बिहारके गोपालगंजमें जहीरीली शराबकी बरामदगीके मामलेमें अदालतने नौ अभियुक्तोंको दोषी करार देते हुए मृत्युदण्डकी सजा सुनायी। साथ ही चार महिलाओंको आजीवन कारावासकी सजा भी सुनायी है तथा इन चारों महिलाओंपर दस-दस लाखका अर्थदण्ड भी लगाया है। सन्ï २०१६ में जहरीली शराब पीनेसे १९ लोगोंकी मृत्यु हो गयी थी। जीवनके साथ खिलवाड़ करनेवाले मनुष्य रूपमें नरपिचाशोंको मृत्युदण्डकी सजा बिल्कुल उचित न्याय है। इससे निश्चित रूपसे समाजमें सन्देश जायगा कि अमानुषीय कृत्यके लिए मृत्युका प्रावधान होना ही चाहिए। देशमें कानूनका सही तरीकेसे पालन हो जाय तो कई समस्याएं स्वत: ही समाप्त हो जायगी। इस दृष्टिïसे देखा जाय तो द्वितीय अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश लवकुशने उचित निर्णय दिया है। परन्तु हमारे देशमें राजनीतिक इच्छाशक्तिके अभावमें ही इस प्रकारके धन्धे फलते-फूलते हैं जिसमें आम गरीब जनता शिकार बन जीवनसे हाथ धो बैठती है। अवैध जहरीली शराबका धन्धा पूरे देशमें नासूर बनकर फैला है। आम तौरपर देखा गया है कि ग्रामीण एवं गरीब जनताको शराब सेवनका आदी बनानेके लिए पहले उन्हें मुफ्तमें शराब मुहैया करायी जाती है। जब वह लती हो जाता है तो सस्ती शराबके नामपर जहरीली शराबका सेवन करनेको मजबूर हो जाता है। रासायनिक पदार्थोंसे निर्मित इस प्रकारके मादक पदार्थसे जीवन तबाह हो रहे हैं। नशा अभिशाप है। इसे पीनेवाला जीते-जी नारकीय जीवन व्यतीत करता है। नशा अब अन्तरराष्ट्रीय विकराल समस्या बन गयी है। इस अभिशापसे मुक्ति पानेमें ही समाजकी भलाई है। यदि नशेके कारोबारियोंको इस प्रकार मुत्युदण्डकी सजा मिले तो समाजमें जहर परोसनेवालोंमें डरका वातावरण बनेगा, जहर बांटनेके प्रचलनमें कमी आयगी तथा यह वर्जनीय माना जाने लगेगा। समाजमें पनप रहे विभिन्न प्रकारके अपराधोंका एक कारण नशा भी है। विडम्बना है कि सामाजिक हितोंसे सम्बन्धित तमाम मुद्दों एवं उनसे जुड़े नकारात्मक प्रभावोंपर आन्दोलन होते हैं परन्तु आये दिन जहरीली शराबके सेवनसे होती मृत्युपर जिम्मेदारीका निर्वहन नहीं होता। जहरीली शराबसे मृत्युपर एक-दो दिनतक प्रमुखताके साथ बहस होती है फिर मामला ठण्डे बस्तेमें चला जाता है और मौतके सौदागरोंका व्यवसाय पुन: फलने-फूलने लगता है। कम लागत और मार्जिन अधिकके लालचमें रसायनोंको मिलाकर साक्षात मौतको परोसनेके सिलसिलेको रोकना होगा। यह तभी सम्भव होगा जब इन कारोबारियोंको इसी प्रकार मृत्युदण्ड दिया जाय। दरअसल जहरीली शराबका कारोबार करनेवालोंका जाल काफी बड़ा है। यह व्यवस्थाका एक अंग बन गया है। एक ओर अवैध शराबकी बरामदगी दिखायी जाती है, परन्तु थोड़े अन्तरालके बाद ही जहरीली शराबका धन्धा पुन: ढर्रेपर लौट आता है। अवैध कारोबारमें स्थानीय पुलिसकी भागीदारी भी सुनिश्चित होती है। यही वजह है इन कारोबारियोंमें कानून-व्यवस्थाका भय नहीं रहता। इस प्रकार यदि सजा मिले तो मृत्यु परोसनेका कारोबार बंद होगा।
