सम्पादकीय

जनसंख्या जनगणना नीतिके निहितार्थ


 राघवेन्द्र सिंह

हमारे देशकी यह नीति इस आधारपर काम कर रही है कि वर्ष २०४५ तक देशमें बढ़ती आबादीपर लगाम लग सके, इस दिशामें ही हमारी सरकार कई कार्यक्रम तेजीसे चला रही है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है, जब आगे आनेवाले वर्षोंमें शिशु जन्मदरमें कमी आयेगी, उसके साथ युवा आबादी भी बुजुर्ग होती जायेगी तथा साथ-साथ हमारा मानव संसाधन भी कमजोर होता चला जायेगा, अत: आज हम जिसे सटीक तथा सही मान रहे हैं वह उचित नहीं है। उसमें कई खामियां नजर आ रही है। असलमें हमें इस प्रकार जनसंख्या नीति बनानी चाहिए कि आगे आनेवाले कई सौ वर्षोंतक देशका परिदृश्य न बदले। हमारी इस दिशामें उचित सोच न होनेके कारण ही वर्तमानमें हमारे देशमें युवा आबादीकी भरमार है। लेकिन कुछ बीस-तीस वर्षों बाद यही आबादी बूढ़ी हो जायेगी। तब बुजुर्गोंकी भरमार हो जायेगी। यही वर्ष २०४५-२०५० के आस-पास शिशु जन्मदरमें कमी आनेका अनुमान है। जिसके कारण हमारे देशमें बेतहाशा युवा आबादीकी कमी आयेगी, जिसके कारण देशका परिदृश्य भी बदलेगा तथा विकास भी पिछड़ेगा। हमारे देशकी जनसंख्या नीतियां मुख्य रूपसे हम दो तथा हमारे दो या बेटा हो या बेटी एक ही अच्छेके आस-पास घूमती है। सरकारें मानती रही यह नीतियां काफी कामयाब रहीं। लेकिन देखा जाय, इसका विपरीत असर भी पड़ा। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, चंडीगढ़, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार सहित देशके काफी भागोंमें लड़कियोंकी आबादीमें कमी आयी, जिससे सेक्स अनुपातमें संतुलन गड़बड़ाया, अब भ्रूणहत्या निषेध कानून इस अन्तरको पाटनेकी कोशिशमें जुटा है। इस तरह हमारे देशमें सेक्स अनुपातकी परिभाषा प्रति हजार पुरुषोंपर आधारित है, जबकि दुनियाके कई देशोंमें यह अनुपात प्रति हजार स्त्री तय है। एक बात और है कि हमारे देशमें शिशु पंजीकरण प्रणालीकी स्थिति भी बेहतर नहीं है। अधिकतर हम आंकड़े अस्पतालोंसे प्राप्त करते है। जबकि हमारे देशके कई पिछड़े क्षेत्रोंमें बच्चेकी जनन प्रक्रिया घरोंमें ही होती है। जिससे आंकड़ोंकी गलतियोंकी गुंजाइश बनी रहती है। वर्ष २०१४ से पहले हमारी केन्द्र सरकारोंमें कमी भी देशकी आबादीको विकासके हथियारके तौरपर इस्तेमाल नहीं किया। वर्ष २०१४ के बाद हमारी केन्द्र सरकारने कई योजनाओंके माध्यमसे देशकी युवा आबादीको राष्ट्रकी मुख्यधारासे जोडऩेका प्रयास किया तथा कुछ हदतक सफल भी रहे। इस क्षेत्रमें चीनका उदाहरण बेहतर होगा। जिसमें कई वर्षोंकी बेहताशा बढ़ती आबादीका इस्तेमाल राष्ट्रके विकासके तौरपर किया तथा आज वह विकसित देशोंकी सूचीमें शामिल है। चीनने अपने विकासको निरन्तर बनाये रखनेके बाद यह फैसला लिया कि वह अपनी आबादीपर नियंत्रण भी लगायेगा तथा उसने लगाया भी।

