सम्पादकीय

विश्व बंधुत्वमें महिलाओंका योगदान


हरीश बड़थ्वाल

धरतीपर जीवन विलुप्त न हो, आबादीका पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिलसिला ठप्प न हो जाय, इस आशयसे प्रकृतिकी व्यवस्थामें सन्तानोत्पश्रिका जिम्मा माताओंका है। समस्त प्राणि जगतमें नन्होंकी पैदाइश और परवरिशका दारोमदार मादा वर्गपर है। यूक्रेन, रूस, बेलारस, बलगेरिया, लातविया, लिथुआनिया, हंगरी, रोमानिया, स्पेन, जापान, मालदीव सहित जिन देशोंमें प्रजनन दर निम्न, अतिनिम्न, शून्य या ऋणात्मक है, वहांकी सरकारें गंभीर चिंतामें हैं, और विदेशियोंको रिझानेके लुभावने अवसर प्रदान करती हैं। सन्तानोत्पत्तिका सिलसिला अविरल चलता रहे, इसी भावसे भारतीय संस्कृतिमें कमतर आयुके लोगों, विशेषकर नवविवाहित महिलाओंको ‘पुत्रवान् भवÓ, ‘पुत्रवती भवÓ का आशीर्वचन देनेकी परिपाटी है। प्रजनन और बाल देखभालसे जुड़ी महिलाओंकी एक मूलभूत जरूरत टिकाऊ ठौरकी है। सन्तानोत्पत्तिकी पूर्व अवस्था गर्भधारणसे ही महिलाको एक निरापद और अनुकूल आश्रय चाहिए ताकि संततिकी संवृद्धि बाधित न हो। पारिवारिक रख-रखावके निर्वाहमें साधन जुटानेका दायित्व पुरुषका तय हुआ। घरेलू कार्योंके लिए महिला और बाह्य कार्योंके लिए पुरुषोंपर कार्य विभाजन अलिखित, सर्वमान्य दस्तूर बन गया। सदियों चली इस व्यवस्थामें महिला और पुरुष एक-दूसरेके पूरक थे, उनमें आपसी प्रतिस्पर्धाका नहीं, साहचर्य तथा बंधुत्वका भाव था।

कुछ पश्चिमी जीवनशैलीकी देखादेखी और कुछ विदेशोंमें उपजे-पल्लवित हुए नारी मुक्ति आंदोलनोंके देशी गुर्गों द्वारा बरगलाये जानेसे अपने देशकी महिलाओंको संतति संबंधी उनके मुख्य दायित्वसे विचलित कर दिया गया। पश्चिमी संस्कृतिमें संबंधोंकी वैसी अंतरंगता कभी न रही जैसा हमारे समाजमें है, वहां बुजुर्गोंको भरणपोषण और दुरस्तीके लिए सामाजिक व्यवस्थाका मुंह ताकना पड़ता है। संबंधोंकी मजबूतीके लिए त्यागकी भारतीय मिसालें पश्चिमी देशोंकी समझसे परे हैं। अनेक ‘सभ्य’ देशोंमें किशोरावस्था पार कर चुके बच्चोंको पोसते रहना मातापिताको भारी पड़ता है। वह इस दलीलपर बच्चोंको पैतिृक घरसे कूच करनेकी पेशकश करते हैं कि अब उनकी आमदनी नहीं भी है तो अपनी गुुजर बेरोजगारी भत्तेसे करें।

भारतीय मूल्यों और तौर-तरीकोंको खारिज करनेवाली वामपंथी सोचसे अभिप्रेरित बुद्धिजीवियोंका तुर्रा यह है कि जैसे-तैसे निजी हितोंको साधना ही जीवनको सार्थक और श्रेष्ठ बनाता है। इस सोचमें हमारी सुुदीर्घ विरासत और समृद्ध सांस्कृतिकके लिए कोई स्थान नहीं, न ही परंपरा या घर-परिवारको अहमियत दी जाती है, बल्कि सुनियोजित विधिसे इन्हें तुुच्छ सिद्ध किया जाता रहा है। महिलाओंको बरगलाया गया कि अपना वर्चस्व कायम रखनेके लिए उन्हें पुरुष-विरोधी लड़ाईमें शामिल होना पड़ेगा। अन्यथा कमोबेश सभी महिला आंदोलन पुरुष-विरोधी रुख कैसे अख्तियार कर लेते हैं। महिलाओंके विरुद्ध घरेलू हिंसाका राग आलापते महिला सक्रियतावादियोंको बहुओं द्वारा प्रताडि़त, अपमानित, तिरस्कृत वह सासें नहीं दिखतीं जो लाचारगीमें कोर्टके दरवाजे खटखटाने लगी हैं। सुप्रीम कोर्टने अपने फैसलेमें बहुओं द्वारा सासोंपर दुराचारको घरेलू हिंसा माना है।

