सम्पादकीय

 अवयस्क अनाथोंका विकल्प


प्रशान्त त्रिपाठी 

कोरोनासे अनाथ हुए बच्चोंको लेकर सुप्रीम कोर्ट गम्भार हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय इसपर गहरी चिंता जाहिर करते हुए सभी राज्य प्राधिकारियोंको ऐसे बच्चोंकी तत्काल पहचान करने एवं उन्हें राहत मुहैया करानेका निर्देश दिया। महिला एवं बाल विकास मंत्रालयने इस प्रश्नको गम्भीरतासे लिया है और राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग द्वारा भी ऐसे प्रयास किये जा रहे हैं जो असमय अनाथ हुई आबादीके लिए एक कल्याणकारी विकल्प उपलब्ध करा सके। वहीं, राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोगके अध्यक्षकी चिंता यह है कि गोद लेनेके नामपर हो रही बाल तस्करीका मुद्दा भी कम गंभीर नहीं है। यह एक संघटित अपराध है। यानी बच्चोंपर असमय पडऩेवाले इस वज्रपाती कुठाराघातको सरकार द्वारा संज्ञानमें लिया गया है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा विज्ञप्ति भी जारी की गयी है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसे बच्चोंको जानता है, जिन्होंने अपने माता-पिताको कोरोनाके कारण खो दिया है और उनकी देखरेख करनेवाला कोई नहीं है तो वह इसकी सूचना चाइल्डलाइनपर दें। मंत्रालयने परिवार एवं स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालयसे यह भी आग्रह किया है कि जब कोई व्यक्ति अस्पतालमें भर्ती होने जाय तो उससे यह पूछा जाय कि यदि कोई अनहोनी होती है तो उनके बच्चोंकी देखरेख कौन करेगा और यह विकल्प उनके द्वारा उसी समय चुन लिया जाय, ताकि आगे निर्णय लेनेमें आसानी हो।

राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग द्वारा मुख्य रूपसे जिन तीन बातोंपर जोर दिया गया है उनमें पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि कोरोनाकी आपदासे अनाथ हुए बच्चोंकी पहचान सुरक्षित रखी जाय। दूसरे, सोशल मीडियापर उनकी तस्वीरें साझा न की जायं और तीसरे, उन्हें बाल कल्याण समितिको दिया जाय, जो बच्चोंके सर्वोत्तम हितको ध्यानमें रखते हुए निर्णय करेगी। सरकारका ध्यान इस बातपर भी गया है कि यदि कोई अनाथ बच्चोंके सीधे दत्तक ग्रहणकी बात करता है तो उसे रोका जाय, क्योंकि यह गलत है। पूर्वमें राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोगने संवेदना नामसे एक टोल फ्री हेल्पलाइन नंबर भी जारी किया, जिसमें ऐसे बच्चोंकी टेली काउंसलिंग की जायगी, ताकि उन्हें मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और मानसिक सहयोग प्रदान किया जा सके। इसमें मुख्य रूपसे बच्चोंको तीन श्रेणियोंमें रखा गया है। पहला, ऐसे बच्चे, जो कोविड केयर सेंटर या एकांतमें हैं। दूसरा, ऐसे बच्चे जिनके अभिभावक कोरोना संक्रमित हैं और तीसरा, ऐसे बच्चे जिन्होंने अपने माता-पिता दोनोंको इस आपदामें खो दिया है। कुछ दिन पहले अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया गया और यह बतानेकी कोशिश की गयी कि परिवार ही सब कुछ है। हमारी हिम्मत, ताकत, शक्ति, सामथ्र्य और खुशीका केंद्रबिंदु। ऐसेमें सबसे महत्वपूर्ण और गंभीर प्रश्न है कि क्या असमय अनाथ हुई इस आबादीके पास केवल एकमात्र विकल्प दत्तक ग्रहणका ही है या कुछ और विकल्प भी उनकी देखरेख, संरक्षण और पुनर्वासनके लिए सुझाये जा सकते हैं।

