अवधेश कुमार
छत्तीसगढ़के बीजापुरमें हिंसाका जो ताण्डव हुआ है वह आहत करता है। माओवादियों द्वारा षड्ïयंत्रकी पूरी व्यूह रचनासे घात लगाकर की गयी गोलीबारीमें घिरनेके बाद भी जवानोंने पूरी वीरतासे सामना किया, अपने साथियोंको लहूलुहान होते देखकर भी हौसला नहीं खोया, माओवादियोंका घेरा तोड़ते हुए उनको हताहत किया तथा घायल जवानों और शहीदोंके शवको घेरेसे बाहर भी निकाल लिया। ऐसे बहादुरोंको पूरा देश अभिनन्दन कर रहा है। कई बातें सामने आ रहीं हैं। सुरक्षाबलोंको जोनागुड़ाकी पहाडिय़ोंपर भारी संख्यामें हथिरबंद माओवादियोंके होनेकी जानकारी मिली थी। छत्तीसगढ़के माओवाद विरोधी अभियानके पुलिस उप-महानिरीक्षक ओपी पालकी मानें तो रातमें बीजापुर और सुकमा जिलेसे केंद्रीय रिजर्व पुलिस बलके कोबरा बटालियन, डीआरजी और एसटीएफके संयुक्त दलके दो हजार जवानोंको आपरेशनके लिए भेजा गया था। माओवादियोंने इनमें ७०० जवानोंको तर्रेम इलाकेमें जोनागुड़ा पहाडिय़ोंके पास घेरकर तीन ओरसे हमला कर दिया। बीजापुर-सुकमा जिलेका सीमाई इलाका जोनागुड़ा माओवादियोंका मुख्य इलाका है। यहां माओवादियोंकी एक बटालियन और कई प्लाटून हमेशा तैनात रहता है। इस इलाकेकी कमान महिला माओवादी सुजाताके हाथों है। जानकारी मिली है कि पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी या पीएलजीएका कमांडर हिड़मा आसपास था और कई दिनोंसे उसकी गतिविधियोंको ट्रैक किया जा रहा था।
फिलहाल इस घटनाके बाद फिर लगता है मानो हमारे पास गुस्सेमें छटपटाना और मन मसोसना ही विकल्प है। यह प्रश्न निरंतर बना हुआ है कि आखिर कुछ हजारकी संख्यावाले यह माओवादी कबतक हिंसाकी ज्वाला धधकाते रहेंगे। माओवादियोंने १७ मार्चको ही शांति वार्ताका प्रस्ताव रखा था। इसके लिए उन्होंने तीन शर्तें रखी थीं- सशस्त्र बल हटें, माओवादी संघटनोंसे प्रतिबंध खत्म हों और जेलमें बंद उनके नेताओंको बिना शर्त रिहा किया जाय। एक ओर बातचीतका प्रस्ताव और इसके छठे दिन २३ मार्चको नारायणपुरमें बारूदी सुरंग विस्फोटमें पांच जवान शहीद हो गये। दोपहरमें सिलगेरके जंगलमें घात लगाये माओवादियोंने हमला कर दिया था। ऐसे खूनी धोखेबाजों और दुस्साहसोंकी लंबी श्रृंखला है। साफ है कि इसे अनिश्चितकालके लिए जारी रहने नहीं दिया जा सकता। पुलिसकी ओरसे यह जानकारी दी जा रही है कि वर्तमान हमलेमें १८० तैनात माओवादी लड़ाकोंके अलावा कोंटा एरिया कमेटी, पामेड़ एरिया कमेटी, जगरगुंडा एरिया कमेटी और बासागुड़ा एरिया कमेटीके लगभग २५० अन्य भी थे। यह प्रश्न तो उठता है कि आखिर दो दशकोंसे ज्यादाकी सैन्य-असैन्य काररवाइयोंके बावजूद उनकी ऐसी शक्तिशाली उपस्थिति क्यों है। निस्संदेह यह हमारी पूरी सुरक्षा व्यवस्थापर प्रश्नचिह्नï खड़ा करता है। यहींसे राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रश्नोंके घेरेमें आती है। पिछले करीब ढाई दशकसे केंद्र और माओवाद प्रभावित राज्योंमें ऐसी कोई सरकार नहीं रही जिसने इन्हें खतरा न बताया हो। यूपीए सरकारने आंतरिक सुरक्षाके लिए माओवादियोंको सबसे बड़ा खतरा घोषित किया था। केंद्रके सहयोगसे अलग-अलग राज्योंमें कई सैन्य अभियानोंके साथ जन-जागरूकता, सामाजिक-आर्थिक विकासके कार्यक्रम चलाये गये। लेकिन हिंसाजीवी माओवादी रक्तबीजकी तरह आज भी चुनौती बन कर उपस्थित हैं। हमें यहां दो पहलुओंपर विचार करना होगा। भारतमें नेताओं, बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्टोंका एक वर्ग माओवादियोंकी विचारधाराको लेकर सहानुभूति ही नहीं रखता उनमेंसे अनेक इनकी कई प्रकारसे सहयोग करते हैं।