महिला सशक्तीकरणकी सभी मुहिमोंकी मूल धारणा है कि महिलाएं नि:शक्त है। पड़ताल करें, कितने ऐेसे क्षेत्र हैं जहां महिलाओंकी अपेक्षाओं-इच्छाओंको दरकिनार किया गया? ग्रूशो माक्र्सकी सोचमें हजार पुरुषोंमें मात्र एक ही नेतृत्व करता है जबकि शेष ९९९ पुरुष महिलाओंका अनुगमन करते हैं। लैंगिक असामनताएं: महिला और पुरुषकी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक संरचना एक-सी नहीं है। इसीलिए उनके कार्यकलापों, अभिरुचियों, प्राथमिकताओं और भाव व्यक्त करनेमें भिन्नताएं हैं। महिलाएं बिना अधिक विश्लेषणके सहज ही एक निष्कर्षपर पहुंच जाती हैं जो अमूनन सटीक होता है, जैसे पहली मुलाकातमें ही पति या बेटेके मित्रोंके मंसूंबोंको भांप जाना, पुरुषको प्राय: इस सत्यका ज्ञान विलंब से, धोखा खानेके बाद होता है। नामी लेखक विलियम हैजलिटकी रायमें, शायद मस्तिष्कके दोनों हिस्सोंके प्रयोगके कारण, महिलाओंमें एक स्वभावगत अंतर्दृष्टि विद्यमान होती है जिसके चलते वे आनेवाले वक्तको बेहतर पढ़ लेती हैं। पुरुषोंकी तुलनामें उनकी समझ अधिक व्यापक होती है, उनका उद्देश्य शारीरिक संपर्ककी बजाय पारस्परिक संबंधोंको सुदृढ़ बनानेमें अधिक रहता है। महिला-पुरुषमें तालमेल और सांमजस्य बना रहा इसीलिए प्रेमभावका उद्भव हुआ, प्रेमकी अंतर्धारा दोनोंको जोड़े रहती है और दोनों मिलकर एक संपूर्ण अस्मिता निमित करते हैं। सत्रहवीं सदीके कवि जॉन डनने अपनी कविताओंमें प्रेमी-प्रमिकाकी तुलना एक अविभाज्य इकाईसे की है। वह कहते हैं, जोड़ेमें प्रत्येक पक्ष एक अर्धवृश्रके समान है, दोनोंके एकीकरणके बिना संपूर्णता संभव नहीं है। अन्यत्र वह प्रेमी-प्रेमिकाकी कल्पना सहारा मरुस्थलके उभयलिंगी पक्षी फीनिक्सके रूपमें करते हैं।

पुुरुषोंको भी समझना होगा कि जीवनकी प्राथमिकताओंमें बेहतरीन जीवन और होनहार संतानका निर्माणमें रुतबेदार कैरियर या संपन्नतासे अधिक अहम स्थान पारिवारिक सुख और शांतिका है। एक महिला घर-परिवार संवारती है। समूचे परिवारको पटरीपर रखती है या तबाह कर देती है, यह उसकी सोच तय करती है। किसी व्यक्तिका संस्कारी, सभ्य होना उस देखभाल और परवरिशको दर्शाता है जो उसे घर-परिवारसे मिली। महिलाओंके लिए अलहदा विश्वविद्यालय, पेट्रोल पम्प और बैंक जैसे ढांचे की नहीं, उनके मन दिलमें यह बैठानेकी जरूरत है कि समाजके अभिन्न, अविभाज्य अंग हैं। सामूहिक बेहतरीमें ही उसकी बेहतरी निहित है, यह हृदयंगम करनेसे ही उनका और सभीका कल्याण होगा।