सम्पादकीय

अस्थिरताके घेरेमें संवैधानिक पद


राजेश माहेश्वरी  

उत्तराखण्डमें अगले साल विधानसभा चुनाव होंगे। दो दशकोंमें ११ मुख्य मंत्री! सोचनेको मजबूर करता है कि वह क्या वजह है कि उत्तराखंडमें इतने मुख्य मंत्री बदले गये। किसी भी राज्यके लिए पांच सालके लिए एक मुख्य मंत्रीकी जरूरत होती है। राज्यके चहुंमुखी विकासके लिए यह जरूरी माना जाता है। राजनीतिक अस्थिरता अनिश्चय और अविश्वासका वातावरण निर्मित करती है। जो प्रदेश और देशके लिए ठीक नहीं समझा जाता। लेकिन उत्तराखण्डमें जिस तरह मुख्य मंत्री बदले गये हैं, उससे साफ है कि राज्य शुरूसे ही राजनीतिक अस्थिरतासे ग्रसित है। २०१७ के विधानसभा चुनावमें भारतीय जनता पार्टीने राज्यकी ७० विधानसभा सीटोंमेंसे ५७ सीटोंपर जीतका परचम लहराया था। यह राज्यमें अबतकके इतिहासमें न केवल भारतीय जनता पार्टी, बल्कि किसी भी दलके लिए सबसे बड़ा आंकड़ा है। लेकिन पूर्ण बहुमत मिलनेके बाद भी उत्तराखण्डमें सत्तासीन भाजपाने पांच सालमें तीसरा मुख्य मंत्री प्रदेशकी जनताको दिया है। भाजपामें नेतृत्व या मुख्य मंत्री परिवर्तनका निर्णय ‘दिल्ली स्थित आलाकमान ही लेता है। पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत और फिर ११५ दिनोंमें ही तीरथ सिंह रावतको मुख्य मंत्रीके पदसे हटना पड़ा, यह किसी महिमा या गरिमाका राजनीतिक निर्णय नहीं है, बल्कि भाजपाके भीतरी नाराजगी और गुटबाजीका ही नतीजा है। गलत निर्णय आलाकमानने लिये अथवा वह विधानसभा चुनावकी जिताऊ रणनीतिके मद्देनजर एक सक्षम और सटीक चेहरा नहीं चुन पाया। यह असमर्थता भाजपाके राष्टï्रीय नेतृत्वकी है, जिसमें प्रधान मंत्री और स्वराष्टï्रमंत्री भी शामिल हैं। त्रिवेंद्र और तीरथके बाद भाजपा आलाकमानने इस बार एक युवा और अनजानसे चेहरेको मुख्य मंत्री बनाया है। चुनावके मुहानेपर खड़े राज्य उत्तराखण्डमें भाजपाका यह प्रयोग कितना सफल रहेगा, यह तो आनेवाला समय ही बतायगा। लेकिन यह गुण भाजपामें ही निहित है, जहां ४६ वर्षीय पुष्कर सिंह धामी सरीखे अनुभवहीन नेताको मुख्य मंत्री बनाया गया है। अनुभवहीनके मायने हैं कि धामी किसी भी कैबिनेटमें राज्यमंत्रीतक नहीं रहे। छात्र राजनीतिमें वह लखनऊ विश्वविधालयमें काफी सक्रिय रहे। लखनऊसे उत्तराखण्ड लौटनेके बाद भी धामी लगातार छात्र राजनीतिमें एक्टिव रहे। इसीके चलते वह २०१२ और 2017 में लगातार विधायक बन पाये। धामीको लेकर राज्यके सीनियर नेताओंमें अन्दर ही अन्दर नाराजगीका माहौल है। लेकिन भाजपा आलाकमानने सतपाल महाराज, डा. हरक सिंह रावत, डा. धन सिंह रावत, बंशीधर भगत, यशपाल आर्य आदि वरिष्ठï विधायकों और नेताओंके असंतोषकी परवाह नहीं की। इस बार पिथौरागढ़के चेहरेको मुख्य मंत्री बनाया गया है। शायद कुमाऊं, गढ़वाल सरीखे क्षेत्रोंमें भाजपाकी स्थिति या तो बेहतर है अथवा वह पिथौरागढ़के जरिये चुनावी जुआ खेलना चाहती है। नये मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामीको असंतुष्टïोंको मनाने उनके आवासपर जाना पड़ा, लिहाजा साफ है कि उनकी राजनीतिक चुनौतियां बहुत हैं।

