मोहन गुरुस्वामी
राष्ट्र वास्तवमें कभी असफल नहीं होते, भले उनपर दखल कर लिया जाता है, उनका विलय हो जाता है, वे पीछे चले जाते हैं या कभी-कभी गायब भी हो जाते हैं। राज्य यानी शासन तंत्र ही विफल होते हैं। इस मामलेमें भ्रम इसलिए रहता है कि हम राज्य और राष्ट्रका प्रयोग पर्यायके रूपमें करते हैं, जो ठीक नहीं है राज्य एक संघटित राजनीतिक समुदाय है, जो एक सरकारके तहत क्रियाशील रहता है, अंतरराष्ट्रीय कानूनमें उसे एक संप्रभु राजनीतिक इकाईके रूपमें मान्यता होती है तथा एक समाज है, जिसका एक क्षेत्रपर विशिष्ट वर्चस्व होता है। राज्य अधिकतर संदर्भोंमें सरकारका लगभग समानार्थी होता है, जिसका शासन लोगोंके एक समूह या क्षेत्रपर होता है। एक राष्ट्र राज्य ऐसा राज्य है, जो एक राष्ट्रके साथ आबद्ध होता है। राष्ट्र एक जटिल विचार है, जिसकी अनेक परिभाषाएं हैं। इसके दो विश्लेषण हैं। कुछके लिए राष्ट्र एक साझे सांस्कृतिक अनुभव को इंगित करता है, जैसे- इस्लाम, साम्यवाद या एक समय ईसाईयत भी, यानी एक संघटन, जो वास्तविक सीमाएं नहीं होनेके बावजूद साझा विश्वासोंके कारण साझा लगावको रेखांकित करता है। कई राज्योंमें फैले होनेके बावजूद कुर्द एक राष्ट्र हैं। सरल भाषामें कहें तो राज्य वह है, जिसकी स्पष्ट और स्वीकार्य सीमा है, जबकि राष्ट्र सीमाओंसे परे भी हो सकता है। आधुनिक भारत साझा सपनों और आकांक्षाओंका एक राज्य है। कभी-कभी राष्ट्रीयता साझे या समान मातृभूमिपर भी आधारित होती है। भारतीयोंके पास विविधताओंको जोड़े हुए एक राज्य है, जबकि यूरोप अब भी इसके लिए प्रयासरत है। इतिहास विफल राज्योंके उदाहरणोंसे भरा हुआ है। सोवियत संघ संभवत: सबसे बड़ा और शक्तिशाली राज्य था, जो असफल हुआ। लेकिन रूसी राष्ट्र अग्रसर होता रहा। इतिहास मुख्य रूपसे बड़े और कम बड़े राष्ट्रोंके उदय और पतनका ब्यौरा है क्योंकि एक दौरमें हमारे पास आम तौरपर राष्ट्र होते थे, जिनकी सीमाएं बदलती रहती थीं। करीब हजार साल पहले यूरोपका सबसे बड़ा राष्ट्र लिथुआनिया था। उसका शासन आजके यूक्रेन, पोलैंड, जर्मनी, रूस और स्वीडनके बड़े हिस्सेपर था। आज वह छोटा बाल्टिक राष्ट्र राज्य भर है। जब यूरोपपर स्वीडनका वर्चस्व था, तब रूसका अस्तित्व न के बराबर था।
स्वीडिश और जर्मन राज्योंके विनाशसे एलेक्जेंडर नेवस्कीका उदय हुआ और रूसका उद्भव हुआ, जो आज भी महान राष्ट्र है। मौर्य, गुप्त या मुगल साम्राज्योंके पतनके बाद भी भारत एक राष्ट्र बना रहा। यह अब भी एक-एक राष्ट्र राज्य है, जो मूल्यों और आकांक्षाओं तथा इतिहासकी साझी समझके आधारपर एकबद्ध है। इसी समझसे एक भारतीय अशोकके अभिलेखों एवं ताजमहलको समान गौरवबोधसे देख पाता है। इतिहासके प्रारंभसे केवल दो ही सभ्यतागत राष्ट्र राज्य- चीन और भारत। आज भी अस्तित्वमें हैं। अर्थशास्त्री एंगस मैडिसनके अनुसार शून्यसे वर्ष १७०० तक चीन और भारत दुनियाकी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं थीं। वैश्विक सकल उत्पादनमें प्रत्येककी