सम्पादकीय

 कुटिल नीतिका शिकार किसान


 देविंदर शर्मा 

भारतीय और यूरोपियन किसानके बीच तुलनात्मक अध्ययनमें पाया गया कि भारतके खेतोमें फसल उगानेके लिए होने आनेवाला खर्च क्योंकि अपेक्षाकृत कम है तो उन्हें अंतरराष्ट्रीय व्यापारका विकल्प खुलनेका कोई आर्थिक लाभ हुआ है। यह वह आम धारणा है, जिसे मुख्यधाराके अर्थशास्त्रियोंने किसानोंके विरोधके बावजूद व्यापार संधिपर हस्ताक्षरको न्यायोचित बतानेके लिए तैयार किया था। उनमें एक तर्क तो विश्व व्यापार संघटनकी इस संधिको किसानोंके लिए बड़ा धमाकेदार मौका बतानेतक चला गया। इस उम्मीदके साथ कि कृषि उत्पादके निर्यातमें बहुत बड़ा उछाल आयगा, किसानकी आमदनी बढऩेका कयास लगाया था, जिससे भारतीय कृषिकी सूरतमें बदलाव आना तय माना गया था। लेकिन इस बातके कोई पुख्ता सुबूत उपलब्ध न होनेके कारण और बताये जा रहे कथित फायदोंके नदारद होनेपर भारतीय किसानकी तुलना यूरोपियन नस्लकी गायसे की गयी। विश्व व्यापार संघटनके अस्तित्वमें आनेके लगभग २६ साल बीतनेके बाद, कृषि और ग्रामीण भारतपर राष्ट्रीय सांख्यिकी संघटनकी पिछले हफ्ते आयी नवीनतम रिपोर्टमें जो मंजर सामने आया है, वह शोचनीय है। यह वस्तुस्थिति आकलन अध्ययन वर्ष २०१८-१९ में हुआ था। सर्वे रिपोर्टमें आयके हिसाबसे किसान और गाय लगभग एकसे हैं, लेकिन जो कुछ सामने आया है वह भयावह है- एक औसत भारतीय किसानकी कमाई खेत-मजदूरसे भी कम है। यदि आजादीके ७५ साल भी किसानोंकी आमदनी अपने खेतोंमें काम करनेवाले मजदूरसे कम है तो यह दिखाता है कि जानबूझ कर बनायी गयी आर्थिक नीतियोंका मंतव्य कृषककी आमदनी इतनी कम रखना है कि मजबूरन खेती छोड़ शहरोकी ओर पलायन करे, क्योंकि वहां सस्ते मजदूरोंकी जरूरत है और बरसोंसे यही लीक चल रही है।

वर्ष २०१२-१३ में जब आखिरी वस्तुस्थिति आकलन अध्ययन हुआ था, तब एक कृषक परिवारकी आमदनी कुल उपजकी लगभग ४८ फीसदी थी जो वर्ष २०१८-१९ आते.आते ३८ प्रतिशतसे नीचे चली गयी। जबकि इसी अवधिमें केवल खेत-मजदूरके वेतनका हिस्सा ३२ फीसदीसे बढ़कर ४० प्रतिशत हो गया। औसत कृषक परिवारकी आमदनीका एक बड़ा हिस्सा वेतन देनेमें निकल जाता है और उम्मीद है आनेवाले सालोंमें भी यह चलन बना रहेगा। कुल किये गये भुगतानके आधारपर की गणनाके मुताबिक एक किसान परिवारकी कुल मासिक आय १०,२१८ रुपये बैठती है। यदि इसकी तुलना वर्ष २०१२-१३ में रही आय यानी ६४२६ रुपयेसे करते हुए और मुद्रास्फीति जोडऩेके बाद इसमें १६ फीसदीकी मामूली वृद्धि हुई है। किये गये भुगतान और अन्य अवयवोंको शामिल करनेके बाद वर्ष २०१८-१९ में किसानकी औसत मासिक आय ८३३७ रुपये बनती है। इस अन्य अवयवोंका मतलब है। खेती करनेमें घर खर्चसे डाला गया पैसा, बकाया मजदूरी, मशीनरी, बीज इत्यादिपर पल्लेसे किया खर्च। तथापि जहांतक फसल उगानेकी बात है, एक औसत कृषक परिवारकी वर्ष २०१८-१९ में मासिक आय ३७९८ रुपये रही थी। जब इसमें मुद्रास्फीतिको भी जोड़ें तो २०१२-१३ से २०१८-१९ के बीच आयमें दरअसल ८.८ प्रतिशतकी कमी हुई है। इसको आगे यदि दिहाड़ीके हिसाबसे बताया जाय, जैसा कि एक अखबारमें छपा हैरान करनेवाला विश्लेषण बताता है तो खेतीसे हुई रोजाना आय मात्र २७ रुपये बैठती है! यहांतक कि मनरेगामें काम करनेवाला मजदूर इससे ज्यादा दिहाड़ी बना लेता है। इससे केवल वही निष्कर्ष निकलता है, जो मैं सालोंसे कहता आया हूं, किसानको मिल रही भोजन पैदा करनेकी सजा। किसी भी सूरतमें खेतीसे होनेवाली रोजाना आय एक दुधारू गायसे होनेवाली आयसे भी कम है, क्योंकि डेयरीसे निकलनेवाले एक लिटर दूधकी थोक कीमत लगभग ३० रुपये है। जितनी कृषि आय कम होगी उतना ही आगे कर्ज लेनेमें मुश्किल पेश आयगी, कई बार विभिन्न स्रोतोंसे ऋण लेना पड़ता है। किसानके सिर औसत कर्ज, जो वर्ष २०१२-१३ में ४७००० था वह २०१८-१९ में बढ़कर ७४१०० रुपये हो गया। भारतके कुल किसानोंका लगभग आधा यानी ५०.२ प्रतिशतपर कर्ज बकाया है। हैरानी है कि मिजोरममें बकाया ऋणमें भारी-भरकम ७०९ फीसदीकी वृद्धि हुई है, इसके बाद सूचीमें उत्तर-पूरबसे असम और त्रिपुराका स्थान है।

