सम्पादकीय

ऋग्वेद दर्शन प्रथम जागरण काल


हृदयनारायण दीक्षित

प्राचीनताका बड़ा भाग प्रेरक और गर्व करने योग्य होता है। अंग्रेजोंने प्रचारित किया कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। अंग्रेजी सभ्यता प्रभावित विद्वानोंने मान लिया कि हम कभी राष्ट्र नहीं थे। अंग्रेजोंने ही भारतको राष्ट्र बनाया।

बीसवीं सदीके सबसे बड़े आदमी महात्मा गांधीने अंग्रेजोंको चुनौती दी। उन्होंने १९०९ में हिन्द स्वराजमें लिखा,आपको अंग्रेजोंने बताया है कि भारत एक राष्ट्र नहीं था कि अंग्रेजोंने ही यह राष्ट्र बनाया। लेकिन यह सरासर झूठ है। भारत अंग्रेजोंके यहां आनेके पहले भी एक राष्ट्र था। गांधी जीने भारतको प्राचीन राष्ट्र बताया। प्राचीन भारत राष्ट्रके साथ एक राज्य रूपमें भी था। मौर्य काल इसकी सबसे बड़ी ऐतिहासिक गवाही है। तब यूरोप सहित दुनियाके अधिकांश भू-भागोंके पास राष्ट्रकी कल्पना भी नहीं थी। विश्वके अन्य देशोंमें राष्ट्र जैसी कल्पना भी ११वीं सदीके पहले नहीं मिलती। भारतीय राष्ट्र हजारों वर्ष पुराना है। ऋग्वेद विश्वका प्राचीनतम ज्ञान संकलन है। ऋग्वेद जैसा प्रीतिपूर्ण, ज्ञान-विज्ञानयुक्त काव्य अचानक नहीं उग सकता। इसके पहले एक विशेष प्रकारकी संस्कृति और वैज्ञानिक दृष्टिकोणवाला दर्शन भी रहा होगा। ऋग्वेदमें ज्ञान, विज्ञान है, अप्रतिम सौन्दर्यबोध है, इतिहासबोध है-पूर्वज परम्पराके प्रति आदरभाव है। प्रकृतिके प्रति प्रीति है। प्रकृति रहस्योंके प्रति ज्ञान अभीप्सु दृष्टि भी है। जल-नदियां, पृथ्वी माताएं हंै, आकाश पिता है। ढेर सारे गण हैं, गणोंसे बड़े समूह जन हैं। ‘वैदिक एजÓ में पुसाल्करने बताया है, ऋग्वेदमें उल्लिखित जन उत्तर पश्चिममें गांधारि, पक्थ, अलिन, भलानस और विषाणिन हैं। सिंध और पंजाबमें शिव, पर्शु कैकेय, वृचीवन्त्, यदु, अनु, तुर्वस, द्रुह्यु थे। पूरबमें मध्यदेशकी ओर तृत्सु, भरत, पुरू अैर श्रृंजय थे। ऐसे सभी जनों, नदियों और बड़े भू-भागमें रहनेवाले मनुष्योंकी एक संवेदनशील संस्कृति है इसलिए वह एक राष्ट्र हैं।

