हृदयनारायण दीक्षित
मनोनुकूल वक्तव्य प्रिय लगते हैं। हम सब वरिष्ठोंके वक्तव्य सुनते हैं। वक्ता कभी-कभी हमारे मनकी बात भी कहते हैं। वक्ता मूलत: अपने मनकी बात करते हैं लेकिन उसके मनकी बात हमारे मनसे मिलती है। हम प्रसन्न होते हैं।
हम मनोनुकूल वक्तव्य सुनकर ही वक्तासे प्रभावित होते हैं। दूसरेसे प्रभावित होनेका मुख्य कारण हमारा स्व-भाव ही होता है लेकिन हमारा स्वभाव निरपेक्ष नहीं है। प्रकृतिमें कोई भी सत्ता निरपेक्ष नहीं। प्रकृतिका प्रत्येक अंश परस्परावलम्बनमें है। सभी मनुष्य पदार्थ हैं। सबका शरीर पदार्थ है लेकिन इस पदार्थमें प्राण भी है। प्राण प्रत्यक्ष नहीं है। मनुष्योंकी गतिविधिसे प्राण स्पंदनका पता चलता है। एडिंगटनने लिखा है कि सोच-विचारके प्रथम चरणमें समझता था कि विश्व एक पदार्थ है। बादमें ज्ञात हुआ कि जगत पदार्थ नहीं विचार है। जगत वास्तवमें एक विचार है। लेकिन इस विचारमें भी पदार्थका साझा है। यह जिस सीमातक पदार्थ है, उस सीमातक विज्ञानका विषय है। इसके बाद विचार है। तब इसका विषय दर्शन है। दर्शनके निष्कर्ष भिन्न-भिन्न होते हैं। हमारी दार्शनिक अनुभूतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। हमारे मनकी मूल अनुभूति निर्णायक होती है। सभी मनुष्य अपनी मूल अनुभूतिके प्रभावमें होते हैं अर्थात्ï स्वयं प्रभावित। भारतीय परम्परामें वृद्धावस्था सम्माननीय है। वृद्धोंके पास जीवन जगतके अनुभव होते हैं। हम ऋषियोंके काल्पनिक चित्र बनाते हैं। चित्रोंमें बुढ़ापेके रंग भरते हैं। ऋषियोंके युवा चित्र नहीं मिलते। हम ऋषियोंकी वृद्धावस्थाको अनुभव एवं अनुभूतिसे जोड़ते हैं। हम देवोंके भी काल्पनिक चित्र बनाते हैं। श्रीकृष्णके चित्रको नाचते गाते, रासलीला करते देखते हैं। श्रीकृष्ण संपूर्ण अस्तित्व धारण करते हैं। उनकी शैशवास्था एवं तरुणाई मोहित करती है। हम भारतवासी तरुण, ईश्वर पसंद हैं। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे गये हैं। श्रीकृष्ण और श्रीराम भारतीय अध्यात्मिकके चित्तके प्रतीक हैं। वह सतत् युवा हैं। नयी तकनीकीसे सबका चित्र बनाना सर्वसुलभ हैं। युवाका चित्र सुंदर हो सकता है लेकिन युवा बने रहनेकी समय-सीमा है। चित्र स्थिर होते हैं। तरुणाईका चित्र वृद्धावस्थासे भिन्न होता है। कोई हमेशा युवा नहीं रह सकता। बुढ़ापा आता ही है। बाल श्वेत होते हैं। दांत साथ छोड़ जाते हैं। बाल काला रंगनेकी तकनीक आ गयी है। शिशुकी सुन्दरता दिव्य होती है और तरुण की भी। लेकिन इनके पास अनुभव नहीं है। जीवनके अनुभव वृद्धावस्थामें पूर्ण होते हैं। बुढ़ापा जीवनकी सांझ है। इस सांझका अपना सौन्दर्य है। अनुभवी वृद्ध अपनी ही अनुभूतिसे प्रभावित होते हैं।
समाज सेवक दूसरोंकी सेवाको श्रेष्ठ बताते हैं। यह यश देती है लेकिन दूसरोंकी सेवा करना स्वाभाविक नहीं है। कोई भी दूसरा हमारे स्वका भाग नहीं होता। हमारे जीवनका अंतर्तम् हिस्सा स्व है। बहुत लोग घर छोड़कर संन्यासी हो जाते हैं। भारतमें संन्यासी आदरणीय हैं। हम उन्हें घर-परिवार त्यागते हुए देखते हैं। घर-परिवार सबके प्राथमिक राग हैं। ऐसे राग स्वाभाविक हैं। पारिवारिक रागको त्यागनेवाले वस्तुत: अपने विचारके लिए ही सक्रिय होते हैं। अपने विचारके लिए कर्म करना स्वाभाविक है। दूसरोंका हित साधन स्वाभाविक नहीं है। हमारा ‘स्वÓ सतत् विस्तारमान भी हो सकता है। हम इकाई हैं और अस्तित्व अनंत। स्वयंको अनंतका भाग जान लेनेसे दूसरापन समाप्त हो जाता है। समूचा अस्तित्व हमारे स्वका भाग हो जाता है। तब हमारे द्वारा किये जानेवाले सभी कार्य हमारे अपने कार्य हो जाते हैं। भारतीय चिंतनमें स्वके लिए काम करना स्वार्थ कहा जाता है। इसी तरह संपूर्ण अस्तित्वके लिए काम करना परमार्थ है। परमार्थ स्वार्थका ही अनंत विस्तार है। स्वार्थ प्रारम्भ है और परमार्थ अंतहीन अंत।
