पश्चिम बंगालकी जनताने ‘तोलाबाजीÓ, ‘कटमनीÓ और ‘भ्रष्टï भाईपोÓ सरीखे गंभीर आरोपोंको भी नकार दिया। ‘दीदीÓ के जिस व्यंग्यात्मक संबोधनसे प्रधान मंत्रीको मुगालता हुआ होगा कि ममताको चुनावमें परास्त किया जा सकता है, बंगाली जनताने उस संबोधनको नया रूप दिया- ‘दीदी गयी नहीं, दीदी ही आयीं।Ó प्रधान मंत्री मोदीके चेहरेपर और उनके संबोधनोंके बावजूद भाजपाने एक दर्जनसे अधिक विधानसभा चुनाव हारे हैं। फिलहाल ममता बनर्जीने लगातार दस सालकी सत्ताके बाद भी साबित किया है कि उनके खिलाफ कोई चुनावी लहर नहीं थी। भाजपाके कद्दावर नेताओंने ‘परिवर्तनÓ का सपना संजोया था। सपने कभी-कभार ही साकार होते हैं। चुनावके दौरान भाजपाने पश्चिम बंगालमें जो नीति अपनायी उसे वहांकी जनताने अपनी पुरानी सभ्यताके विपरीत माना और माटी-मानुषका नारा देनेवाली ममता बनर्जीकी पार्टीको फिरसे सत्ता सौंप दी।

देखा जाये तो ममता बनर्जीसे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी नेता अमित शाहको बिलकुल वैसी ही शिकस्त मिली है, जैसी २०१५ के बिहार चुनावमें नीतीश कुमारने लालू प्रसाद यादवसे हाथ मिलाकर दी थी। लेकिन जैसे बिहारकी हारका मोदी-शाहकी सेहतपर कोई खास फर्क नहीं पड़ा, वैसे ही बंगालकी हारसे भी बहुत फर्क नहीं पडऩेवाला है। २०१५ की जीतके बाद नीतीश कुमारकी हैसियत जरूर बढ़ गयी थी और ठीक वैसे ही ममता बनर्जीकी भी बढ़ सकती है लेकिन अगले आम चुनावमें अभी तीन सालका लंबा वक्त है और बीजेपीके पास अकेले भी पूरा बहुमत है। ऐसेमें ममता बनर्जी सिवाय अपनी किसी तैयारीके मोदी-शाहको तो कहींसे कोई भी नुकसान नहीं पहुंचा सकती हैं। भाजपाके भीतर भी ऐसी कोई चुनौती कहीं नजर नहीं आती जो मोदी-शाहके वर्चस्वके लिए किसी तरहकी मुश्किल खड़ा करनेवाली हो। बंगाल जीत लेनेकी बात और होती, लेकिन आरएसएसको भी मोदी-शाहसे कोई खास शिकायत नहीं होनेवाली है क्योंकि अयोध्यामें राम मंदिर निर्माण तो चल ही रहा है। काशी और मथुराको लेकर अभी कोई खास प्रयोजन भी नहीं लगता। धारा ३७० और तीन तलाक जैसे मामले निबट ही चुके हैं और अगले साल जहां-जहां भी चुनाव होनेवाले हैं वहांतक ममता बनर्जीकी जीत भी कोई असर नहीं होनेवाला है और न ही ममता बनर्जी उन चुनावोंको किसी भी तरीकेसे प्रभावित करनेकी स्थितिमें हैं। वहीं ममता विपक्षका सर्वमान्य चेहरा बन पायंगी, इसकी संभावना न के बराबर ही है। ममताकी तुनकमिजाजी किसीसे छिपी नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधीसे उनका मनमुटाव जग-जाहिर है। सोनियाके नेतृत्वको अस्वीकार करते ही ममता बनर्जीने पश्चिम बंगालमें अपनी पार्टी बनायी थी। वह अपने संघर्षको पूरी तरह कैश कराना अपना अधिकार मानती है। यह भी सत्य है कि पश्चिम बंगालमें वामपंथी शासनके दौरान ममता बनर्जी कई बार जेल गयी हैं और उन्हें बुरी तरह सड़कपर पीटा भी गया है।

राष्टï्रीय स्तरपर ममताको पहली चुनौती तो राहुल गांधीसे ही मिलेगी, भले ही झारखंडके बादके सारे विधानसभा चुनाव कांग्रेस हारती आ रही हो। कांग्रेस भी राहुल गांधीके लिए अब ममता बनर्जीको वैसे ही लेगी जैसे छह साल पहले वह नीतीश कुमारके नामपर बिफर उठती थी। ममताकी ही तरह विपक्षी खेमेसे जीत हासिल करनेवाले पिनराई विजयन और एमके स्टालिन भी निश्चित तौरपर दिल्लीमें अपनी हिस्सेदारीके लिए तत्पर तो होंगे ही, लेकिन विजयनकी राहमें जहां उम्र आड़े आ सकती है, वहीं स्टालिनका झुकाव ज्यादा राहुल गांधीके प्रति ही है। भाजपाने संघर्ष किया उसका सिला उसे मिला है ठीक वैसे ही जैसे असममें भाजपा दो बार सत्ता हासिल करनेसे चूक गयी थी। दक्षिणमें एक राज्यमें भाजपा एनडीएकी शीर्ष बनकर सरकार चलायेगी तो तमिलनाडुमें चार विधानसभा सीट जीतनेके बाद द्रविड राजनीतिवाले इस राज्यमें भाजपाको अपने पैर जमानेका अवसर मिल गया है। कुल मिलाकर केन्द्रकी राजनीतिपर पांच राज्योंके विधानसभा चुनावोंके नतीजे ज्यादा असर डालते नहीं दिखते। विपक्षके पास कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। बंगालमें भाजपाकी ताकत तो बढ़ी है, ऐसेमें ममताके लिए पहलेकी तरह सरकार चलाना अब आसान नहीं होगा। कुल मिलाकर यह देखना अहम होगा कि विपक्षके राजनीतिक दल इन चुनाव नतीजोंको राष्ट्रीय स्तरपर किस प्रकार अपने पक्षमें माहौल बनानेके लिए उपयोग कर पाते हैं।