सम्पादकीय

आचरण


श्रीराम शर्मा

देवदत्त संत थे परन्तु सांसारिक संत। यूं नहीं कि उन्होंने गृहस्थका परित्याग किया हो वरन् इसलिए कि वह ईश्वरका भजन, साधन, स्वाध्याय, सदाचार, सद्ïव्यवहारका आचरण करते हुए भी कभी-कभी क्रोधका व्यवहार कर जाते थे। धैर्य स्थिर रखना उनके लिए कठिन हो जाता था और घरमें जब कभी ऐसी स्थिति आती, धर्मपत्नीको डांटने लगते। देख यदि तूने अमुक कार्य नहीं किया तो संत पुनीतके आश्रममें चला जाऊंगा और संन्यासी हो जाऊंगा। धर्मपत्नीको उनसे तो नहीं, उनकी धमकीसे बड़ा भय लगता था। नन्हें-नन्हें बच्चोंके पालन-पोषणका प्रबंध कौन करेगा, यदि यह संन्यासी हो गये, यह कल्पना करते ही वह डर जाती और वह जैसा कहते करने लगती। किंतु ब्राह्मïणी देवदत्तके इस आचरणसे मन ही मन बहुत दु:खी रहती है। इन्हीं देवदत्तकी गांवके लोग कितनी श्रद्धा करते हैं, कितना स्नेह और आदर देते हैं, वह गांववालोंसे कैसी मीठे-मीठे बोलते हैं, इसपर ध्यान जाता तो उसे शंका होने लगती कि क्या दूसरोंके लिए मीठा होना और घरके निरीह सदस्योंको दबाना और भक्तिका रोब जमाना ही संतका लक्षण है। यदि ऐसा ही है तो ईश्वरकी उपासना व्यर्थ वस्तु है, ऐसा वह सोचती परन्तु बोलती कुछ नहीं, क्योंकि उस बेचारीको ईश्वरकी नहीं, पतिकी आवश्यकता थी। संत पुनीतका आश्रम समीप ही था। महर्षि कभी-कभी गांवोंमें चले जाते और लोगोंके दु:ख कष्ट पूछते, औषधि वितरण करते, ज्ञान-दान देकर शामतक आश्रम लौट आते। एक दिन इसी प्रकार उस ब्राह्मïणीको दु:खी देखकर उन्होंने पूछाए विद्यावती! तू दिन-प्रतिदिन दुबली होती जाती है, तुझे कोई कष्ट है क्या। महर्षिके स्नेह वचन सुनकर विद्यावतीकी आंखें भर आयीं, उसने भरे कंठसे कहा, भगवन और तो कोई दु:ख नहीं है, वह पूजा-भक्ति करते हैं, वह मुझे भी अच्छा लगता है। ईश्वरकी उपासनासे मनुष्यके अंत:करणमें प्रकाश आता है, वह मैं जानती हूं परन्तु मुझे यह समझमें नहीं आता कि उसके लिए क्या घर छोडऩा आवश्यक ही है। ऐसा न होता तो ये यूं कहकर धमकाते नहीं, मैं घर छोड़कर संत पुनीतके आश्रममें चला जाऊंगा और संन्यासी हो जाऊंगा। क्या ईश्वरको प्राप्त करनेके लिए संन्यासी होना ही आवश्यक है। नहीं-नहीं बेटी! संतने आश्वासनका हाथ उठाया और बोले, मनुष्य अपने घरपर रहकर यदि मानवीय गुणोंका आचरण निष्ठापूर्वक कर सके तो उतनी ही ईश्वर भक्ति पर्याप्त है, इतनेसे ही वह ईश्वरीय विभूतियोंको प्राप्त कर सकता है। जो यहां अपना अहंकार नहीं छोड़ सका, वह मेरे आश्रममें आकर क्या वैराग्य करेगा। उन्होंने समझाया, अच्छा बेटी! तू चिंता मत कर मैं ऐसा कर दूंगा कि देवदत्त फिर कभी ऐसे वचन न बोले। परन्तु हां तू थोड़ा साहस करना। इस बार जब कभी देवदत्त यह कहे कि मैं संतके आश्रम चला जाऊंगा तो तू भी कह देना, हां, हां चले जाइये।