सम्पादकीय

जाति समीकरण साधनेकी कोशिश


तारकेश्वर मिश्र   

कांग्रेसने पंजाबमें मुख्य मंत्री आखिरकार बदल ही दिया। कैप्टन और सिद्धूमें खींचतान काफी लंबे समयसे जारी थी। अन्तमें जीत सिद्धू खेमेकी हुई है। लेकिन कांग्रेसने अपने नये मुख्य मंत्रीको जिस तरह दलित मुख्य मंत्रीके तौरपर प्रचारित किया है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि कांग्रेसने अगले साल चुनावोंके मद्देनजर जाति कार्ड खुलकर खेलना शुरू कर दिया है। केवल कांग्रेस ही नहीं भाजपा, सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी, ओवैसीकी पार्टी सहित तमाम दल जातिकी राजनीति कर रहे हैं। उत्तर प्रदेशमें २०२२ में होनेवाले विधानसभा चुनावके मद्देनजर नये सियासी समीकरण और गठजोड़पर भाजपाने काम करना शुरू कर दिया है। २०१४ से जुड़े पिछड़े वोटबैंकको सहेजनेके लिए पार्टीने पिछड़े नेताओंपर अपनी निगाहें गड़ानी शुरू कर दी हैं। इसीलिए तो पिछले दिनों जब संसदमें मोदी सरकार ओबीसी लिस्ट बनानेका अधिकार राज्योंको देनेके लिए १२७वां संविधान संशोधन बिल लेकर अयी तो सभी दलोंने एकमतसे इसका समर्थन किया। करते भी क्यों नहीं, आखिर ओबीसी मतदाताओंको नाराज करनेकी हिमाकत कोई दल कर भी कैसे सकता है। देश और ज्यादातर प्रदेशोंमें सत्ताकी चाभी इसी मतदाता वर्गके पास जो है।

उत्तर प्रदेशमें अगले सालकी शुरुआतमें चुनाव भी होने हैं। इसलिए जातिगत जनगणनाकी मांग भी सभी दल एक स्वरमें कर रहे हैं। क्योंकि १९३१ के बादसे ओबीसीकी गणना हुई नहीं है। एससी और एसटीसे जुड़ा डेटा हर राष्टï्रीय जनगणनामें कलेक्ट तो किया जाता है लेकिन १९३१ के बादसे पब्लिश नहीं हुआ। उत्तर प्रदेशके जातिगत समीकरणोंपर नजर डालें तो इस राज्यमें सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग है। प्रदेशमें सवर्ण जातियां १८ फीसदी हैं, जिसमें ब्राह्मïण दस फीसदी हैं। पिछड़े वर्गकी संख्या ३९ फीसदी है, जिसमें यादव १२ फीसदी, कुर्मी, सैथवार आठ फीसदी, जाट पांच फीसदी, मल्लाह चार फीसदी, विश्वकर्मा दो फीसदी और अन्य पिछड़ी जातियोंकी तादाद सात फीसदी है। इसके अलावा प्रदेशमें अनुसूचित जाति २५ फीसदी हैं और मुस्लिम आबादी १८ फीसदी है। २०१४ के लोकसभा चुनावमें ओबीसीका एक बड़ा हिस्सा भाजपाके पालेमें आ गया था, जिसका लाभ २०१७ और २०१९ के चुनावमें भी मिला। इसीको देखते हुए पार्टी विभिन्न जातियोंके प्रभावकारी नेताओंको सहेजनेमें लग गई है।

उत्तर प्रदेशमें रालोद जाट और मुस्लिम समीकरण साधनेमें जुटी हैं वही दूसरी ओर बसपा भी प्रबुद्ध सम्मलेन कर ब्राह्मïणोंको सम्मान दिलानेकी लिये तत्पर दिख रही है। सूबाई सरकार भाजपा भी ब्राह्मïण वोट अपने पालेमें होनेका दम भर रही है। बीते विधानसभा चुनावमें ब्राह्मणोंका थोक वोट भारतीय जनता पार्टीके खातेमें गया था। अब विधानसभा चुनावके पूर्व सभी दलोंने ब्राह्मïण वोटको साधना शुरू कर दिया है। बात करें सपा और बसपाका तो इनका कोर वोटबैंक यादव-मुस्लिम और दलित-मुस्लिम रहे हैं। सवर्ण वोट बैंकमें ज्यादातर हिस्सेदारी भाजपा और कुछ कांग्रेसकी रही है। वहीं गैर-यादव ओबीसी मतोंका इन सभी दलोंके बीच बंटवारा होता रहा है। यह स्थिति २०१७ के पहलेतक थी। चूंकि उत्तर प्रदेशमें दलित वोट बैंक २१ फीसदी और मुस्लिम वोट बैंक १९ फीसदीके करीब है। दलित मतदाताओंका काफी लंबे समयतक बसपापर अटूट विश्वास रहा है। वहीं मुस्लिम, सवर्ण, ओबीसी वोट बैंकका समर्थन प्राप्त कर बसपा समय-समयपर उत्तर प्रदेशकी सत्तामें काबिज होती रही है। ओबीसी वोट बैंकका सबसे बड़ा हिस्सा यानी यादव (उत्तर प्रदेशकी आबादीमें दस फीसदी और ओबीसीकी आबादीमें १९ फीसदी) सपाके कट्टर समर्थक हैं। मुस्लिमोंकी बड़ी आबादीकी पहली पसंद सपा रही है। समय-समयपर गैर-यादव ओबीसी और सवर्ण वोटबैंकका समर्थन प्राप्त कर सपा भी उत्तर प्रदेशकी सत्तामें काबिज होती रही है।

