सम्पादकीय

नारी अस्मितापर नये तर्कोंका औचित्य


निर्मल रानी

भारतीय महिलाएं दिन-प्रतिदिन अपने कौशल एवं साहसका परिचय दे रही हैं। कभी अंतरिक्षमें भारतीय ध्वज लहराकर, कभी विश्वके सबसे लंबे एवं खतरनाक वायुमार्गपर विमान उड़ाकर, कभी युद्धक विमानको कलाबाजियां खिलाकर। यानी जटिल क्षेत्रोंमें भी महिलाओंने अपने अदम्य साहस, हौसले एवं सूझ-बूझका परिचय दिया है। परन्तु दुर्भाग्यवश महिलाओंके साथ होनेवाले दुराचार एवं हत्याओंकी खबरोंने मनको उद्वेलित कर दिया है। परन्तु हमारे देशके अति दूषित मानसिकता रखनेवाले कलंकी लोगोंका एक कुरूपित चेहरा है जो नारीका शोषण करता है। देशमें अनेकानेक घटनाएं ऐसी भी हो चुकी हैं जिससे पता चलता है कि महिलाएं जब अपनी शिकायत दर्ज कराने पुलिस चौकी या थाने पहुंचती हैं उस समय पीडि़त महिलासे ही इस तरहके इतने सवाल किये जाते हैं कि जैसे सारा दोष पीडि़त महिलाका ही हो। इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि पुरुषोंकी ज्यादतीकी शिकार यही महिला अपने साथ होनेवाली घटनाके बाद समाज द्वारा बुरी एवं अपमान जनक नजरोंसे देखी जाती है। जैसे अपने साथ हुई ज्यादतीकी जिम्मेदार पुरुष नहीं, बल्कि वह स्वयं है।

एक ओर तो भारतीय महिलाएं अपने साहस, कौशल, पराक्रम एवं हौसलेका लोहा मनवाते हुए नित्य नये कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं। उधर पुरुष समाजको कलंकित करनेवाले सरफिरे नारी स्मिताकी धज्जियां उड़ानेमें कोई कसर बाकी नहीं रखना चाह रहे तो एक ओर हमारे ही देशमें अभीतक यही निर्धारित नहीं हो पा रहा कि यौन शोषण एवं शारीरिक शोषणकी परिभाषाएं क्या हों। हमारे देशकी अदालतें यही तय कर रही हैं कि पुरुषके किस सीमाको यौन शोषण माना जाये। वैसे तो नीति शास्त्रके लोगोंका मानना है कि मनमें किसी तरहके पापका विचार आना ही पाप किये जानेके समान होता है। पश्चिमी देशोंमें भी लोग अपने बच्चोंको शारीरिक स्पर्शको ‘गुड टचÓ एवं ‘बैड टचÓ के रूपमें अलग अलग तरीकोंसे शिक्षित करते हैं। महिलाओंमें पर्दा एवं घूंघट प्रथाके पीछेका भी कड़वा सच यही है कि औरत गैर-पुरुषोंकी कुदृष्टिसे बची रहे। हर जगह पुरुषको पूरी छूट एवं स्वतंत्रता है जबकि महिलाओंको ही सारे परदे, घूंघट एवं सुरक्षा संबंधी उपाय करने जरूरी बताये गये हैं।

यौन शोषणके ही एक मामलेमें पिछले दिनों मुंबई उच्च न्यायालयकी नागपुर बेंचकी एकल पीठ द्वारा एक आश्चर्यजनक निर्णय सुनाया गया जिसने यौन शोषणकी परिभाषाको और भी विस्तृत किया है। एक व्यक्ति १२ वर्षकी एक बच्चीको अमरुद देनेकी लालच देकर अपने घर ले गया। वहां उसने बच्चीसे छेड़छाड़ की। इस बीच पीडि़ताकी मां अपनी बच्चीको तलाश करते हुए दुष्कर्मीके घर पहुंची। तभी बच्चीने अपने साथ हुए जुल्मकी सारी कहानी अपनी मांको सुना डाली। उसी बयानके आधारपर आरोपीके विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया। अब इसी मामलेके संबंधमें मुंबई उच्च न्यायालयकी नागपुर पीठकी न्यायाधीश पुष्पा गानेडीवालाने यौन शोषणकी परिभाषाको और अधिक विस्तृत रूपसे बयान किया। माननीय न्यायाधीशके अनुसार केवल स्पर्श करने मात्रको यौन शोषण नहीं माना जा सकता, बल्कि यौन शोषणके इरादेसे किया गया संपर्क ही यौन शोषण माना जा सकता है। हालांकि सर्वोच्च न्यायलयने मुंबई उच्च न्यायालयकी नागपुर बेंचके उस निर्णयपर रोक लगा दिया है। परन्तु सवाल यह है कि जिस समाजमें धर्म-समाज एवं नैतिक शिक्षा यह बताती हो कि बुरे इरादों या बुरी नीयत मात्रसे ही आप पापके भागीदार हो जाते हैं। उसी समाजमें नासिक न्याय पीठका यौन शोषणकी सीमाओंको विस्तार देनेवाला यह निर्णय समाजको क्या दिशा देगा। हमारे देशमें भीड़-भाड़वाले स्थानोंपर अक्सर लड़कियोंको शोहदोंकी गलत हरकतोंका शिकार होना पड़ता है।

मनचले प्राय: भीड़में अवसर पाकर महिलाओंके साथ छाड़छाड़ करते हैं। दिल्लीका निर्भया काण्ड भी मनचलोंको मिलती आ रही ऐसी ही खुली छूटका ही चरमोत्कर्ष था। ऐसेमें किसी बच्ची या महिलाको उसकी इच्छाके विरुद्ध छूनेमें भेद करना अदालतकी नजरमें मुनासिब हो सकता है, अदालती फैसलेका सम्मान भी है परन्तु इस फैसलेसे शोहदोंके हौसले और बुलंद होंगे और शारीरिक स्पर्श एवं शारीरिक छेड़छाड़की घटनाओंमें इजाफा भी हो सकता है। अफसोस इस बातका भी है कि भारत सहित पूरी दुनियाकी महिलाएं जहां इतिहासमें अपनी शौर्य गाथाएं दर्ज करा रही हैं वहीं हम नारी स्मिताको सम्मान देनेके कीर्तिमान स्थापित करनेके बजाय अबतक यौन शोषणके नित्य नये तर्क एवं परिभाषाएं गढऩेमें व्यस्त हैं।