सम्पादकीय

महामारीसे मुनाफेके सौदागर


 डा. अश्विनी महाजन   

आज कोरोना वायरस जिसे चीनी या वुहान वायरस भी कहा जा रहा है, ने लगभग पूरी मानवताको अपनी चपेटमें ले लिया है। इस महामारीके कारण मरनेवालोंकी भारी संख्याके कारण इस वायरससे संक्रमित लोगोंमें ही नहीं, जो लोग संक्रमित नहीं है, उनमें भी खतरा बढ़ता जा रहा है। स्वास्थ्य सुविधाएं, महामारीके सामने बौनी पड़ती दिखाई दे रही हैं। ऐसेमें अस्पतालोंमें बेड, आईसीयू, वेंटीलेटरका तो अभाव है ही, सामान्य स्वास्थ्य उपकरणों जैसे आक्सीजन, दवाइयों, स्वास्थ्यकर्मियों आदिकी भी भारी किल्लतका सामना करना पड़ रहा है। हालांकि सरकारने बेड, दवाइयों, आक्सीजनकी उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु प्रयास किये हैं, लेकिन वर्तमान त्रासदीके समक्ष वह प्रयास बहुत कम हैं। कम-ज्यादा मात्रामें इसी प्रकारकी स्थितिका सामना अमेरिका, इंग्लैंड, इटली, ब्राजील जैसे देश पहलेसे ही कर चुके हैं या कर रहे हैं। भारतमें भी इस प्रकारकी त्रासदीमें लोगोंकी मजबूरीका लाभ उठाकर मुनाफा कमानेवाले लोगोंकी कमी नहीं है। दवाइयों, आक्सीजन, आक्सीमीटर आदिके विक्रेता ही नहीं, बल्कि अस्पताल भी मुनाफा कमानेकी इस होड़में शामिल हो चुके हैं।

जनताके संकट इस मुनाफाखोरीके कारण कई गुना बढ़ चुके हैं। इन संकटोंसे समाधानका एक ही रास्ता है कि जल्दसे जल्द स्वास्थ्य सुविधाओंको पुख्ता किया जाय और इलाज हेतु साजो-सामान और दवाइयोंको पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध कराया जाय। जहांतक दवाइयोंकी कमी, उनकी ऊंची कीमतों और उससे ज्यादा मुनाफाखोरीका सवाल है, उसके पीछे देशके व्यापारियोंकी जमाखोरीसे कहीं ज्यादा वैश्विक बहुराष्ट्रीय कम्पनियोंका एकाधिकार है। पेटेंट और अन्य बौद्धिक संपदा अधिकारोंके कानूनोंके कारण दवाइयों और यहांतक कि स्वास्थ्य उपकरणों आदिमें भी इन कंपनियोंका एकाधिकार स्थापित है। इन कानूनोंके चलते इन दवाइयों और उपकरणोंका उत्पादन कुछ हाथोंमें ही केंद्रित रहता है, जिससे इनकी ऊंची कीमतें यह कम्पनियां वसूलती हैं। हालमें रेमडेसिविर नामके टीकेकी कीमत ३००० रुपयेसे ५४०० रुपये थी जिसे भारत सरकारने नियंत्रित तो किया, लेकिन उसके साथ ही उसकी भारी कमी भी हो गयी। इसके चलते इन इंजेक्शनोंकी कालाबाजारी हो रही है और मरीजोंसे इंजेक्शनके लिए २० हजारसे ५० हजार रुपयेकी कीमत वसूली जा रही है। यही हालत अन्य दवाइयोंकी है, जिसकी भारी कमी और कालाबाजारी चल रही है।

ऐसा नहीं है कि भारतीय कम्पनियां इन दवाइयोंको बनानेमें असमर्थ हैं, लेकिन चूंकि वैश्विक कम्पनियोंके पास इन दवाइयोंका पेटेंट है, वह अपनी मर्जीसे अन्य कम्पनियों (भारतीय या विदेशी) को लाइसेंस लेकर इन दवाइयोंका उत्पादन करवाती हैं और इस कारण इन दवाइयोंकी भारी कीमत वसूली जाती है। यह सही है कि इन दवाइयोंके पेटेंट इन कम्पनियोंके पास हैं, लेकिन फिर भी भारत सरकार वर्तमान महामारीसे निबटने हेतु प्रयास कर न केवल इन दवाइयोंके उत्पादनको बढ़ा सकती है, बल्कि कीमतोंमें भी भारी कमी कर लोगोंको राहत दे सकती है। गौरतलब है कि पेटेंटसे जुड़ी इस प्रकारकी समस्या डब्ल्यूटीओ बननेसे पहले नहीं थी। देशमें सरकार किसी भी दवाईके उत्पादनके लिए लाइसेंस जारी कर उसके उत्पादनको सुनिश्चित कर सकती थी। इस कारण भारतका दवा उद्योग न केवल भारतमें, बल्कि विश्वभरमें सस्ती दवाइयां उपलब्ध करा रहा था। १९९५ में विश्व व्यापार संघटनके बननेके साथ ही ट्रिप्स (व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार) समझौता लागू हो गया था। इस समझौतेमें सदस्य देशोंपर यह शर्त लगायी गयी थी कि वह पेटेंट समेत अपने सभी बौद्धिक संपदा कानूनोंको बदलेंगे और उन्हें सख्त बनायंगे यानी पेटेंट धारक कंपनियोंके पक्षमें बनायंगे। इस समझौतेसे पहले भी इसका भारी विरोध हुआ था, क्योंकि यह तय था कि इस समझौतेके बाद दवाइयां महंगी होंगी और जन-स्वास्थ्य खतरेमें पड़ जायगा। ऐसेमें जागरूक जन-संघटनों और दलगत राजनीतिसे ऊपर उठकर राजनेताओंके प्रयासोंसे विश्व व्यापार संघटन और अमीर मुल्कोंके दबावको दरकिनार करते हुए भारतने पेटेंट कानूनोंमें संशोधन करते हुए जन-स्वास्थ्यसे जुड़ी चिंताओंका काफी हदतक निराकरण कर लिया था।