अस्तित्वका स्वभाव महत्वपूर्ण है। प्रकृतिके गुण अपना प्रभाव डालते हैं। यह बात कपिलके सांख्य दर्शनमें है। मनुष्य और प्रकृतिके मध्य अंतर्विरोध भी होते हैं। सामाजिक अंतर्विरोध स्वभावके अनुसार जीनेमें बाधक हैं। इस व्यथासे पीडि़त कुछ लोग भक्तिकी शरणमें जाते हैं। भक्तिके लिए दोकी जरूरत पड़ती है। पहला उपास्य और दूसरा उपासक या भक्त। भक्ति आराध्यके समक्ष संपूर्ण आत्मसमर्पण है। तमाम भक्त अराधनामें नाचते-गाते भी हैं। भक्ति-सूत्रोंके अनुसार इस काररवाईमें निजता समाप्त हो जाती है। भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। संन्यास इससे भिन्न है। संन्यासी प्राय: सांसारिक, सामाजिक आचार-शास्त्र नहीं मानते। वह संसार और समाजकी विसंगतियोंके प्रभावमें नहीं आते। जान पड़ता है कि वह स्वयं अपने स्वभावमें ही जीते हैं और स्वभाव अध्यात्म है। संन्यासी सम्माननीय हैं। ज्ञान-मार्गी ज्ञानको सर्वोच्च मानते हैं। माना जाता है कि ब्रह्मïके जानकार ब्रह्मï हो जाते हैं। बौद्धिक लोग तमाम न्नेतोंसे सूचनाएं एकत्रित करते हैं। उनका विश्लेषण एवं विवेचन करते हैं। जगत् गतिशील है। संसारमें प्रतिपल घटनाएं एवं दुर्घटनाएं हैं। राजनीतिक गतिविधियोंके अम्बार हैं। अंतर्ताना (इंटरनेट) तकनीकीमें सूचनाओंका विस्फोट है। यहां शोधकी बड़ी सुविधा है। लेकिन बोधकी कोई सुविधा नहीं है। सूचना और ज्ञानमें मूलभूत अंतर है।
अस्तित्वकी दृश्य एवं अदृश्य काररवाई और उससे मनुष्यका सम्बंध, ज्ञान है। इसके लिए स्वयंका बोध जरूरी है। ज्ञानी पूर्वज, जीवन और मृत्युके रहस्योंके अनावरणमें संलग्न थे। उन्होंने मनुष्य और ब्रह्मïाण्डकी संरचना एक समान बतायी है। ‘शतपथ ब्राह्मïणÓ के रचनाकार मनुष्यकी संरचनापर आश्चर्यचकित थे। लिखा है कि मनुष्यको कौन जानता है? मेरा विनम्र मत है कि मनुष्यको केवल स्वयं प्रभावित मनुष्य ही जान सकता है। हम स्वयंको जानकर ही अस्तित्वका ज्ञान पा सकते हैं। मनुष्य-शरीरकी बात अलग है। चिकित्सा-विज्ञानी शारीरिक संरचना जानते हैं, लेकिन मनुष्य-मस्तिष्ककी तमाम जानकारियां अब भी अधूरी हैं। मनुष्य जटिल संरचना है। मनुष्यका अंत:करण भी अज्ञेय है। इसे पूरी तरह नहीं जाना गया। मेरे मनमें इसको लेकर तमाम प्रश्न हैं- मेरे चित्तमें क्रोधका केन्द्र कहां है? मनोभावोंका उद्भव कैसे होता है? हम गलत कर्मके लिए लज्जित होते हैं। प्रश्न है कि लज्जित होनेकी काररवाईका संचालन कैसे होता है? शरीरमें प्रेमका केन्द्र क्या है? क्या प्रेम हमारी भौतिक गतिविधि है? क्या प्रेम वास्तवमें कोई घटना है? क्या प्रेम होता है? क्या प्रेमभाव आध्यात्मिक है? स्वयं द्वारा किये गये किसी कार्यपर पश्चाताप होनेकी गतिविधिका केन्द्र क्या है? सौन्दर्यबोधका कारण क्या है? हम रूप, रस, गंधसे क्यों और कैसे प्रभावित होते हैं? आस्था और श्रद्धा भी प्रत्यक्ष नहीं है। यहां सारे प्रश्न-प्रतीक व्यक्ति-व्यक्ति भिन्न हैं। सभी व्यक्ति लज्जित नहीं होते। सभी मनुष्य प्रेमी नहीं होते। सभी व्यक्ति पश्चाताप नहीं करते। सबके स्वभाव भिन्न हैं। स्वभाव ही महत्वपूर्ण है। स्वभावकी भिन्नताके कारण प्रत्येक मनुष्य अनूठा और अद्वितीय है। कोई भी मनुष्य दूसरे जैसा नहीं है। स्वभावका प्रभाव दर्शनीय है और विवेचन-विश्लेषणके योग्य भी है। विवेचन भी एक कर्म है। क्या इसका प्रेरक तत्व स्वभाव है। स्वभाव ही महत्वपूर्ण है।