मार्च, २०२१ के अंतमें संसदको बताया गया है कि किसानोंकी तरफ रहता कुल बकाया ऋण १६.८ करोड़ है, सूचीमें सबसे ऊपर तमिलनाडु है। यह देखते हुए कि भारतमें लगभग ७७ फीसदी परिवार खेती आधारित स्वरोजगारवाले हैं और इनमें ७०.८ फीसदीके पास एक हेक्टेयरसे भी कम कृषि भूमि है। १ से २ हेक्टेयर वाले किसानोंकी गिनती केवल ९.९ प्रतिशत है। परिवारकी कृषिसे होनेवाली आय वह मानी जाती है, जहां एक घरमें ४००० रुपयेसे ऊपरकी आमदनी खेती और अन्य संबंधित गतिविधियोंसे हुई हो और घरका कमसे कम एक सदस्य सालभर किसानी करता हो। अब देशभरमें चूंकि दस हेक्टेयरसे ज्यादा भूमिवाले किसान महज ०.२ प्रतिशत हैं तो यह तथ्य उस भ्रामक प्रचारकी हवा निकालनेको काफी है, जिसमें कहा जा रहा है कि मौजूदा किसान आंदोलन वस्तुत: बड़े किसानों द्वारा चलाया जा रहा है।

किसान छोटा हो या बड़ा, उसको हकसे बनती कमाईसे महरूम रखना उस कुटिल नीतिके तहत है जिसे पिछले कुछ दशकोंमें एकके बाद एक बनी केंद्रीय सरकारोंने आगे बढ़ानेका काम किया है ताकि लोगोंको खेतीसे हटाया जाय। विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं चाहती हैं कि ग्रामीण जनसंख्या शहरोंकी ओर पलायन करे, ऐसा करना उस बलवती आर्थिक सोचके तहत है कि शहरी जनसंख्याकी गति बढऩेसे तेज आर्थिक विकास स्वत: बनता है, खेतीको तौर-तरीकोंको जानबूझ कर पुरानी लीकपर कायम रखनेसे ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि किसान खुदसे खेतीसे तौबा कर पलायन करनेको मजबूर हो जाय। हैरानी नहीं होगी यदि वस्तुस्थिति आकलन सर्वेकी रिपोर्ट २०१८-१९ को मुख्यधाराके अर्थशास्त्री आधार बनाकर शहरोंकी ओर पलायनवाली योजनामें और तेजी लानेके लिए कहने लगें। जबकि होना उलटा चाहिए। जहां भारतके खाद्यान्न उत्पादनने वर्ष २०२०-२१ में रिकॉर्ड ३०.८६ करोड़ मीट्रिक टनका आंकड़ा छुआ है, साल-दर-साल उपज बढ़ी है, इसके विपरीत खेतीसे होनेवाली आय नीचेकी ओर जा रही है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) द्वारा पिछले बीस सालों (२००२-२१) पर तैयार प्रॉड्यूसर सब्सिडी एस्टीमेट हमें बताता है कि वियतनाम, अर्जेंटाइना और भारत ऐसे तीन देश हैं जो अपने किसानोंपर नेगेटिव टैक्स लगा रहे हैं। कुल कृषि आयके आधारपर भारतने अपने किसानोंपर लगभग माइनस पांच फीसदी कम कर टैक्स लगा रखा है। किसान अब समझ गया कि सरकारका नये कृषि कानून थोपना दरअसल खेती संकटमें आगे और इजाफा करनेका वादा भर है। जो कुछ वह मांग रहे हैं, वह यही कि कृषि आय नीतिपर पुनर्विचार हो, जहां खेती, गैर-कृषि स्रोतोंसे आयी कमाई लगाये बिना, अपने आपमें आर्थिक रूपसे व्यावहारिक बन सके।