सम्पादकीय

किसानोंको मोहरा बनाते सभी राजनीतिक दल


रवि शंकर
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्थाकी रीढ़ है। सभी व्यवस्थाएं अर्थव्यवस्थासे जुड़ी हैं। वर्तमानमें करीब ७० फीसदीसे ज्यादा कृषि आधारित व्यवस्था मुनाफा कमा रहे हैं लेकिन इस खाद्य श्रृंखलामें किसान ही है। उसे प्रकृतिकी मार, बाजारका शोषण, हरित क्रांतिकी दोषपूर्ण व्यवस्था और नयी आर्थिक नीतिका हमला, सब एक साथ झेलना पड़ रहा है। किसानोंकी विपदाका इतिहास उतना ही पुराना है, जितना इस देशके योजनात्मक आर्थिक विकासका। वहीं राजनीतिक पार्टियोंके लिए भी कृषक एक बड़ा वोट बैंक है, इसलिए चुनावी मौकोंपर उनकी बातें होती हैं। परन्तु कृषि संकट दूर करनेके नामपर किये जानेवाले उपायोंका लाभ मु_ीभर बड़े किसानोंको मिलता है। दिन-प्रतिदिन खस्ताहाल हो रहे छोटे किसानोंकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है। केंद सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनोंको वापस लेनेके लिए किसान आंदोलन कर रहे हैं। सियासी दल धरतीपुत्रोंके हिमायती हो चले हैं। यह वास्तविक दर्द है या फिर वोटोंकी चिंता। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सभी किसानके हकमें खड़े हैं। लेकिन किसानोंको सरकार द्वारा लाये गये तीनों कानून रास नहीं आ रहे हैं। उनका कहना है कि इन कानूनोंसे किसानोंको नुकसान और निजी खरीदारों एवं बड़े कॉरपोरेट घरानोंको फायदा होगा। इतना ही नहीं, किसानोंको फसलका न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जानेका भी डर है। जिससे छोटे और मझौले किसानों बर्बाद हो सकते हैं। यही वजह है कि हरियाणा एवं पंजाबके किसान संघटन लगातार तीनों कृषि कानूनोंको विरोध कर रहे हैं। दूसरी तरफ सरकारका तर्क है कि नये कानूनोंसे किसानोंको मंडीके आढ़तियोंपर निर्भरता खत्म होगी और वह अपनी फसलको कहीं भी बेच सकेंगे। इससे कृषि उत्पादोंकी खरीद-बिक्रीमें कुशलता पारदर्शिता और बाधारहित व्यापारको प्रोत्साहन मिलेगा। अच्छा होता यदि किसानोंसे चर्चाके बाद ही कानूनमें संशोधन किये जाते। राष्ट्रपिता महात्मा गांधीने किसानोंको भारतकी आत्मा कहा था। बावजूद इसके किसानोंकी समस्याओंपर ओछी राजनीति करनेवाले ज्यादा और उनकी समस्याओंकी तरफ ध्यान देनेवाले कम हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि मौजूदा लोकसभाके ३८ प्रतिशत सांसद किसान हैं। यह आश्चर्यकी बात है कि भारतमें हर तीनमेंसे एक सांसद किसान है। साफ है कि किसानोंका नेतृत्व ऐसे लोगोंके हाथमें है, जो राजनीतिक लाइनपर दिशा दे रहे हैं। इससे किसानोंको कितना भला होगा, कहना मुश्किल है। विडंबना है कि देशके किसानोंके नामपर राजनीति तो खूब होती है, परन्तु किसान खुद राजनीति नहीं कर पाता।
भारतमें कृषि बाजारका दुनियाका सबसे बड़ा तंत्र है, लेकिन यह तंत्र तब महत्वहीन हो जाता है, जब इससे किसानोंको कोई फायदा नहीं मिलता। देशकी अर्थव्यवस्थाके विकासमें किसानोंका अहम योगदान है। भारतीय अर्थव्यवस्था जब-जब मुश्किलोंमें फंसी है, कृषि क्षेत्रने ही उसे मूलत: खाद-पानी दिया है। बावजूद किसानोंकी समस्याएं कम होनेकी बजाय दिन-ब-दिन बढ़ी एवं जटिल हो रही हैं। कृषि और किसान कल्याणको लेकर जब हम ठोस रणनीतिकी बात करते हैं तो उसमें सबसे पहले ८६ प्रतिशत लघु और सीमांत किसानोंकी बात आती है जो लगातार हाशियेपर जा रहे हैं। दरअसल लाभकारी मूल्यकी व्यवस्थाका लाभ मुख्यत: चारसे छह प्रतिशत धनी किसानों एवं कुलकोंको होता है। २०१३ की नेशनल सैम्पल सर्वे रिपोर्टके अनुसार देशके एक-तिहाई किसानोंके पास ०.