बालकोंके हितोंके लिए काम करनेवाली कई संस्थाओंने यह भी सुझाव दिया है कि बच्चोंको उनके सर्वोत्तम हितको ध्यानमें रखते हुए अपने परिवारसे अलग न किया जाय। यानी उस परिवारके जो भी नाते-रिश्तेदार अपनी स्वेच्छासे बच्चोंको रखना चाहते हैं उन विकल्पोंपर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा और किशोर न्याय देखभाल एवं संरक्षण अधिनियम २०१५ में धात्रेय पालनके प्रावधानके साथ नातेदारों द्वारा देखभालके प्रावधानको जोड़ा जाना चाहिए। पहले बाल अभिरक्षाका प्रश्न तब उत्पन्न होता था, जब पति-पत्नीके बीच किसी विवादके कारण अलगाव होता था और उस समय बच्चा किसके पास रहेगा यह प्रश्न उठता था। इसका विधिक प्रावधान था कि किसी भी बच्चेकी अभिरक्षा निर्धारित करते समय उसके नैतिक विकास, सुरक्षा, शिक्षा और आर्थिक संरक्षा जैसे प्रश्नोंको ध्यानमें रखा जाय। यानी जो आर्थिक रूपसे संपन्न हो उन्हें बच्चेकी अभिरक्षा सौंपी जाय, जो उसे मनोवैज्ञानिक सहयोग, सकारात्मक वातावरण प्रदान कर सकें और दूसरे पक्षको मिलने-जुलनेका अधिकार दिया जाय ताकि उस बच्चेको किसीकी कोई कमी महसूस न हो। यहां यद्यपि स्थिति थोड़ी अलग है, लेकिन ऐसी स्थितियोंकी भी चर्चा बाल अभिरक्षाके मामलेमें हुई है, जिसमें न्यायालयों द्वारा यह निर्णय दिया गया है कि यदि माता-पिता दोनों नहीं हैं तो या तो दादा-दादीको बच्चेकी अभिरक्षा दी जाय या नाना-नानीको। इसमें बालकों की इच्छा और मंजूरीकी भी भूमिका अहम होती है। इसके बाद जो दूसरा विकल्प आता है वह है दत्तक ग्रहणका।

यह ठीक है कि किसी भी हालमें गोद लेनेके नामपर बाल तस्करी नहीं होनी चाहिए, परन्तु इस बातको भी ध्यानमें रखना होगा कि असमय अनाथ हुई इस आबादीका तत्काल प्रभावसे खयाल और समुचित प्रबंधन किया जाय, बच्चेके दत्तक ग्रहणके लिए चिह्नित संस्था कराकर दिशा-निदेर्शोंका पालन किया जाय, परन्तु यह भी समयोचित मांग है कि दत्तक ग्रहण संबंधी कानूनी प्रक्रियाका पुनरावलोकन भी किया जाय और दत्तक ग्रहणको अब कुछ खंडोंमें विभाजित किया जाय यानी पूर्ण और विधिक दत्तक ग्रहणके अलावा अल्पकालिक दत्तक ग्रहणकी भी व्यवस्था की जाय, जिसे विधिक भाषामें अर्ध दत्तक ग्रहण कहा जाय। ताकि वह नाते-रिश्तेदार जो मानवता, इनसानियत और संवेदनाके नामपर बच्चोंकी देखभाल करना चाहते हैं और उन्हें तात्कालिक मदद पहुंचाना चाहते हैं, उनकी शिक्षाकी व्यवस्था करना चाहते हैं, उन्हें दत्तक ग्रहणके विधिक दायित्वोंसे मुक्त रखा जाय, ताकि इन बच्चोंका कल्याण हो सके।

बच्चोंकी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है। ऐसेमें यह भी देखना होगा कि ऐसे बच्चोंके माता-पिता सरकारी नौकरीमें थे या नहीं और उन्हें अनुकम्पाके आधारपर मृतक आश्रित मानकर नौकरी दी जा सकती है या नहीं। जिन संघटनोंमें मृतक आश्रितको नियोजित करनेका विकल्प समाप्त कर दिया गया है, वह भी अपने यहां कार्यरत कर्मचारी, जिसकी मृत्यु कोरोना हुई है, उसके लिए विशेष परिस्थितियोंमें इस आपातकालीन विकल्पको अपनायें और ऐसे बच्चोंकी आजीविका सुनिश्चित करनेकी कोशिश करें। ऐसे बच्चोंको दी जानेवाली सुरक्षा और पुनर्वसन संबंधी नीतियोंको दो भागोंमें बांटना होगा। पहला, निकटवर्ती या अल्पावधि योजनाएं और दूसरा, दूरवर्ती या दीर्घावधि योजनाएं। अल्पावधि योजनाओंमें महत्वपूर्ण है ऐसे घर-परिवारोंकी पहचान, उनका तत्काल कोरोना परीक्षण, सैनिटाइजेशन, चिकित्सीय और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना और समय-समयपर उनका हालचाल लेना। दूरवर्ती योजनाओंके तहत उनका जीवन बीमा, आजीविका सुनिश्चित करना आदि। आवश्यकता इस बातकी भी है कि ऐसे बच्चोंकी जानकारी जिस किसीको मिले, वह अपने जिलेके बाल कल्याण समितिको इसकी तत्काल जानकारी दे।