आज हमारे देशमें हम दो हमारे दो विषयपर सहमति-सी बन गयी है। लेकिन दो कौन लड़का या लड़की, इस विषयपर राष्ट्र मौन है। क्या यह बेहतर नहीं होता कि हम जनसंख्या नीतिपर व्यवहारिक सोच अपनाते हुए इस बातकी इजाजत देते कि बेटे तथा बेटी दोनों अनिवार्य है। हमारे देशमें आबादीको प्रभावित करनेवाले मुख्यत: तीन कारक है, आबादीकी प्राकृतिक तौरपर वृद्धि, पलायन तथा भौगोलिक। देशकी जनगणनाको बुनियादी पृष्ठोंसे जोडऩेकी जरूरत है। विशेषकर उदारीकरणके प्रभावोंको समझनेके लिए इसे और भी व्यापक धरातल तथा गहन तौरपर किया जाना चाहिए। आज वर्तमानमें ऐसे बहुतसे पृष्ठ है जिनका सीधा सम्बन्ध सामाजिक-आर्थिक सन्तुलन एंव खुशहालीके सूचकांकसे है। उत्पादन तथा उपभोग दो मापदण्ड पश्चिममें लागू किये है। इसके साथ व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामुदायिक जीवनकी स्थिरता, संवेदनशीलता तथा सन्तुष्टिसे जोड़कर देखनेपर हम प्रति व्यक्ति आय और खपतके साथ खुशहालीका भी सूचकांक बना पायेंगे। उत्पादन तथा उपभोगके मापदण्डोंमें आर्थिक गतिविधियोंको शुद्ध लाभ-हानि, आर्थिक वृद्धिसे जोड़ दिया है। व्यक्ति, परिवार, समुदाय, परम्परा, सांस्कृतिक सोचसे सब इस पूंजीवादी विकासकी प्रक्रियामें न सिर्फ अप्रासंगिक, बल्कि नकारात्मक माने जा रहे है। अत: जो लोग आर्थिक सम्पन्नतामें सम्पन्न है। उनका एक बड़ा वर्ग पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओंसे जूझ रहा है तथा जो वंचित है वह अस्तित्वके लिए संघर्ष कर रहे है। अत: आगामी जनगणनाकी प्रक्रियाका उपयोग यदि सामाजिक-आर्थिक पक्षोंको समझनेके लिए किया जाता है तो इसके परिणाम सुखद होंगे। जनगणनाका उपयोग हम आयु वर्गकी गिनती, बोली, भाषा आदिसे इतर करेंगे तो यह मात्र शैक्षणिक उपयोगका विषय बनकर रह जायेगा। कुछ है जिनका स्पष्टताके साथ उत्तर ढूंढ़ा जाना चाहिए। जैसे आयके स्थायी श्रोत भूमि तथा पूंजीपर व्यक्ति/परिवारका स्वामित्व, व्यक्तिकी कुशलता, श्रमशक्तिके रूपमें अर्थव्यवस्थामें योगदानकी क्षमता तथा महिलाओंकी शिक्षा, रोजगार, राजनीतिमें भागीदारी, शहरीकरण आदि यह तो सही है, जनसंख्या वृद्धि दरमें लगातार कमी आती जा रही है। लेकिन इस दरमें सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक, लिंगानुपात आदि भी बना रहना चाहिए।

मुस्लिम समाजमें धार्मिक तथा परम्परागत कारणोंसे जनसंख्या नियंत्रणका अभियान प्रभावी नहीं हो पाता। इस समाजमें जनसंख्या नियंत्रणके साधनोंका कम उपयोग करना, इसका मुख्य कारण है। यदि हम २०११ की जनगणनाके मुताबिक पिछले दशकोंके दौरान मुस्लिमोंकी जनसंख्या देखें तो २४ प्रतिशतकी वृद्धि हुई, जिसमें देशकी कुल जनसंख्यामें मुस्लिमोंकी जनसंख्या १३.४ प्रतिशतसे बढ़कर १४.२ प्रतिशत हो गयी। असममें मुस्लिमोंकी जनसंख्या २००१ में ३०.९ प्रतिशत थी, जो एक दशक बाद वर्ष २०११ में ३४.२ प्रतिशत यह जनसंख्या पश्चिम बंगालमें २५.२ प्रतिशत थी, जो २७ प्रतिशत हो गयी, उत्तराखण्डमें ११.९ से १३.९ प्रतिशत, केरलमें २४.७ से बढ़कर २६.६, गोवामें ६.८ से बढ़कर ८.४, जम्मू-कश्मीरमें ६७ से बढ़कर ६८.३, हरियाणामें ५.८ से बढ़कर ७ तथा दिल्लीमें ११.७ से बढ़कर १२.९ प्रतिशत हो गयी।

हालांकि हमारे देशमें अप्रैल २०२१ में देशकी सोलहवीं जनगणनाका प्रथम चरण प्रारम्भ होनेवाला था। लेकिन करोना कारणोंके चलते इसे आगामी कुछ समयके लिए स्थगित कर दिया गया है, जिसको जल्द ही प्रारम्भ होनेकी संभावना है। वर्ष २०११ में हुई पन्द्रहवीं भारतीय जनगणनामें १९३१ के बाद पहली बार सामाजिक, आर्थिक और जातिकी स्थितिके आधारपर जनसंख्याका अनुमान लगानेका प्रयत्न किया गया। जिसके बेहतर परिणाम भी प्राप्त हुए। अब होनेवाली जनगणना पहलेसे कुछ अलग इसलिए भी होगी कि वह पूरी तरह कागज रहित होगी, इसकी पूरी प्रक्रिया डिजिटल होगी। जो सरकार द्वारा जारी एक मोबाइल ऐपके द्वारा पूरी की जायेगी। दुनियाकी सबसे बड़ी आबादीकी जनगणना जल्द ही प्रारम्भ होनेवाली है। जिसमें ६४० जिले, ५७६७ तहसीलें, ७७४२ शहरों तथा छह लाख गांवको खंगाला जायेगा, जिसमें लगभग ९००० करोड़के आस-पासका खर्चा भी आयेगा। इस जनगणनामें बहुत बड़ा श्रम तथा साधन लगानेवाले हैं। बेहतर हो उक्त जनगणना प्रारम्भ होनेमें अभी समय है। जिसके लिए एक बेहतर कार्ययोजना बनायी जाय, जो आगे आनेवाले दस वर्षोंतक प्रभावी ही न रहे, बल्कि उसका उपयोग देशके विकास सहित हर क्षेत्रमें किया जा सके। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उक्त जनगणना भी मात्र एक आंकड़ोंका ग_र बनकर रह जायेगी।