४ हेक्टेयरसे कम जमीन है। उनकी कुल आमदनीका केवल छठा हिस्सा, यानी १६ प्रतिशत ही खेतीसे आता है और अन्य ८४ प्रतिशत मजदूरीसे आता है। इसके अलावा एक-तिहाई किसानोंके पास ०.४ हेक्टेयरसे १ हेक्टेयर जमीन है। इनकी कुल आमदनीका ४० प्रतिशत खेतीसे आता है और अन्य ६० प्रतिशत मुख्यत: श्रमसे आता है। इन दोनोंको मिला दिया जाय तो कुल किसान आबादीका ७० प्रतिशत बनता है। अहम बात यह है कि यह किसान मुख्य रूपसे कृषि उत्पादोंके खरीदार हैं, न कि विक्रेता। नतीजतन लाभकारी मूल्यमें होनेवाली किसी भी वृद्धिसे इन्हें फायदा नहीं, बल्कि नुकसान होता है। वजह यह है कि लाभकारी मूल्यके बढऩेके साथ हमेशा ही कृषि उत्पादोंकी कीमतों और साथ ही अपने उत्पादनके लिए उनपर निर्भर औद्योगिक उत्पादोंकी कीमतोंमें भी वृद्धि होती है।
आंकड़ोंके अनुसार इन ७० प्रतिशत किसानोंका अपने उपभोगपर खर्च इनकी आमदनीसे ज्यादा रहता है। नतीजतन अपने खेतोंपर काम करनेके लिए चालू पूंजीके लिए यह ऋणपर निर्भर रहते हैं। यह ऋण इन्हें वित्तीय संस्थाओंसे नहीं मिलता क्योंकि बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थानोंके ऋणतक इनकी पहुंच ही नहीं है। इसीलिए यह ऋण इन्हें धनी किसान, कुलक एवं आढ़ती देते हैं। इसके अलावा यह धनी किसान, कुलक एवं आढ़ती इन्हें लाभकारी मूल्य एवं बाजार कीमतसे बेहद कम दामपर अपने उत्पादको उन्हें बेचनेके लिए बाध्य करते हैं। शांता कुमार कमेटीकी रिपोर्टके अनुसार देशके सभी किसानोंमेंसे केवल ५.८ प्रतिशत किसान ही लाभकारी मूल्यपर अपने उत्पादको बेच पाते हैं और यह भी अपने उत्पादका १४ से ३५ प्रतिशत ही लाभकारी मूल्यपर बेच पाते हैं। यही वजह है कि लाभकारी मूल्यका भी पूरा लाभ केवल धनी किसान ही उठा पाते हैं, न कि उच्च मध्यम एवं मध्यम किसान।
हालांकि भारतमें किसानोंकी आर्थिक हालतको बेहतर करनेके मकसदसे १८ नवंबर २००४ को केंद्र सरकारने कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथनकी अध्यक्षतामें राष्ट्रीय किसान आयोगका गठन किया था। इस आयोगने पांच रिपोर्ट सौंपी थीं लेकिन इस रिपोर्टपर आजतक संसदमें चर्चातक नहीं हुई है। आयोगकी सिफारिशके अनुसार किसानोंको न्यूनतम समर्थन मूल्यका डेढ़ गुना दिया जाना चाहिए और सरकार यह दावा भी करती है। लेकिन किसान अपनी फसलोंकी गणनाके तरीकेपर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। कर्ज किसानोंकी बड़ी समस्या है। आयोगकी रिपोर्टमें बताया गया था कि भारतमें ५२.५ फीसदी किसान भारी कर्जेमें दबे हुए हैं। नाबार्डकी एक रिपोर्टके अनुसार २०१७-१८ तक कृषि कर्ज ६१ फीसदी बढ़कर ११.७९ लाख करोड़ रुपयेतक पहुंच गया था। पिछले कुछ वर्षोंमें किसानोंका वोट लेनेके लिए राजनीतिक दलोंने कर्जमाफीके चुनावी वादेका इस्तेमाल किया है। लेकिन कभी भी किसानोंकी समस्याओंको जड़से मिटानेकी ईमानदार कोशिश नहीं हुई। दरअसल हमारी विकास नीतिमें उस कृषिको लगातार नजर अंदाजकिया गया है जो भारतकी परम्पराओं, यहांके स्वभाव, आवश्यकताओंके अनुसार लम्बे काल खंडमें सुदृढ़ हुई थीं तथा जिसके लिए किसी दूसरेपर निर्भर रहनेकी कतई आवश्यकता नहीं थी।