सम्पादकीय

चुनौतियोंके बीच जीवनकी रफ्तार


आर.के. सिन्हा

नयी टेक्नोलॉजी इस बातकी सुविधा देती है कि आप घर बैठकर अपने दफ्तरके साथियों और सहयोगियोंके नियमित वीडियो कॉल कर साथ बातचीत भी कर सकते हैं। परन्तु लगता यह है कि वे दफ्तर तो अब भी पहलेकी तरहसे चलेंगे जहां पब्लिक डीलिंग होती है। उदाहरणके रूपमें बैंक, यातायातके लाइसेंस जारी करनेवाले विभाग, बिजली, पानी, सुरक्षा कार्य, कुरियर व्यवसायके दफ्तर आदि। इनमें तो पहलेकी तरहसे काम होगा ही। हालांकि नेट बैंकिंगने अब ग्राहकोंको बैंकमें जानेके झंझटसे काफी हदतक तो राहत दे ही दी है। नेट बैंकिंगके माध्यमसे पेमेंट दी-ली जा सकती है। तो बात हो रही थी वर्क फ्रॉम होम की। अब विभिन्न क्षेत्रोंके दफ्तरोंके आला अफसरोंको इस तरहकी कोई व्यवस्था तो तलाश करनी ही होगी, ताकि उनका स्टाफ एक माहमें कमसे एक-दो बार तो कहीं मिले ही। मिलने-जुलनेके बहुत लाभ होते हैं। पेशेवर अपने साथियोंके विचारोंको जानने समझते हैं। जूनियर पेशेवरोंको अपने सीनियर सहयोगियोंके अनुभवका लाभ मिलता है। इस तरहकी बैठकोंमें नये-नये विचार सामने भी आते हैं।

फिलहाल यह तो मानना होगा कि वर्क फ्रॉम होमने लाखों लोगोंको सुबह दफ्तर जानेके झंझटसे मुक्ति दिलवा दी है। महानगरों और बड़े शहरोंमें रहनेवाले लोगोंको पता है कि उन्हें  दफ्तरतक जानेका लम्बा सफर पूरा करनेमें कितना वक्त लगता था। उस क्रममें ही उनकी पूरी ऊर्जा निकल जाती थी। वर्क फ्रॉम होमसे मुलाजिमोंके किरायेके पैसे भी तो बच रहे हैं। हालांकि बहुतसे पेशेवर यह भी कहते हुए मिल रहे हैं कि अब कंपनियां उनसे पहलेके मुकाबले अधिक काम करवाती हैं। मतलब उनके कामके घंटे बढ़ गये हैं। यह बात सच भी हो सकती है। परन्तु वर्क फ्रॉम होमके कुल जमा लाभके सामने तो कुछ घंटे अधिक काम करना कोई घाटेका सौदा नहीं है। आप अपने बीबी-बच्चोंके साथ जो हो। हालांकि यह मसला भी हल हो ही जायगा। इसकी वजह यह है कि किसी भी संस्थानके आला अफसरोंको पता होता है कि वह अपने कर्मियोंसे एक सीमासे अधिक काम नहीं करवा सकते। कोरोना कालने लगता है कि शहरी हिन्दुस्तानियोंको भांति-भांतिकी डिशेजका स्वाद लेनेकी आदत भी डाल दी है। अब अपने घरोंसे काम करनेवाले पेशेवर और कारोबारी भी शामका भोजन महीनेमें पांच-छह बार तो किसी रेस्तरांसे ही मंगवाते हैं। आप किसी मिडिल क्लास आवासीय कॉलोनीके गेटपर शामके वक्त खड़े हो जायं। आप देखेंगे कि मोटर साइकिलोंपर विभिन्न रेस्तरांमें काम करनेवाले आर्डरकी सप्लाई कर रहे होते हैं। यह पैकेड भोजन लानेवाले अपने साथ राजमा चावल या कढ़ी चावलसे लेकर दक्षिण भारतीय, गुजराती वगैरह व्यंजन भी ला रहे होते हैं। नॉन वेज डिशेजके कद्रदान अपने मनकी डिशेज मंगवा रहे होते हैं। आप समझ लें कि ३५ सालसे कम उम्रके हिन्दुस्तानी घरसे बाहरका भोजन अब भरपूर मात्रामें मंगवाने लगे हैं। हां, जिन बच्चोंके साथ उनके माता-पिता भी रहते हैं वहांपर तो घरमें खाना लगातार पकता है। दिनमें तो रसोईका इस्तेमाल होता है परन्तु शाम तो बाहरके किसी सुस्वादु भोजनके लिए ही तय होती है। यह है नये कोरोना कालमें विकसित हो रहे भारतका एक चेहरा है। आपको याद होगा कि हमारे घरोंकी मां और दादी कहती थीं कि शामको रसोई सूनी नहीं रहनी चाहिए। शामको रसोईमें कुछ दाल, सब्जी, रोटी अवश्य बननी चाहिए। परन्तु चूंकि मौजूदा पीढ़ीके पेशेवरोंका सैलरी बेहतरीन होती है तो यह लगातार बाहरसे भोजन मंगवा ही लेते हैं। इससे इनका बजट प्रभावित नहीं होता। अबतक हम समाजके पढ़े-लिखे और बेहतर कमाई करनेवाले वर्गकी बातें कर रहे थे। यदि बात कोरोना कालके कारण  उत्पन्न स्थितियोंकी करें तो लगता है कि शुरुआती झटकोंके बाद कारपेंटरपेंटर, इलेक्ट्रिशियन और पलंबर जैसे काम करनेवाले अब फिरसे पहले जैसे ही सक्रिय हो गये हैं। उत्तर भारतमें कारपेंटरके कामसे मुसलमानोंकी सैफी बिरादरीसे ताल्लुक रखनेवाले नौजवान जुड़े हैं। पलम्बर ज्यादातर उडिय़ा समाजसे हैं। यह भी अब अपने बच्चों तो स्कूलों-कॉलेजोंमें भेज रहे हैं।