साल २००० में उत्तराखंडके साथ ही झारखंड और छत्तीसगढ़का गठन हुआ था। झारखंडके बाद उत्तराखंडने इस दौरान सबसे अधिक मुख्य मंत्री दिये हैं। बीते २१ सालोंमें झारखंडमें १२ मुख्य मंत्री मिले हैं। उत्तराखंडके हालात भी झारखंड जैसे होते दिख रहे हैं। राज्य गठनके बाद भाजपाकी दो सालकी अंतरिम सरकारमें ही राजनीतिक अस्थिरताका जन्म हो गया था। पहले सीएम नित्यानंद स्वामी सालभरका कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाये। नतीजा यह रहा कि भगत सिंह कोशरीको दूसरे सीएमके बतौर चुना गया। २००२ में हुए पहले विधानसभा चुनावोंमें कांग्रेसकी सरकार बनी। नेतृत्व नारायण दत्त तिवारीको मिला। अबतकके इतिहासमें सिर्फ एनडी तिवारी ही ऐसे नेता रहे हैं, जिन्होनें पांच सालका कार्यकाल पूरा किया। लेकिन तिवारीको भी अपने कार्यकालके दौरान काफी दिक्कतें उठानी पड़ी थीं। तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावतने कई बार तिवारीके खिलाफ मोर्चा खोला था। यह बात अलग है कि उनकी कोशिशें परवान नहीं चढ़ पायीं। उत्तराखंडको अस्तित्वमें आये बीस साल बीत चुके हैं, लेकिन इस दौरान ११ मुख्य मंत्रियोंने सरकारें चलायी हैं। संविधानके प्रावधानोंके मुताबिक, अब मुख्य मंत्रीकी कुर्सीपर पांचवां चेहरा होना चाहिए था। दूसरे विधानसभा चुनावोंमें सूबेकी सत्तामें भाजपा काबिज हुई थी। अगुवाई बीसी खंडूरीने की लेकिन खंडूरी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये। ८३४ दिनोंतक सत्ता संभालनेके बाद भाजपामें खंडूरीके खिलाफ भी बगावत हो गयी।

आखिरकार रमेश पोखरियाल निशंकको सूबेका पांचवां सीएम बनाया गया। निशंक भी शेष बचे कार्यकालको पूरा नहीं कर पाये और एक बार फिर राज्यकी बागडोर बीसी खंडूरीको दी गयी। २०१२ के विधानसभा चुनावोंमें भाजपासे कांग्रेसने सत्ता छीन ली थी। कांग्रेसने मुख्य मंत्रीका जिम्मा विजय बहुगुणाको सौंपा लेकिन बहुगुणाका कार्यकाल भी राजनीतिक अस्थिरताकी भेंट चढ़ गया। ६९० दिनोंतक बहुगुणाके सीएम रहनेके बाद कांग्रेसने यह जिम्मेदारी हरीश रावतको दे दी। हरीश रावतको भी अपनी ही पार्टीमें बगावतका सामना करना पड़ा था। नतीजा यह रहा कि राज्यमें पहली बार २५ दिनोंके लिए राष्ट्रपति शासन भी लगाया गया। २५ दिनों बाद कोर्टके आदेशपर हरीश रावतकी सरकार फिर बहाल हुई। २०१७ के चुनावोंमें भाजपाको सूबेमें प्रचंड बहुमत मिला था। ५७ विधायकोंके साथ बनी सरकारसे स्थिरता उम्मीद जगी थी लेकिन त्रिवेंद्र रावतकी विदाईसे साथ ही एक बार फिर उत्तराखंडमें राजनीतिक अस्थिरता दिखाई दी है। राजनीतिक मामलोंके जानकार प्रेम पुनेठा कहते हैं कि उत्तराखंडमें राजनीतिक अस्थिरताकी सबसे बड़ी वजह राजनेताओंकी अति महत्वाकांक्षा है। छोटा राज्य होनेके कारण हर किसीकी नजर सिर्फ मुख्य मंत्रीके पद रहती है। ऐसे में हर कोई हर हालमें खुदको मुख्य मंत्री देखना चाहता है। इतिहास साक्षी है कि भाजपाके किसी भी मुख्य मंत्रीको उनका कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया। पार्टी स्पष्टï कर सकती है कि यह कौन-सा संवैधानिक प्रावधान है? कमोबेश इसे लोकतंत्रकी पावन परम्परा नहीं माना जा सकता, बल्कि उत्तराखंड भाजपामें भीतरी टकराव और असंतोष ऐसे रहे हैं, जिनके नतीजतन मुख्य मंत्री सबसे अनिश्चित और अस्थिर संवैधानिक पद बन गया है। लोकतंत्रमें असंतोष और मत-भिन्नताकी गुंजाइश रहती है, लेकिन मुख्य मंत्रीका चेहरा व्यापक विमर्शके बाद तय किया जाना चाहिए, ताकि बदलाव बारी-बारीसे न करना पड़े। लोकतंत्रकी परम्पराके लिए मुख्य मंत्रियोंको बारी-बारी बदलना कोई शुभ संकेत नहीं है। जनादेश भाजपाके पक्षमें रहा तो कुछ भी दावा नहीं किया जा सकता। धामी ‘तुरुपका पत्ताÓ भी साबित हो सकते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि धामी चुनावतक तो मुख्य मंत्री रहेंगे।