सम्पादकीय

दल जीते देश हारा


ऋतुपर्ण दवे

देशभरमें हर कहीं धधकती चिताओंके धुंए और कब्रिस्तानमें रात-दिन खुद रहे गड्ढïोंमें इनसानोंके अंतिम संस्कारकी तैयारीके बीच स्वतंत्र भारतके इतिहासमें शायद पहला मौका होगा जब चुनाव जीतने या हारनेके जश्नकी असल खुशी कहीं दिखती नहीं है। खुश होनेवाला आम हिन्दुस्तानी किसी अपनेके लिए फिक्रमन्द है या फिर एक-एक सांसके लिए अस्पतालके दरवाजेपर या आक्सीजनके इंतजामके लिए दर-दरकी ठोकर खा रहा है। जीतनेवालोंके मनमें लड्ïडू जरूर फूट रहे होंगे, लेकिन अब वह भी शर्मिन्दा हैं कि मिठास बांटे तो किससे। २७ फरवरीको पांच राज्योंके विधानसभा चुनावों एवं अन्य कुछ उपचुनावोंके ऐलानवाले दिन ही देशमें केवल १६ हजार ८०५ कोरोना संक्रमितोंके नये मामले आये थे। उसी दिन भारतमें १११ लोगोंने कोरोनासे जान गंवायी। लेकिन यह तो सबको लगता था कि कोरोना जल्द खत्म होनेवाला नहीं। लेकिन चुनाव आयोग एक स्वायत्त तथा अर्ध-न्यायिक संस्था होनेके नाते किताबोंमें लिखे कानूनोंसे बंधा और मजबूर था। दुनिया जानती थी कि भारत कोरोनासे उबरा नहीं है, दूसरी लहर सुनामी बननेवाली है। बेबस कहें या मजबूर इन चुनावोंको लेकर आयोगपर भी सवालोंकी बौछार कम नहीं थी। आखिरमें तो अदालतोंने भी हत्याके मुकदमेंतककी चेतावनी दे दी। लेकिन देश चरणबद्ध तरीकेसे हो रहे चुनावों खासकर बंगालको लेकर अजीब-सी रस्साकशी और शब्द बाणोंकी बौछार देखता रहा। बारी-बारीसे चुनाव होते रहे। कोरोना पसरता रहा दिग्गज चुनावी सभाओंमें एक-दूसरेको पछाड़ते रहे और बेखौफ कोरोना देशको। चुनाव लडऩेकी रहनुमाओंने पूरी तैयारी की थी। बस तैयारी नहीं थी तो कोरोनासे लडऩे की। मंत्रालयसे लेकर तमाम आयोग, नीति-निर्माताओंसे लेकर पालन करानेवाले इतने मासूम, अनजान और बेखबर कैसे थे। अमेरिका, ब्राजील सहित तमाम भुक्तभोगियोंकी हकीकत और नये वैरिएंट, नये म्यूटेशनके बारेमें सब कुछ जानते हुए भी जैसे कुछ पता ही नहीं हो। तमाम चेतावनियों और कुछ बड़ी बैठकोंमें आक्सीजनकी महत्ता और कमीको लेकर गंभीर चर्चाओंके बावजूद क्या तैयारी थी सामने है। आक्सीजनके लिए पूरे देशमें हाहाकार मचा। विडंबना है कि बन्द कमरोंमें मास्क पहने और जन-सभाओंमें खुले मुंह नेताओंके भाषणोंको देश देखता रहा। कहीं विधायिका, कार्यपालिकाके बीच तो कहीं केन्द्र और राज्योंके बीच आरोप-प्रत्यारोपोंकी जूतमपैजारपर कोरोना भारी पडऩे लगा। चुनावोंका उफान तो कोरोनाका तूफान जैसे एक-दूसरेको पटखनी देनेकी कसम खा चुके हों। देखते ही देखते बड़े-छोटे हर आम और खास अस्पताल भर गये। एक-एक सांसके लिए शुरूमें सिफारिशोंका दौर चला। जल्द वह वक्त भी आया जब सिफारिश करनेवाले अपने लिए ही सिफारिशकी जुगाड़ करते और गिड़गिड़ाते दिखे। कुछ तो खास तवज्जोके बाद भी चले गये और कइयोंने बिना इलाज अपनोंकी आंखोंके सामने दम तोड़ दिया। ऐसा मंजर मौजूदा देशवासियोंने कभी नहीं देखा था। २१वीं सदीके कम्प्यूटर और सुपरसोनिक युगमें व्यवस्थित, सुसज्जित, तकनीकपूर्ण, सेंसर और लेजर सुविधाओंसे लैस स्वास्थ्य सुविधाएं भी हांफने लगीं। आम तो छोडिय़े खासकी भी गलतफहमियां एक-एक झटकेमें टूटती चली गयीं। सरकारी तो सरकारी निजी अस्पतालोंके बाहर, खुले आसमानके नीचे, बड़ी-बड़ी गाडिय़ोंमें नोटोंसे भरे बटुएवाले एक-एक सांसके लिए अपनी आंखोंके सामने अपनोंको दम तोड़ते देखनेको मजबूर हो गये। हो सकता है सुविधाओं या संपन्नताकी गलतफहमींका खामियाजा ही भुगत रहे हों। लेकिन देश कराह उठा।