ऋग्वेदमें राष्ट्र सम्वद्र्धनकी स्तुतियां हैं। यजुर्वेद और अथर्ववेदमें राष्ट्रके समग्र वैभवकी प्रार्थनाएं हैं। ऋग्वेदमें सप्त सिंधु सात नदियोंका विशेष उल्लेख है। ‘वैदिक इंडेक्सÓ के (खण्ड २ पृष्ठ ४२४) में मैक्डनल और कीथने इसे एक ‘सुनिश्चित देशÓ माना है। ऋग्वेदमें गण है, गणसे मिलकर बने ‘जनÓ है। यहां पांच जनोंकी ‘पांचजन्यÓ विशेष चर्चा है अश्विनी कुमारोने पांचजन्य कल्याणमें प्रवृत्त अत्रिको सहयोगियों सहित मुक्त करवाया। पांच जनोंके देशमें सात मुख्य नदियां हैं। ऋग्वेदमें सप्तसिंधु और पंचजन बार-बार आते हैं। सिन्धु मुख्य नदी है परन्तु सरस्वतीकी प्रार्थनाएं ज्यादा हैं। सरस्वती भी पांचजनोंको समृद्धि देती है। यहांके निवासी पांच जन आदि धरतीको मां और आकाशको पिता कहते है। जल धाराएं उनके लिए ‘आप: मातरम्Ó हैं। एक विशेष प्रकारकी संस्कृति है सामूहिक चित्त है और सत्य अभीप्सु जीवनशैली है। धरती माता है। आकाश पिता हैं। भरी-पूरी भू-सांस्कृतिक निष्ठा है। यह राष्ट्र ऋग्वेदसे भी पुराना है।

ऋग्वेदमें इन्द्र और वरूण आराध्य देव हैं। ऋषि दोनोंसे राष्ट्र आराधना करते हैं आपका द्युलोक जैसा राष्ट्र सबको आनंदित करता है। ऋग्वेदके वरूण श्रेष्ठ शासक हैं, वे ‘राष्ट्राणांÓ शासनकत्र्ता है। ऋग्वेदके इक्ष्वाकु ऐतिहासिक हैं लेकिन इन्द्र, अग्नि, वरूण देवता हैं। सभी देवोंसे प्रार्थना है कि वे राष्ट्रको मजबूती दें-इन्द्र: च अग्नि: च ते राष्ट्रं धु्रवं धारयातम्। ऋग्वेदमें वरूणका शासक रूप है। ऋग्वेदमें अनेक स्थलोंपर आया ‘राष्ट्रÓ एक सुनिश्चित भू-प्रदेश, एक विराट जन और एक प्रवाहमान जीवंत संस्कृतिकी सूचना है। यहां एक सुदीर्घ प्राचीन परम्पराके साक्ष्य हैं। इस राष्ट्रको सनातन कहना ही ठीक होगा। राष्ट्र भू-सांस्कृतिक प्रतीति और अनुभूति है। इस अनुभूतिका एक प्राचीन प्रवाह है। ऋग्वेदसे लेकर अथर्ववेदतक राष्ट्रभावकी अनुभति लगातार गाढ़ी हुई है। अथर्ववेदका पृथ्वी सूक्त मातृभूमिकी आराधना है। यही अनुभूति आधुनिक कालतक व्यापक और विस्तृत हुई है। बंकिमचंद्रका वंदेमातरम् इसी प्रवाहका विस्तार है।