अमानवीय कृत्य
उत्तर प्रदेशके प्रयागराजमें प्राइवेट अस्पतालकी अमानवीयताका मामला सामने आया है। यहां इलाजके लिए पूरे रुपये देनेमें असमर्थ परिवारकी तीन वर्षीय बच्चीके साथ अमानवीय कृत्य किया गया, जिसे सुनकर कठोर व्यक्तिका हृदय भी छलनी हो जायगा। गरीबीका दंश इस प्रकार हावी रहा कि तीन वर्षकी बच्चीको आपरेशन टेबलसे बिना पेट सिले ही बाहर कर दिया गया। बच्चीकी हालत बिगड़ती चली गयी। अन्तत: उसने दम तोड़ दिया। इस हृदयविदारक घटनाके पीछे चीत्कार करती मानवताने घुटने टेक दिये। प्रयागराजके रहनेवाले पिताकी तीन वर्षीय बच्चीको पेटकी परेशानी थी। उसे प्राइवेट अस्पतालमें भर्ती कराया गया। कुछ दिन बाद बच्चीके पेटका आपरेशन किया गया। अभागा पिता बच्चीके आपरेशनका खर्च नहीं उठा पाया और अपने जिगरके टुकड़ेको सदा-सर्वदाके लिए खो दिया। सरकारी अस्पतालोंमें मरीजोंकी लाइन इतनी लम्बी होती है कि इलाज कराना एवरेस्टकी किसी चोटीको फतह करने जैसा होता है। छटपटाते मरीजको सर्वप्रथम सही इलाज मिलनेकी इच्छा लिये परिजन प्राइवेट अस्पतालकी ओर रुख करते हैं। परन्तु प्राइवेट अस्पताल इस प्रकार लूट-खसोट करते हैं कि परिजन अपना सबकुछ बेचनेके बाद भी सही इलाजका दिवास्वप्न ही लिये बैठे रहते हैं। अस्पतालकी संवेदनहीनता यहीं नहीं रुकती, वह गरीब परिजनोंके साथ जिस प्रकारका व्यवहार करते हैं उससे मानवता भी शर्मसार होने लगती है। हालांकि इस मामलेमें जांच कमेटी बैठा दी गयी है। परन्तु यह नाकाफी है। दोषियोंपर शीघ्रातिशीघ्र काररवाई होनी चाहिए जिससे भविष्यमें कोई भी पिता अपने जिगरके टुकड़ेको यूं न खोये। भारतीय संविधानके अनुच्छेद २१ के अन्तर्गत स्पष्टï निर्देश है कि सभीको इलाज पानेका मौलिक अधिकार है। अस्पतालोंकी बेहतरीन इलाज उपलब्ध करानेकी जिम्मेदारी है। इसके बावजूद अस्पतालोंमें दोहन होता है। कई ऐसे मामले भी सामने आये हैं जिनमें चिकित्सकोंकी लापरवाहीके चलते मरीजकी स्थिति बिगड़ी है और अन्तत: उसे बचाया नहीं जा सका है। अस्पताल और डाक्टर्सके लिए मरीज मात्र एक केस होता है परन्तु वहीं, मरीज अपने परिवारके लिए मजबूत स्तम्भ होता है। चाहे वह भावनात्मक रूपसे हो या आर्थिक रूपसे उसका परिवारमें मजबूत अस्तित्व होता है। भगवानका दर्जा पाये यही डाक्टर्स और अस्पताल कब हैवानियतका चोला पहनकर सामने आ जाय, कहा नहीं जा सकता। अत: इस प्रकारकी घटनाएं आगे न हों, सरकारको कठोर निर्णय लेना ही होगा।