कोरोनाके असरके कारण लकड़ीका काम करनेवाले कारपेंटर भी प्रभावित हुए थे। लगभग दसेक महीनेतक कामकाज बिल्कुल ठंडा रहा। अब इन्हें काम मिलना चालू हो गया है। यह भी दिन-रात काम करके पैसा कमा रहे हैं। अब सभी मेहनतकश अपनी जिन्दगीसे खुश है। इन्हें इतनी कमाई हो जाती है, ताकि जिन्दगी आरामसे कट जाय। इन्हें बदली-बदली-सी जिन्दगीसे कोई शिकायत नहीं है। यदि बात प्लंबरका काम करनेवालोंकी करे जो घरों-दफ्तरों वगैरहमें जाकर प्लंबरका काम करते हैं। देशमें प्लंबिंगके कामपर उड़ीसाके प्लंबरोंका लगभग एकछत्र राज है। इनकी वही स्थिति है जो अस्पतालोंमें केरलकी नर्सोंकी होती है। यह सुबह ही अपने औजारोंका बैग लेकर खास चौराहों या हार्ड वेयरकी दुकानोंपर मिल जाते हैं। वहांसे ही इन्हें लोग अपने घरों-दफ्तरोंमें ले जाते हैं या फिर इन्हें बुला लेते हैं। अपने काममें उस्ताद यह उडिय़ा प्लंबर एक बार जो अपने कामका दाम मांग लेते हैं फिर उससे पीछे नहीं हटते। यह रोजका कमसे कम करीब एक हजार रुपयेतक पैदा कर ही लेते हैं। कॉल दोसे ज्यादा हुई तो और भी ज्यादा। कोरोना कालने इनके काम-धंधेको भी चौपट कर दिया था। अब स्थिति सुधर रही है। मैंने प्लंबरोंसे बात की। पता चला कि इन्हें रोज लंचसे पहले कोई न कोई काम मिल ही जाता है। किसीका नल खराब, किसीका किचन सिंक होता गड़बड़, किसीका टॉइलेट फ्लश नहीं होता या लीक। इनके पास है इन सबका इलाज तो बात यह है कि कोरोना कालको जनताने अब जिन्दगीके हिस्सेके रूपमें स्वीकार कर लिया है। अब पेशेवरोंसे लेकर मेहनतकशोंतकको काम मिल रहा है। जिन्दगी पहलेकी तरहसे फिरसे चलने लगी है, परन्तु कुछ बदलावोंके साथ। यह सब कुछ संभव हुआ है, इनसानकी अदम्य जिजिविषाके कारण।