राज्यके विरुद्ध हिंसक संघर्षके लिए वैचारिक खुराक प्रदान करनेवाले ऐसे अनेक चेहरे हमारे बीच हैं। इनमें कुछ जेलोंमें हैं, कुछ जमानतपर बाहर हैं। इनके समानान्तर ऐसे भी हैं जिनकी पहचान मुश्किल है। गोष्ठियों, सेमिनारों, लेखों, वक्तव्यों आदिमें जंगलोंमें निवास करनेवालों एवं समाजकी निचली पंक्तिवालोंकी आर्थिक-सामाजिक दुर्दशाका एकपक्षीय चित्रण करते हुए ऐसे तर्क सामने रखते हैं जिनका निष्कर्ष यह होता है कि बिना हथियार उठाकर संघर्ष किये इनका निदान संभव नहीं है। माओवादियोंके पास लड़ाके उपलब्ध हो रहे हैं तो इसका अर्थ है कि इन तर्कोंके आधारपर कुछको प्रभावित करना संभव है। अब समय आ गया है जब शांति समर्थक आगे आकर सचाइयोंको सामने रखें। अल्पविकास, असमानता, वंचितों, वनवासियोंका शोषण आदि समस्याओंसे कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। केंद्र और राज्य ऐसे अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चला रहे हैं जो धरातलतक पहुंचे हैं। उदाहरणके लिए प्रधान मंत्री आवास योजनाके तहत बनाये जा रहे और बने हुए आवास, स्वच्छता अभियानके तहत निर्मित शौचालय, ज्योति योजनाओंके तहत बिजलीकी पहुंच, सड़क योजनाओंके तहत दूरस्थ गांवों एवं क्षेत्रोंको जोडऩेवाली सड़कोंका लगातार विस्तार, किसानोंके खातेमें हर वर्ष ६००० भुगतान, वृद्धावस्था एवं विधवा आदि पेंशन, पशुपालनके लिए सब्सिडी जैसे प्रोत्साहन, आयुष्मान भारतके तहत स्वास्थ्य सेवा, कई प्रकारकी इंश्योरेंस एवं पेंशन योजनाएंको साकार होते कोई भी देख सकता है। हर व्यक्तिकी पहुंचतक सस्ता राशन उपलब्ध है। इसके अलावा अलग-अलग राज्य सरकारोंके कार्यक्रम हैं। लड़कियोंकी शिक्षा, उनकी शादी आदिके लिए ज्यादातर राज्य सरकारें अब एक निश्चित मानदेय प्रदान करती हैं। बाढ़, दुर्भिक्ष आदिमें पहलेकी तुलनामें लोगोंतक सुविधाओंकी बेहतर पहुंच हैं। सरकारोंके अलावा अनेक धार्मिक-सामाजिक संस्थाएं भी इनके बीच काम कर रहीं हैं। कोई नहीं कहता कि स्थिति शत-प्रतिशत बदल गयी है। लेकिन बदलाव हुआ है, स्थिति बेहतर होनेकी संभावनाएं पहलेसे ज्यादा मजबूत हुई हैं तथा जंगलोंपर रहनेवालोंको भी इसका अहसास हो रहा है। इसमें जो भी इनका हित चिंतक होगा वह इनको झूठ तथ्यों एवं गलत तर्कोंसे भड़का कर हिंसाकी ओर मोड़ेगा, उसके लिए विचारोंकी खुराक उत्पन्न करायेगा, संसाधनोंकी व्यवस्था करेगा या फिर जो भी सरकारी, गैर-सरकारी कार्यक्रम हैं वह सही तरीकेसे उनतक पहुंचे, उनके जीवनमें सुखद बदलाव आये इसके लिए काम करेगा।
साफ है माओवादियोंके थिंक टैंक और जानबूझकर भारतमें अशांति और अस्थिरता फैलानेका विचार खुराक देनेवाले तथा इन सबके लिए संसाधनोंकी व्यवस्थामें लगे लोगोंपर चारों तरफसे चोट करनेकी जरूरत है। दुर्भाग्य है कि जब पुलिस-प्रशासन, सरकारें इनके खिलाफ काररवाई करती हैं तो मानवाधिकारों और ऐसे अन्य कई नामोंसे प्रतिष्ठित चेहरे, बुद्धिजीवियों, अधिवक्ताओंकी फौज पक्षमें खड़ी हो जाती है। ऐसा माहौल बनाया जाता है मानो यह सब तो समाज हितैषी हैं और केवल वैचारिक विरोधके कारण सरकार इनका दमन कर रही है। इसी तरह सैन्य काररवाईका भी विरोध होता रहा है। तो आवश्यकता दृढ़ता और ईमानदारीके साथ तीनों मोर्चोंपर काम करनेकी है। सैन्य अभियान माओवादियोंके समूल नाशके लक्ष्यकी दृष्टिसे सघन किया जाय। इन लोगोंको समझना चाहिए था कि हिंसा किसीके हितमें नहीं। लेकिन जब यह नहीं समझते तो फिर कानूनके तहत इनको समझानेकी व्यवस्था करनी ही होगी। निश्चित रूपसे इस मार्गकी बाधाएं हमारी राजनीति है। किसी भी राजनीतिक दलका इनके पक्षमें खड़े होनेसे काररवाई मुश्किल हो जाती है। यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आखिर ऐसे लोगोंके खिलाफ काररवाईमें राजनीतिक एकता कैसे कायम हो।