सम्पादकीय

पांच ट्रिलियन डालरकी कठिन राह


डा. भरत झुनझुनवाला

वर्ष २०१५-१९ के भाजपा सरकारके कार्यकालके दौरान सरकारी आंकड़ोंके अनुसार जीडीपी विकास दर ७.५ प्रतिशत हो गयी है। लेकिन जमीनी स्तरके आंकड़े इस अवधिमें ऊंची विकास दरको प्रमाणित नहीं करते हैं। जैसे दो पहिया वाहनोंकी वार्षिक बिक्रीकी विकास दर कांग्रेस सरकारके समय २५.७ प्रतिशत थी जो कि भाजपा सरकारके समय १३.२ प्रतिशत रह गयी है। ट्रैक्टरोंकी बिक्रीकी विकास दर कांग्रेसके समय १५.७ प्रतिशत थी जो भाजपा सरकारके समय ४.५ प्रतिशत रह गयी है। कामर्शियल वाहन जैसे ट्रकोंकी बिक्रीकी विकास दर कांग्रेस कार्यकालमें १०.५ प्रतिशत थी जो कि भाजपा सरकारके कार्यकालमें ९.७ प्रतिशत रह गयी है। रेलवेमें यात्रिओंसे उपलब्ध आयकी विकास दर कांग्रेस सरकारके समय १०.८ प्रतिशत थी जो कि भाजपा सरकारके दौरान ७.३ प्रतिशत रह गयी है। केवल हवाई यात्राकी विकास दर भाजपा सरकारके समय तीव्र रही है। यह कांग्रेस सरकारके समयमें ९.२ प्रतिशत थी जो कि भाजपा सरकारके समय १५.३ प्रतिशत हो गयी है। इन जमीनी आंकड़ोंसे संदेह उत्पन्न होता है कि भाजपा सरकारने जो अपने कार्यकालमें ७.५ प्रतिशतकी विकास दर बतायी है वह वास्तविक है या फिर मात्र आंकड़ेबाजी है। विषय महत्वपूर्ण इसलिए है कि आंकड़ेबाजीसे हम पांच ट्रिलियन डालरकी अर्थव्यवस्था नहीं बन सकते हैं। हमारी अर्थव्यवस्थाका पांच ट्रिलियन डालरका बनना प्रमाणित होना वैश्विक संस्थाओंके आकलनपर निर्भर होगा। विश्व बैंक सरकारके द्वारा दिये गये आंकड़ोंको ही मानता है इसलिए वह भले ही प्रमाणित कर दे लेकिन तमाम स्वतंत्र रेटिंग एजेंसियां और स्वतंत्र बैंक इस प्रकारके आंकड़ोंको नहीं मानते हैं। इसलिए सरकारको चाहिए कि आंकड़ोंके भरोसे अर्थव्यवस्थाको पांच ट्रिलियन डालरकी अर्थव्यवस्था बनानेके प्रयास करनेके स्थानपर जमीनी समस्याओंको हल करे।

आनेवाले समयमें आर्थिक विकासका आधार नयी तकनीकें होंगी। आज विश्व अर्थव्यवस्थामें अमेरिकाकी महारत तकनीकी अविष्कारोंपर टिकी हुई है। माइक्रोसाफ्टने विंडोस साफ्टवेयर बनाया, मोनसेंटोने बीटी काटनके बीज बनाये, सिस्कोने इंटरनेटके राउटर बनाये, सरकारी संस्था नासाने अंतरीक्ष यान बनाये। इस प्रकारके तकनीकी आविष्कारोंको अमेरिका द्वारा सम्पूर्ण विश्वको महंगा बेचकर भारी लाभ कमाये जा रहे हैं। जैसे एक रिपोर्टके अनुसार विंडोस साफ्टवेयरकी उत्पादन लागत केवल एक डालर प्रति साफ्टवेयर होती है जिसे माइक्रोसाफ्ट कमसे कम ११ डालरमें बेचता है। इस प्रकारके लाभ कमाकर ही अमेरिका आगे बढ़ा है। विशेष यह कि अमेरिकी संस्थाओंमें तकनीकी आविष्कार करनेपर भारतीय वैज्ञानिकोंकी बहुत अहम् भूमिका है। कई संस्थानोंमें लगभग एक-तिहाई कर्मी भारतीय हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश ये विशिष्ट क्षमतावाले कर्मी भारतमें आकर फेल हो जाते हैं। मैं जब इंडियन इंस्टिट्यूट आफ मैनेजमेंट बंगलोरमें पढ़ाता था उस समय कई ऐसे अवसर आये कि भारतीय मूलके प्रोफेसरोंने अमेरिकासे आकर आईआईएममें नौकरी की। लेकिन यहांके वातावरणमें संतुष्ट न होकर वे वापस चले गये।

