सम्पादकीय

दिव्यताके लिए गीता


आर.एन. तिवारी
हमारे धर्माचार्योंने श्रीमद्भगवत गीताको संजीवनीकी संज्ञा दी है। यह हमें जीनेकी राह बताती है। दुर्योधनके अपने जीवन मूल्योंसे भटकनेके कारण ही महाभारतका युद्ध हुआ जिसमें करोडों लोगोंकी मौत हुई। जो केवल अपना भला चाहता है वह दुर्योधन है। जो अपनोंका भला चाहता है वह युधिष्ठिर है और जो सबका भला चाहता है वह श्रीकृष्ण है। दोनों सेनाओंकी ओरसे शंख ध्वनिके पश्चात अर्जुनने भगवान से कहा-
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्ï।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥

हे अच्युतानन्द! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओंके बीच ले चलें जिससे मैं देख सकूं कि किन लोगोंके साथ मुझे युद्ध करना है। गीता एक दिव्य साहित्य है। यदि आप अपने जीवनमें दिव्यता चाहते हैं तो गीताको अपना मित्र अवश्य बनायें। धृतराष्ट्र जन्मसे तो अंधा था ही दुर्योधन आदि उसके पुत्र भी धर्मके विषयमें अंधे थे। इसीलिए तो द्रौपदीने कहा था, अंधे बापका बेटा भी अंधा ही होता है। संजय, कुरुक्षेत्रमें हो रहे युद्धका आंखों देखा हाल धृतराष्ट्रको सुना रहे हैं। हे राजन! दोनों सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं। सर्वप्रथम कौरव सेनाकी ओरसे भीष्म पितामहने युद्ध प्रारम्भ करनेके लिए सिंहकी दहाड़के समान गरजकर शंख बजाया। पांडवोंकी तरफसे भगवान श्रीकृष्णने भी अपना पांचजन्य और अर्जुनने अपना देवदत्त नामका शंख बजाया। देखिये! दोनों सेनाओंकी तरफसे शंख ध्वनि हुई। पांडवोंके शंखसे शुभ ध्वनि निकली, कौरवोंके शंखसे अशुभ ध्वनि निकली और श्रीकृष्णके शंखसे विजय ध्वनि निकली। शुभ यानी लाभ और अशुभ यानी हानि। अब शुभ और लाभके चक्रव्यूहमें फंसकर अशुभ हारेगा ही न। महाभारत युद्धका प्रतीकात्मक निर्णय पहले दिन ही हो चुका था। युधिष्ठिर आदि पांडव धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके प्रतीक हैं जबकि दुर्योधन आदि कौरव काम, क्रोध, मोह और लोभके प्रतीक हैं। दुर्योधन भीष्म पितामहके पराक्रमकी प्रशंसा कर रहा है, उसको पूरा विश्वास था कि पितामहकी उपस्थिति उसको अवश्य विजय दिलायगी। उसे कुरुक्षेत्रके युद्धमें भीष्म और द्रोणाचार्यसे पूर्ण सहयोगकी उम्मीद थी क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि इन दोनों महानुभावोंने उस समय एक शब्द भी नहीं कहा था जब भरी सभामें द्रौपदी अपनी रक्षाके लिए बार-बार गुजारिश कर रही थी। दुर्योधनको आशा थी कि वह पांडवोंके प्रति अपने स्नेह और प्रेमको उसी प्रकार त्याग देंगे जिस प्रकार उन्होने द्यूत-क्रीडाके अवसरपर त्याग दिया था। किन्तु हठी दुर्योधन भीष्मके मनोभावोंको अच्छी तरहसे नहीं समझ सका था। उसको यह नहीं मालूम था कि नेक कर्मसे ही शांति और सद्भाव संभव है, युद्धसे नहीं। पितामह भीष्म भले ही दुर्योधन सेनाकी तरफसे लड़ रहे थे उनके अस्त्र-शस्त्र भी दुर्योधनके पक्षमें थे किन्तु उनका आशीर्वाद पांडवोंके साथ था। आशीर्वादमें जो शक्ति होती है वह किसी भी अस्त्र-शस्त्रमें नहीं हो सकती।