सम्पादकीय

ग्रामीणोंकी विवशता


योगेश कुमार सोनी   

कोरोनाने अब देशभरके गांवोंमें भी दस्तक दे दी है। अबतक माना जा रहा था कि गांवके लोग सुरक्षित हैं लेकिन पिछले लगभग दस दिनसे गांवोंके मौतके आंकडोंने चौका दिया। पिछले तीनमें तो शहरोंके बराबर आंकड़ा पहुंच गया। इसके अलावा परेशानी यह भी बढ़ रही है कि गांववासी झोलाछाप डाक्टरोंकी चपेटमें आ रहे हैं। यह लोग किसी अस्पताल या डिग्री होल्डर डाक्टरसे उपचार करानेकी बजाय झोलाछाप डाक्टरसे ही इलाज करवा रहे हैं। वैसे तो ऐसी घटनाओंके तमाम उदाहरण हैं लेकिन ग्रेटर नोएडाके खुर्दपुर गुज्जर गांवमें लोग अस्पतालोंमें भीड़की वजहसे नहीं जा रहे और बीते बीस दिनमें ४० से ज्यादा लोगोंकी मौत हो चुकी है। इसके अलावा कानपुरमें घाटमपुरके आसपास गांव संक्रमणके ऐसी दस्तक दी कि पिछले २५ दिनमें गांवमें ७० से अधिक ग्रामीणोंको कोरोना निगल चुका। हर एक घरमें बुखार और खांसीके मरीज हैं। कई परिवार ऐसे हैं कि घरके सभी सदस्य बुखारसे पीडि़त हैं। सभी मरीजोंमें कोरोनाके लक्षण देखनेको मिल रहे हैं। राजस्थानसे भी हृदयविदारक खबर देखनेको मिली जहां डोर-टू-डोर सर्वेमें राजस्थानके गांवोंमें रहनेवाले सात लाखसे अधिक लोगोंमें कोरोनाके लक्षण देखनेको मिले। कोरोनाकी बढ़ती रफ्तारसे गांवोंमें दहशतका माहौल है।

अध्ययनके अनुसार यह पता चला कि गांवोंके आस-पास कोई बड़ा अस्पताल एवं डाक्टर न होनेके कारण पीडि़त झोलाछाप डाक्टरोंसे दवा लेनेके लिए मजबूर हैं। इन गांवके लोगोंके लिए न तो टीके और न ही कोरोनाके टेस्टकी सुविधा है। गांववासी चंद झोलाछाप डाक्टरोंके भरोसे है। गांववालोंने कहा कि हम इनसे दवा न लें तो कहा जायं। कुछ गांव तो शहरोंसे मात्र ५० किलोमीटरके अंतर्गत ही हैं। यदि कोरोना वायरस गांवमें इस ही तेजीसे बढ़ता रहा तो यकीनन आधा देश साफ हो जायगा चूंकि देशकी तीन-तिहाईसे अधिक जनसंख्या गांवोंमें ही हैं। यहां ज्यादा बुरा हाल होनेकी संभावना इसलिए भी हैं गावोंमें अच्छा उपचार मिलना बहुत मुश्किल होता है। पहलेसे ही लोग शहरोंका हाल देखकर डरे हैं। सरकारी हो या प्राइवेट, कहीं भी बेड उपल्ब्ध नहीं हैं। स्थितिको नियंत्रित करनेके लिए सरकारको बड़े एक्शन ऑफ प्लानकी जरूरत है। भारतमें अबतक कोरोनाके लगभग दो करोड चौतीस लाख केस आ चुके और लगभग साढ़े तीन लाख लोग अपनी जान गंवा चुके। यह वह आंकड़ा है जो सरकार द्वारा दर्शाया गया है और ऐसे आंकड़ोंका तो जिक्र नहीं हैं जो बिना उपचारके मरीज ही मर गये। बीते दिनों नदीमें बहती हुई करीब डेढ़ सौ लाशें मिलीं जिसे लेकर देशमें हडकंप मचा है। हर कोई उसपर अपनी ओरसे कयास लगा रहा है लेकिन हकीकत यह भी है कि श्मशान घाटों एवं कब्रिस्तानोंमें लाशोंको जलाने एवं दफनानेके लिए जगह नहीं मिल रही। अधिकतर श्मशान घाट नदियोंके पास ही होते हैं कुछ लोग शवको वहीं बहा देते हैं। कुछ लोगोंके पास अंतिम संस्कार करनेके पैसे नहीं थे तो उन्होंने ऐसे कदम उठाया होगा। कई कब्रिस्तानोंमें देखा गया कि लोगोंको शव दफनाने नहीं दे रहे हैं तो ऐसे स्थितिमें भी बहानेका कदम उठाया जा सकता है। यदि महानगरोंके आंकड़ोंकी बात करें तो दिल्लीमें अबतक साढ़े तेरह लाख केस आ चुके जिसमें बीस हजारसे ज्यादा लोग अपनी जान गवा चुकें।

महाराष्ट्रमें इक्यावन लाख केसोंपर करीब अ_ïहत्तर लाख लोग, कर्नाटकमें बीस लाख केसोंपर बीस हजार लोग, उत्तर प्रदेशमें सोलह लाखपर सोलह हजार लोग एवं केरलमें बीस लाखपर छह हजार लोगोंकी मौत हो चुकी है। इन आंकड़ोंको बतानेका तात्पर्य यह है कि इन जगहोंपर बेहतर मेडिकल सुविधा है और तमाम कोशिशोंके बाद भी लोगोंका मरना जारी है और गावोंको लेकर यदि गणित लगाया जाय तो स्थिति विस्फोटक होनेकी पूरी उम्मीद है। स्वास्थ्य सेवाओंके अभावसे देशके तमाम गांव एवं कस्बोंमें तंत्रको अपडेट एवं अपग्रेड रखनेकी जरूरत है। पहले ४५ वर्षसे ऊपर एवं १ मईसे १८ वर्षसे अधिकके आयुके लोगोंको वैक्सीन लगानेके लिए सरकारने अनुमित दे दी है लेकिन जानकर आश्चर्य होगा कि गावोंके परिवेशमें यह आंकड़ा शून्यके बराबर हैं चूंकि एक तो उन लोगोंको जागरूक करनेवाला कोई नहीं हैं वहीं दूसरी ओर वह स्वयं भी रुचि नहीं ले रहे। गावोंमें सैनिटाइजेशन काम भी नहीं हो रहा है। अब भी लोग खांसी, बुखार एवं जुखामको साधारण बुखार मानकर किसी भी क्षेत्रीय डाक्टर एवं कैमिस्टसे दवा लेकर खुद ही काम चला रहे हैं जिसके बाद तबीयत बिगड़कर लोग मर रहे हैं। ऐसी स्थितिमें गांववासियोंको जागरूक एवं उनके लिए ठोस नीति बनानेकी जरूरत है अन्यथा स्थिति भयावह हो सकती है।