भारतीय जागरण और यूरोपीय पुनर्जागरण (रिनेसां) में अंतर करना चाहिए। भारतमें ऋग्वेद और उसका दर्शन प्रथम जागरण काल है। लेकिन ऋग्वेदके पहले कोई अंधकार काल नहीं। उपनिषदोंका दर्शन ऋग्वैदिक कालका ही प्रवाह है। इसी तरह भारतके सभी परवर्ती दर्शन इसी धाराका विकास हैं। यूरोपीय पुनर्जागरण बहुत बादका है। इसके सैकड़ों वर्ष पहले भारतमें ज्ञान विज्ञान उच्चतर तर्क-वितर्क और दर्शनकी शुरुआत हो चुकी थी। कृषि सम्मुनत थी। कृषि, पशुपालन और बढ़ईगीरी, लोहारी आदि हुनर विकसित हो चुके थे। इनके खास जानकार-विषय विशेषज्ञ भी विकसित हो रहे थे। सभा समितियां भी ऋग्वैदिक कालमें ही अपना काम कर रही थीं। ऐसा जागरण यूरोपमें १५वीं सदीतक भी नहीं हो पाया। यूरोपीय समाजमें अंधकार था। भारतमें तबतक तीसरे पुनजागरण ‘भक्ति प्रवाहÓ का दौर था। माक्र्सवादी विचारकोंने इसे ‘भक्ति आन्दोलनÓ कहा है। उनके अनुसार यह वर्ण व्यवस्था आदिकी प्रतिक्रिया थी लेकिन वास्तवमें यह उच्चस्तरीय वेदान्तका लोकप्रवाह था। भक्तिने वेदान्तके सीमित प्रवाहको असीमित विस्तार दिया और एक ही परम सत्यका सगुण प्रवाह समूचे लोकमें छा गया। भारतीय राष्ट्रभाव दुनियाके अन्य देशोंसे भिन्न है। राष्ट्रका विकास यहां राजनीतिक काररवाई नहीं है और न ही राष्ट्र राजनीतिक इकाई है। मनुष्य-मनुष्यकी प्रीतिसे संघटित मानव समूह/समाज बनते हैं। इसीसे मानव समूहकी साझी आचार संहिता विकसित होती है। इससे साझा रस, जीवन, छन्द औरसामूहिक आनन्द मिलता है। सामूहिकतासे जुड़े ऐसे सभी रचनात्मक कर्म ‘संस्कृतिÓ कहलाते हैं। कृषि आवास और सामूहिक अनुभूतिसे यह समूह अपनी भूमिसे स्वाभाविक प्रेम करने लगता है। भूमि, जन और संस्कृतिकी त्रयी मिलती है। तीनोंमेंसे कोई एक बेकार हैं।

निर्जन भूमि बेमतलब है। बिना भूमिवाले जन असहाय होते हैं। संस्कृतिविहीन मनुष्य पशुसे भी बदतर होते है। भूमि, जन और संस्कृतिकी त्रयी मिलकर एकात्म राष्ट्र बनाती है। भारतीय राष्ट्रभावका स्वाभाविक विकास हुआ है। अथर्ववेदके एक मंत्रमें ‘राष्ट्रके जन्मÓ का इतिहास है। कहते है, भद्रमिच्छन्त ऋषय:-ऋषियोंने सबके कल्याणकी इच्छा की। उन्होंने आत्मज्ञानका विकास किया। कठोर तप किया। यहां कठोर तप कठोर कर्म है। फिर कहते हैं, दीक्षा आदि नियमोंका पालन किया। उनके आत्मज्ञान, तप और दीक्षासे ततो राष्ट्रं बलम् ओजस् जातं-राष्ट्र बल और ओजका जन्म हुआ। दिव्य लोग इस (राष्ट्र) की उपासना करें। ‘परिचयÓ असाधारण काररवाई है। नाम स्थान पूछ लेना या अपना नाम स्थान बता देना काफी नहीं है। धर्म, मत, मजहब और पंथ भी परिचयके हिस्से हैं लेकिन ‘राष्ट्रीयताÓ इन सबसे बड़ी है। यह अतिमहत्वपूर्ण है। भारतमें इसका बोध पुनर्बोध करानेकी प्राचीन परम्परा है। जन्मोत्सव, विवाह, गृहप्रवेश सहित सभी प्रीतिकर अनुष्ठानोंमें संकल्प लेते समय पूरा परिचय दोहराया जाता है – जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते सहित नगर गांव दोहराकर प्राचीन राष्ट्रीय अनुभूति बताते हैं। फिर युग और मन्वन्तर वर्ष संवत्सर, माह, दिन, तिथि बताकर कालके प्रवाहका परिचय देते हैं। फिर नाम, पिताका नाम, प्राचीन गोत्र वंश दोहराकर पूर्वज/ऋषि परम्परासे जोड़ते हैं और तब सम्बन्धित कार्यका संकल्प लेते हैं। पूरे परिचयको दोहरानेकी यह परम्परा राष्ट्रबोध जगाती थी। भारत प्राचीन राष्ट्र था और है।