हालांकि प्रक्रिया पेटेंटके स्थानपर उत्पाद पेटेंट लागू किया गया और पेटेंटकी अवधि भी १४ वर्षसे बढ़ाकर २० वर्ष कर दी गयी थी, लेकिन उसके बावजूद जेनेरिक दवाइयोंके उत्पादनकी छूट पुन: पेटेंटकी मनाही, अनिवार्य पेटेंटका प्रावधान, अनुमति पूर्व विरोध आदि कुछ ऐसे प्रावधान भारतीय पेटेंट कानूनमें रखे गये थे जिससे काफी हदतक जन-स्वास्थ्य संबंधी मुद्दोंका समाधान हो सका। लेकिन इन सबके बावजूद अमेरिका समेत अन्य देशोंकी सरकारोंने भारतपर यह दबाव बनाये रखा कि भारत अपने पेटेंट कानूनोंमें ढील दे और अपने पास उपलब्ध प्रावधानोंका न्यूनतम उपयोग करे। संशोधित भारतीय पेटेंट अधिनियम (१९७०) के अध्याय १६ और ट्रिप्स प्रावधानोंके अनुसार अनिवार्य लाइसेंस दिये जानेका प्रावधान है। अनिवार्य लाइसेंससे अभिप्राय है सरकार द्वारा जारी लाइसेंस यानी अनुमति जिसके अनुसार किसी उत्पादकको भी पेटेंट धारककी अनुमतिके बिना पेटेंट उत्पादनको बनाने, उपयोग करने और बेचनेका अधिकार दिया जाता है। इसका मतलब यह है कि वर्तमानमें कोरोनासे संक्रमित व्यक्तियोंके लिए उपयोग की जानेवाली दवाइयों यानी रेमडेसिविर और अन्य दवाओंके संदर्भमें यदि सरकार अनिवार्य लाइसेंस जारी कर दे तो भारतका कोई भी फार्मा निर्माता सरकार द्वारा निर्धारित राशि पेटेंट धारकको देकर उन दवाइयोंका उत्पादन देशमें करके उनको इस्तेमाल और बेच सकता है। विशेषज्ञोंका मानना है कि पेटेंट कानूनकी धाराएं ९२ और १०० वैक्सीनके लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करनेके लिए उपयुक्त हैं। सरकार स्वेच्छा (सूओमोटो) से राष्ट्रीय आपदा अथवा अत्यधिक तात्कालिकताके मद्देनजर गैर-व्यावसायिक सरकारी उपयोगके लिए इन धाराओंका उपयोग करते हुए अनिवार्य लाइसेंस जारी कर सकती है।

गौरतलब है कि यह कंपनियां महामारीके बढ़ते प्रकोपसे मुनाफा कमानेकी फिराकमें हैं और अमेरिका सरीखे देशोंकी सरकारें इन दवाओं और वैक्सीनकी जमाखोरीके माध्यमसे विकासशील और गरीब देशोंके शोषणकी तैयारी कर रही हैं। हालमें भारतमें वैक्सीन उत्पादन हेतु आवश्यक कच्चे मालकी आपूर्तिमें अमेरिका सरकारने अड़ंगा लगाया था और अपने पास जमाकी वैसीनको भारत समेत दूसरे देशोंको भेजनेपर रोक लगा दी थी। बादमें अंतरराष्ट्रीय और घरेलू दबावके कारण उन्हें यह रोक हटानी पड़ी। गिलिर्ड कम्पनी द्वारा रेमडेसिविर टीकेकी भारी जमाखोरीके समाचार भी आ रहे हैं। ऐसेमें भारतमें इन दवाओं और वैक्सीन उत्पादन हेतु अनिवार्य लाइसेंस लागू करना अत्यंत आवश्यक हो गया है। हालांकि भारत सरकारने दक्षिणी अफ्रीकाके साथ मिलकर विश्व व्यापार संघटनमें भी ट्रिप्स प्रावधानोंमें छूट हेतु गुहार लगायी है, लेकिन अमेरिका, यूरोप और जापान जैसे देशोंने उसमें भी अड़ंगा लगा दिया है। ऐसेमें सरकारको अपने सार्वभौम अधिकारोंका उपयोग करते हुए यह अनिवार्य लाइसेंस तुरंत देने चाहिए ताकि महामारीसे त्रस्त जनताको कंपनियोंके शोषणसे बचाया जा सके।