इस दुखद स्थितिको बनानेमें नेताओंकी विशेष भूमिका दिखती है। इनके द्वारा अपने जाननेवालोंकी अक्षमताकी अनदेखी करके उन्हें संस्थाओंके निदेशक नियुक्त किये जाते हैं। ऐसा करनेसे संस्थाकी अपनी गरिमा समाप्त हो जाती है। इसलिए सरकारको अपने जाननेवालोंको वैज्ञानिकों अथवा शिक्षित संस्थाओंमें नियुक्त करनेके स्थानपर केवल मेरिटके आधारपर नियुक्ति करना चाहिए, न कि सिफारिशके आधारपर। साथ ही सरकारको निंदक नियरे राखियेके सिद्धांतको अपनाना चाहिए। निंदकको पासमें रखनेसे अपने दोष स्वयंको ज्ञात हो जाते हैं और सरकार सही दिशाको अपना लेती है। कोई ब्रह्मïज्ञानी पैदा नहीं होता है। गलती सब करते हैं। गलतीको सुधारनेका सिस्टम बनाकर रखना चाहिए। अपनी गलतीका सुधार नहीं करनेसे स्वयंका पतन होता है। यदि सरकारने वर्तमान स्थितिमें सुधार नहीं किया तो हमारे वैज्ञानिक भारत छोड़कर अमेरिका आदि देशोंको पलायित होते रहेंगे और हम पिछड़ते ही रहेंगे और पांच ट्रिलियन डालरकी अर्थव्यवस्था नहीं बन पायेंगे।

वर्तमानमें सरकारने लोक-कल्याणपर विशेष जोर दे रखा है। जैसे उज्ज्वला योजनाके अंतर्गत सिलेंडर बांटे जा रहे हैं, सार्वजनिक वितरण प्रणालीके अंतर्गत सस्ता अनाज उपलब्ध कराया जा रहा है और अब उत्तराखंडमें पशुओंके लिए घास भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा उपलब्ध करनेकी योजना है। इस प्रकारकी योजनाओंसे इन मालकी सरकारी मांग बनती है। जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणालीमें गेहूंको उपलब्ध करनेके लिए सरकारको किसानोंसे गेहूं खरीदना पड़ता है। लेकिन अंतर यह है कि यह मांग सरकार द्वारा दूसरे उद्योगोंपर लगायी गये टैक्सकी रकमसे बनती है। जैसे यदि एक परिवारको ३० किलो गेहूं सरकारने दो रुपयेकी दरसे ६० रुपयेमें उपलब्ध कराया और इस ३० किलोका वास्तविक मूल्य ६०० रुपया है तो सरकारको यह ६०० रुपया किसी अन्य स्थानपर टैक्सके रूपमें वसूल करके, इससे गेहूं खरीदकर सम्बंधित परिवारको उपलब्ध करना पड़ेगा। उस परिवारकी स्थिति अकर्मण्य बनी रहेगी। उस परिवारके लिए उत्पादन करना जरूरी नहीं रहता है। वह केवल घरमें बैठकर गेहूंकी खपत करता रह सकता है। इस व्यवस्थामें समस्या यह है कि कल्याणकारी खर्चोंके दबावके कारण सरकारके राजस्वका उपयोग तकनीक जैसे आवश्यक निवेशके स्थानपर लोगोंको सस्ता अनाज उपलब्ध करानेमें खप जायगा जिससे अंतत: हमारी अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ेगी। इसलिए सरकारको चाहिए कि ऐसी नीतियां लागू करे जिससे जनता स्वयं उत्पादक कार्योंमें लिप्त हो सके और आय अर्जित कर सके और अनाज खरीद सके। जैसे हमारे गांवके युवा यदि संगीतका निर्माण कर उसका विक्रय कर सकें और उस रकमसे यदि वही ३० किलो गेहूं खरीदते तो सरकारके उपर टैक्सका बोझ नहीं लगता। संगीतके उत्पादनसे अर्थव्यवस्था भी बढ़़ती। इसलिए सरकारको समझना चाहिए कि लोक-कल्याणपर सरकारी खर्चसे अर्थव्यवस्था अंतत: कमजोर पड़ती है। इसके स्थानपर जनताको सक्षम बनाकर बाजारमें मांग उत्पन्न करनी चाहिए। यदि सरकार तकनीकमें निवेश और आम आदमीको आय अर्जी करनेको सक्षम बनायगी तो हम शीघ्र ही पांच ट्रिलियन डालरकी अर्थव्यवस्था बन सकते हैं अन्यथा यह सपना हासिल करना मुश्किल ही रहेगा।