भागीदारी २०-२५ प्रतिशत थी। अगले २५० वर्षोंके पतनके दौरके बाद १९५० में यह आंकड़ा केवल पांच प्रतिशत रह गया, परन्तु ये देश फिर बढ़तपर हैं तो क्या पतनके दौरमें ये राष्ट्र विफल हो गये थे। यह निर्विवाद है कि दोनों देशोंमें केंद्रीय सत्ता कमजोर हो गयी और विदेशियोंके हाथ चली गयी। डैरन एसमोग्लू और जेम्स रॉबिनसनने राष्ट्रोंकी लगातार विफलताका गंभीर विश्लेषण किया है। पुस्तकके शुरूमें ही उन्होंने अमेरिका-मेक्सिको सीमापर स्थित नोगालेस शहरका उल्लेख किया है, जिसे बाड़ोंसे विभाजित किया गया है। अमेरिकी हिस्सेमें विकास है, जबकि मेक्सिकोवाले हिस्सेमें पिछड़ापन। इसका कारण प्रारंभिक औपनिवेशिक दौरमें दोनों समाजोंके निर्माणमें देखा जा सकता है। एक तंत्रमें यूरोपके औपनिवेशिक मालिकोंके लिए जमीनका दोहन था तो दूसरेमें औपनिवेशिक आबादीकी बस्तियोंका विकास हुआ।
मतलब अमेरिकाने १७८३ में अपनेको आजाद नहीं किया होता तो उसके विकासकी कहानी अलग होती। वह किताब हमें बताती है कि किसी देशके धनी या गरीब होनेमें आर्थिक संस्थाएं बेहद अहम हैं, परन्तु यह राजनीति और राजनीतिक संस्थान ही तय करते हैं कि आर्थिक संस्थाएं कैसी होंगी। कुछ राज्योंकी संरचना अतिसक्रिय राजनीतिक संस्थानोंके इर्द-गिर्द होती है, जहां संस्थान एक छोटे आभिजात्य वर्गकी आकांक्षाओंको संतुष्ट करनेमें लगे रहते हैं। उपनिवेशवाद स्पष्ट रूपसे ऐसा ही तंत्र था। लेकिन क्या भारतमें अब भी ऐसा तंत्र सक्रिय है। कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि आंकड़े ऐसा ही इंगित करते हैं। इस दृष्टिसे देखें तो हम परिवार या वंशके वर्चस्ववाली पार्टियों और उच्च वर्गोंका विस्तार तथा परिवारके स्वामित्वके कारोबारोंकी बढ़ती ताकतको समझ सकते हैं। उन देशोंकी अतिसक्रिय राजनीतिक प्रणालियां हैं, जो समावेशी राजनीतिक और परिणामत: आर्थिक संस्थाओंपर आधारित हैं। इसे इंग्लैंडके औद्योगिक क्रांतिके केंद्र बननेकी प्रक्रियासे समझा जा सकता है। उसके पहले १६८८ की क्रांतिमें सम्राट जेम्स द्वितीयको हटाया गया था, जिसके बाद वहां आधुनिक संसदीय लोकतंत्रकी शुरुआत हुई। ब्रिटेनके इतिहासमें १६८९ के अधिकार विधेयकको अहम दस्तावेज माना जाता है, जिसके बाद कभी भी राजशाहीने पूरी राजनीतिक सत्ता अपने हाथमें नहीं ली। इससे बहुलतावादी राजनीतिक संस्थाओंका विकास हुआ, जिससे शिक्षाके नये द्वार खुले और बहुत समयसे एक छोटे वर्गके एकाधिकारमें दबी प्रतिभा शक्तिको उभरनेका मौका मिला। ऐसे ऐतिहासिक मोड़ दीर्घकालिक परिणामोंकी ओर ले जाते हैं। दूसरा ऐसा उदाहरण माओ त्से तुंगकी मौत और देंग शियाओपिंगका आना हो सकता है, जो एक ऐसी विशेष व्यवस्थामें रखे गये थे, जहां चीनी कम्युनिस्ट पार्टीके वरिष्ठ नेताओंको हिरासतमें रखा जाता था। शायद एक दिन इतिहास पीवी नरसिम्हा रावके प्रति अधिक उदार होगा, जिन्होंने एक सामान्य प्रशासनिक आदेशसे केंद्रीकृत योजनाबद्ध राज्य तथा उसके केंद्रमें बसे औद्योगिक नियंत्रणके खात्मेकी शुरुआत की।