देशकी अदालतोंको स्वत: संज्ञान लेकर आगे आना पड़ा। सांसके सौदागरोंको फांसीपर लटकाने जैसी चेतावनीतक देनी पड़ी। आनन-फाननमें रोड, रेल और हवाई जहाजोंसे इनसानोंकी सांसके टैंकर ढुलने लगे। लेकिन यमराजके कोरोना दूतोंके आगे सब फींके पड़ गये। व्यवस्थाओंके बढ़ानेके ढिंढ़ोरे और उछल-कूदके बावजूद न कोरोनाका कहर थमा, न बढ़ती मौतोंका सिलसिला। चुनावोंके बीच कोरोनाका खूब खेला चला। क्या आम, क्या खास यहांतक कि चुनावमें ताल ठोकता प्रत्याशी किसीको भी कोरोनाने नहीं बख्शा। ३० अप्रैलको देशने एक दिनमें विश्वमें सर्वाधिक संक्रमितोंका लगातार अपना ही रिकार्ड तोड़ा जो चार लाख एक हजार ९९३ रहा। जबकि एक दिनमें मृत्युका भी आंकड़ा भी १ मईको तीन हजार ६८९ हो गया। कोरोनाके आंकड़ों और चुनावी नतीजोंसे इतर भी कई सवाल हैं। कोरोनाकी लहरके बीच क्या चुनाव टाले नहीं जा सकते थे। यही वह सवाल है जिसका जवाब जोखिमके बावजूद वहांके मतदाताओंने दे ही दिया। चुनावी राज्य केरल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, बंगाल, असम, पुडुचेरीसे चुनावके दौरान कोरोनाके बड़े आंकड़ों और हो रही मौतोंसे अदालतेंतक चिन्तित हुईं। लेकिन न आयोग चेता, न सरकारोंने ही पहल की। अब जीतनेवाले जीते, हारनेवाले हार गये। हर ओर पॉलीथिनमें पैक चिताओं और जनाजे अंतिम संस्कारके लिए लाइनमें लग गये और नतीजोंके आंकड़ोंने देशकी राजनीतिमें नया तूफान ला खड़ा किया। अब राजनीतिक गलियारोंमें यह तूफान उठेगा जो भारतीय राजनीतिमें बड़ी उथल-पुथलका कारण बन सकता है। फिलाहाल दल तो जीत गये लेकिन देश कोरोनासे हारता दिख रहा है। काश अब भी कोरोनापर वन नेशन, वन डायरेक्शन होता, ताकि पिछले बारकी तरह कोरोनाकी चैनको तोड़ा जा सकता।