सम्पादकीय

सार्थकता


ओशो

महावीरने कहा है जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरोंके लिए भी चाहो और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरोंके लिए भी मत चाहो। तुम एक महल बनाना चाहते हो तो तुम चाहोगे कि दूसरा कोई एेसा महल न बना ले। यदि सभीके पास वैसे ही महल हों तो फिर तुम्हें मजा ही नहीं आयेगा। फिर तो उस उपलब्धिका अर्थ ही क्या रहा। अपने लिए सुख, दूसरेके लिए दुख। क्योंकि जीवन प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता, महत्वाकांक्षा है। लेकिन सुख हमारा दूसरेके दुखमें है। सारी प्रसन्नता किसीकी उदासीपर खड़ी है। सारा धन दूसरेकी निर्धनतामें है। लाख तुम दूसरेके दुखमें सहानुभूति प्रगट करो, जब भी दूसरा दुखी होता है, कहीं गहरेमें तुम सुखी होते हो और तुम्हारी सहानुभूतिमें भी तुम्हारे सुखकी भनक होती है। तुमने कभी पकड़ा सेवयंको सहानुभूति प्रगट करते हुए? किसीका दिवाला निकल गया, तुम सहानुभूति प्रकट करने जाते हो। कहते हो, बड़ा बुरा हुआ। लेकिन कभी अपना चेहरा आईनेमें देखा, जब तुम कहते हो बड़ा बुरा हुआ तो कैसी रसधार बहती है। जब किसीको लाटरी मिल गयी हो तब तुम कहने गये कि बहुत अच्छा हुआ। जब कोई सुखी होता है, तब तुम अपना सुख प्रगट करने नहीं जाते, तब तो ईष्र्या पकड़ लेती है। तब तुम कहते हो, धोखेबाज है, बेईमान है। तब परमात्मासे कहते हो, यह क्या हो रहा है तेरे जगतमें? पापी और व्यभिचारी जीत रहे हैं और पुण्यात्मा हार रहे हैं। पुण्यात्मा यानी तुम। पापी यानी वे सब जो जीत रहे हैं। महावीर इस पहले सूत्रमें ही तुम्हें मौतका पहला पाठ देते हैं। चाहकी जड़ ही काट दी। कहा, जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरोंके लिए भी मत चाहो। लोगोंने अपने लिए तो स्वर्गकी कामना की और दूसरोंके लिए नर्कका किया है। यदि तुम अपने लिए नर्क नहीं चाहते तो दूसरेके लिए भी मत चाहो। यह महावीरका आधार सूत्र है। यह बड़ा सीधा और सरल दिखता है ऊपरसे लेकिन इसका जाल बहुत गहरा है और सूत्र बड़ी गहराईमें तुम्हारे अचेतनको रूपांतरित करने वाला है। यदि तुम एक भी सूत्रका पालन कर लो तो तुम्हें पूरा धर्म उपलब्ध हो जायेगा। अपने लिए वही चाहो जो तुम दूसरोंके लिए भी चाहते हो। इसके बाद अचानक तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवनकी आपाधापी खो गयी। तुम पाओगे कि प्रतिस्पर्धा मिट गयी, महत्वाकांक्षाको जगह न रही। यही ‘जिन शासन’ है।