भाजपाने न केवल उत्तर प्रदेश, बल्कि तमाम चुनावी राज्यों और जहां उनकी सरकारें हैं वहां जाति समीकरण साधनेकी कवायद शुरू कर दी है। पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह अकसर बदली हुई राजनीतिकी बात करते रहे हैं, जिसमें जाति और धर्मके आधारपर गणितकी कोई जगह नहीं है। हरियाणामें गैर-जाट सीएम खट्टर, गुजरातमें जैन समुदायके रूपाणी और महाराष्टï्रमें ब्राह्मïण नेता देवेंद्र फडणवीसको सीएम बनाकर भाजपाने इस बातको जमीनपर भी लागू करनेका प्रयास किया था। लेकिन अब ऐसा लगता है कि पार्टी अपनी इस रणनीतिमें करेक्शन कर रही है। मुख्य मंत्रियोंको बदलनेसे इसकी झलक मिलती है। गुजरातमें पार्टीने चुनावसे ठीक एक साल पहले रूपाणीको हटाकर भूपेंद्र पटेलको सीएम बनाया है। पाटीदार समुदायसे आनेवाले भूपेंद्र पटेलको लाना इस बिरादरीको साधनेकी कोशिश माना जा रहा है।

उत्तराखंडमें भी देखें तो त्रिवेंद्र सिंह रावतको हटाकर भाजपा तीरथ सिंह रावतको लायी और फिर उन्हें भी हटानेकी नौबत आयी तो ठाकुर बिरादरीसे ही पुष्कर सिंह धामीको चुना। इसके अलावा कर्नाटकमें बीएस येदियुरप्पाको हटानेके बाद भी नया सीएम पार्टीने प्रभावशाली लिंगायत समुदायसे ही चुना है। इन बदलावोंसे माना जा रहा है कि आनेवाले दिनोंमें हरियाणाके सीएम मनोहर लाल खट्टर और महाराष्टï्रके नेता विपक्ष देवेंद्र फडणवीसको भी पार्टी मुख्य भूमिकासे हटा सकती है। दोनों ही नेताओंको पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाहने राज्यके जाति समीकरणोंसे परे जाकर चुना था। मनोहर लाल खट्टर जाटलैंड कहे जानेवाले हरियाणामें पंजाबी समुदायसे आते हैं। वहीं देवेंद्र फडणवीस मराठा राजनीतिके खांचेमें फिट नहीं बैठते और ब्राह्मïण समुदायसे आते हैं। गुजरातकी बात करें तो पाटीदार आन्दोलनके दौरान भाजपाने विजय रूपाणीको सीएम बनाया, जो जैन समुदायसे आते हैं। वह राज्यके सीएम बननेवाले पहले जैन थे। तब माना जा रहा था कि भाजपाने जातिकी राजनीतिको कड़ा संदेश दिया है, लेकिन पांच साल बाद राजनीतिने पूरी तरहसे यूटर्न ले लिया है। अब भाजपाने फिरसे पाटीदार नेतापर ही दांव लगाया है। कहा जा रहा है कि २०१७ में महज ९९ सीटें जीत पानेसे भाजपा सचेत है और अपने गढ़को बचानेके लिए उसने जातिगत समीकरणोंके साथ ही जानेका फैसला लिया है। राजनीतिक जानकारोंका कहना है कि भाजपाने राज्योंमें अनुभवी नेताओंकी बजाय सरप्राइज देते हुए जूनियर नेताओंको सीएम बनाया है। इस तरहसे पार्टीने दो समीकरण साधे हैं कि सीएम कोई भी रहे, चेहरा पीएम मोदीका ही रहेगा। इसके अलावा जातिके समीकरणोंका ध्यान रखा है। दरअसल पार्टी मानती है कि चुनावमें उतरनेके लिए अब भी पीएम मोदीका चेहरा सबसे भरोसेमंद है। ऐसेमें जाति समीकरणोंको साधते हुए उन नेताओंको चुना जाय, जो नये हैं और उनके खिलाफ किसी तरहकी एंटी-इन्कमबैंसी नहीं है। इस तरह पार्टीने एक फैसलेसे दो समीकरणोंको साधनेके प्रयास किये हैं। कुल मिलाकर अगले साल कई राज्योंमें विधानसभा चुनावोंके मद्देनजर सभी राजनीतिक दल जातिके समीकरण फिट करनेमें लगे। जैसे-जैसे चुनावका समय नजदीक आयगा जाति आधारित राजनीति और तेज होगी।